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Shri Ram Prem Katha: जौं न होत जग जनम भरत को
Ram Bharat Milap Story in Hindi: भरत के चरित्र को गोस्वामी बाबा तुलसीदास जी ने बेमिसाल गौरव दिया है। जहाँ उन्होंने राम को साक्षात् ब्रह्म के रूप में प्रतिष्ठित किया है , वहीं श्रीभरतलाल जी को मूर्तिमन्त भक्त के रूप में।
Ram Bharat Milap Story in Hindi: पूरे श्रीरामचरितमानस में भरत के चरित्र को गोस्वामी बाबा तुलसीदास जी ने बेमिसाल गौरव दिया है। जहाँ उन्होंने राम को साक्षात् ब्रह्म के रूप में प्रतिष्ठित किया है , वहीं श्रीभरतलाल जी को मूर्तिमन्त भक्त के रूप में। जहाँ राम दुस्सह वेदना को सहकर भी मर्यादा की स्थापना करते हुए दिखाई देते हैं, वहाँ श्रीभरत जी उनके अनुपम सहयोगी बनकर खड़े हो जाते हैं। श्रीराम जी यदि सम्पूर्ण सत्त्व के साथ खिले हुए फूल हैं, तो श्रीभरतलाल जी वह उर्वर भूमि हैं, जो नायाब फूल खिलने का अवसर और गौरव प्रदान करती है। श्रीराम के चरित्र को आकाश - सी ऊँचाई इसीलिए मिल सकी, क्योंकि उसे श्रीभरतलाल जी के त्यागमय एवं निस्वार्थ जीवन की ठोस जमीन प्राप्त थी।
श्रीराम जी हमेशा श्रीभरतलाल जी को अपने मन - प्राण में बसाकर रखते हैं और श्रीभरत जी की साँसों की हर धड़कन श्रीराम को समर्पित होती है। लौकिक दृष्टि से देखें तो भाई के रूप में राम और भरतलाल जी का एक - दूसरे के प्रति व्यवहार परिवार को स्वर्ग बनाने के लिए एक श्रेष्ठ उदाहरण है। मानवीय सम्बन्धों की कोई कथा इतनी प्रेरक और प्रभावपूर्ण नहीं है।
श्रीभरतलाल जी राम के लिए बड़े - से - बड़ा त्याग करने में भी हिचकिचाये नहीं। उन्होंने चौदह वर्षों तक तपस्वी का जीवन व्यतीत किया था। अवसर होते हुए भी जीवन के समस्त सुखोपभोगों को हीन और हेय समझकर ठुकरा दिया था। लौकिक जीवन का प्रेम ही आध्यात्मिक जीवन में भक्ति बनता है। जैसे प्रेम से मानवीय सम्बन्धों को उष्मता और ताजगी मिलती है। वैसे ही भक्ति से दैवी सम्बन्धों में एकात्मता स्थापित होती है। भक्त भगवान् में समर्पित और लय होता है। प्रेम का रूपान्तरण ही भक्ति है। भरत भाई के रूप में प्रेम के श्रेष्ठ प्रतीक हैं। भक्त के रूप में भक्ति के अन्यतम उदाहरण हैं। वे हमारे जीवन के दोनों पक्षों को ऊँचाई प्रदान करते हैं। तुलसी बाबा ने भरत जी का चरित्र गाते समय उनके चरित्र के इन दोनों पक्षों को खूब निखारा है। भगत पग - पग पर भाई के रूप में हमें श्रेष्ठ पारिवारिक सम्बन्धों की सीख देते हैं । भक्त के रूप में प्रभु के लिये कुछ भी न्योछावर करने की उदात्त कामना हमारे भीतर जगाते हैं।
इसी कारण भरत जी का चरित्र गंगा जैसा पवित्र बन गया है। राम हमेशा उन्हें अपने हृदय में बनाये रखते हैं। जब राम किसी के प्रति अपना प्रेम व्यक्त करते हैं तो उसे " भरतहि सम भाई " कहकर पुकारते हैं। भरत को मिला यह गौरव मानवीय सम्बन्धों और आध्यात्मिक उपलब्धियों का चरम बिन्दु है। श्रीरामकथा में भरत का चरित्र सबसे अधिक विवादास्पद हो सकता था। लेकिन वाबा तुलसी ने उसे सर्वाधिक विश्वसनीय बना दिया है। जिस परिस्थिति में कैकयी ने दशरथ से भरत के लिए राज्य और राम के लिए वनवास माँगा था, उसमें कोई भी सासानी से यह अटकल भिड़ा सकता था कि भरत का भी उसमें हाथ था। इसके लिए उपयुक्त तर्क खोजना भी कठिन नहीं था। भरत के विरोधियों या यूँ कहें कि राम के समर्थकों को भी कोई - न - कोई मन्थरा मिल ही सकती थी। लेकिन पूरे श्रीरामचरितमानस में भर का चरित्र इस प्रकार उभरकर सामने आया है कि कोई स्वप्न में भी नहीं सोच पाता कि कैकेयी के विचारों में भरत की सम्मति है। इतना ही नहीं, यह विश्वसनीयता इस सीमा तक दृढ बन गयी कि भरत के चरित्र पर आक्षेप लगानेवाले को लोग दुत्कार कर भगा देते ; उसे संसार का घोर पातकी करार देते।
भरत के चरित्र को आरम्भ से ही बाबा तुलसी इस प्रकार गढ़ते हैं कि भरत के प्रति कोई आरोप या आक्षेप की भावना से सोच ही नहीं पाता है। प्रत्येक पात्र भरत की प्रशंसा करते नहीं अघाता। यदि केवल कैकयी ही भरत की बड़ाई करतीं, तो वे रामकथा में एक खलानायक बनकर रह जाते। यदि केवल राम ही वन जाते समय भरत की बड़ाई करते, तो यह केवल राम का शिष्टभाव या बड़प्पन ही होता। यदि बाबा तुलसी चित्रकूट में राम- भरत मिलाप के अवसर पर भरत के बारे में दो - चार अच्छे शब्द लिख देते तो यह भरत के प्रति तुलसी की कवि - सुलभ करुणा होती। इससे भरत का अनुकरणीय व्यक्तित्व नहीं उभरता। तब भरत के प्रति हम किंचित् द्रवित होते , उनसे हमें प्रेरणा नहीं मिलती।
भरत के चरित्र को बाबा तुलसी बाहर से नहीं , भीतर से सँवारते हैं ; उसे बड़ी सहजता और स्वाभाविकता से उभारते हैं। जैसे राम का नाम - स्मरण सुखदायी है उसी तरह भरत का नाम पवित्र बनानेवाला है। इसका कारण साफ है। भरत राम को प्राणों से भी प्रिय हैं। जिसे राम प्रिय हों, वही महान् बन जाता है; किन्तु जो राम को प्रिय हो, उसकी महानता का कहना ही क्या ! भरत में दोनों गुण घुले - मिले हैं। राम तो उन्हें प्रेम करते ही हैं , साथ - ही - साथ भरत को भी राम प्राणाधिक प्रिय हैं। जो राम का प्रिय हो या जिसे राम प्यारे हों उसपर कोई आक्षेप लगाना, उसके बारे में अनुचित बोलना राम का अपमान होगा, राम की भक्ति का अपमान होगा। इससे सत्कर्म नष्ट तो होंगे ही, पाप भी बढ़ेगा।
धर्म का यही मूलाधार है। जब भक्त प्रभुमय हो जाता है तब उसके समूचे चरित्र में प्रभुता प्रकाशित हो उठती है। भरत की स्थिति भी यही थी। राम उनके मन - प्राण में बसे थे। इसीलिए वे राममय हो उठे थे। उनकी सिद्धि की महिमा इतनी मुखर थी कि इस स्थिति से हर एक परिचित था। सभी भरत राममय रूप को पहचानते थे। यह पहचान इतनी गहरी और विश्वस्त है कि इसे कैकेयी का पाप छू भी नहीं सका।
भरत का चरित्र यदि चन्दन - सा नहीं होता तो अयोध्या का सर्वनाश हो जाता। राजभवन कैकेयी के अहंकार से जल उठता और प्रजाजन राम एवं भरत का पक्ष लेकर मर मिटते। कोई कुछ भी बचा पाने में समर्थ नहीं होता। लेकिन भरत के दैवी चरित्र ने सबकुछ बचा लिया। उत्पात, उपद्रव और वैमनस्य के दानव अयोध्याजी को छू भी नहीं सके। प्रेम का देवता सबके हृदयों में भरत के चरित्र का चन्दन बनकर गमकता रहा।
अपने चरित्र से भरत ने हर एक को पवित्र बनाया। पूरी कलंक – कथा में माँ कैकेयी सबसे अधिक अपराधिनी दिखाई दे रही थीं। उनके मुख पर जो कालिख लगी थी, उसका धुल पाना सहज स्थिति में असम्भव लगता था। लेकिन भरत जी ने अपने शील - स्नेह से उन्हें भी एक सहानुभूति योग्य चरित्र बना दिया। भरत के ऐसे देवोपम चरित्र की महिमा गाते हुए तुलसी बाबा थकते नहीं हैं। श्रीरामचरितमानस के आरम्भ में सबको वन्दना करते समय वह भरत जी को सबसे अधिक सम्मान देते हैं –
प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना ।
जासु नेम ब्रत जाइ न बरना ॥
सबसे पहले मैं भरत के चरणों को प्रणाम करता हूँ, जिनका विनय और व्रत वर्णन नहीं किया जा सकता।भरत जी का यह नियम और व्रत किसी सांसारिक चीज को पाने के लिए नहीं था। वह स्वर्ग या मोक्ष के लिए भी एकान्त साधना नहीं कर रहे थे। उनके जीवन का एक लक्ष्य था –
राम चरन पंकज मन जासू ।
लुबुध मधुप इव तजइ न पासू ॥
भरत का मन राम के चरण - कमलों में भौंरे की तरह लुभाया हुआ है। कभी उनका पास नहीं छोड़ता। यही भरत जी के जीवन का सनातन सत्य है। इसी को पाने के लिये भरत तपस्वी बने थे। उनका मन राम के पास रहने में सुख का अनुभव करता था। इसीलिए जब माँ कौशल्या जी उन्हें राजा बनने के लिए कहती हैं तो वे रो पड़ते हैं। उनकी दशा देखकर वहाँ बैठे सभी लोग भावविभोर हो जाते हैं।
सो दसा देखत समय तेहि बिसरी सबहि सुधि देह की ।
तुलसी सराहत सकल सादर सीवँ सहज सनेह की ॥
भरत की दशा देखकर उस समय सबको अपने शरीर की सुध भूल गयी। तुलसी बाबा कहते हैं कि " स्वाभाविक स्नेह की सीमा " भरत की सब लोग आदरपूर्वक सराहना करने लगे। यह " सहज सनेह " ही भरतलाल जी की पूँजी है। यदि वह झूठ - मूठ में रोते तो लोग अपने शरीर की सुध नहीं भूलते, भरत की खबर लेते ; उनके दिखावटी शोकभाव की निन्दा करते। सराहना का भाव किसी के मन में नहीं आता। किन्तु भरत जी का सहज स्नेह सभी को बाँधे रखता है। निर्मल प्रेम में विकर्षण के लिए कोई स्थान नहीं होता। भरत जब राम से मिलने चित्रकूट जा रहे होते हैं तब उनके सहज स्नेह का चमत्कार हमें दिखाई देता है ।
जबहि रामु कहि लेहिं उसासा ।
उमगत पेमु मनहुँ चहु पासा ॥
भरत जब " राम " कहकर लम्बी साँस लेते हैं तब चारों ओर प्रेम उमड़ पड़ता है। उनका प्रेम पूरे वातावरण को प्रभावित कर रहा है। उसमें राम नाम का चुम्बक लगा हुआ है। जो राम को पा लेता है, वह सबका बन जाता है। लक्ष्मण के क्रोध के बाद जब राम ने भरत पर अपना विश्वास प्रकट किया था तब देवताओं को बड़ी प्रसन्नता हुई थी। उन्होंने भरत के बारे में बड़ी उँची बात कही थी –
जौं न होत जग जनम भरत को ।
सकल धरम धुर धरनि धरत को ॥
यदि संसार में भरत का जन्म नहीं होता तो पृथ्वी पर सम्पूर्ण धर्मों की धुरी को कौन धारण करता ? इस संसार में सभी को धर्म ही धारण करता है। अपने आधार को पैरों के नीचे से हटाकर आदमी खड़ा नहीं हो सकता। धर्म मनुष्य को सँभालता है; पर कोई है, जो धर्म को भी टिकाये रखता है। यह है प्रेम। संघर्ष करके संसार नहीं चल सकता। संघर्ष में ही जीने से धर्म नहीं बढ़ सकता। प्रेम जरूरी है। लेकिन प्रेम को भी आधार चाहिए। प्रेम का आधार क्या है ? प्रेम का आधार है विश्वास। विश्वास के बिना आप जी नहीं सकते। यात्रा में चालक पर, घर में नौकर पर, काम में सहयोगियों पर, आराम में कुटुम्बियों पर, बीमार में दवा और डॉक्टर पर आपको विश्वास करना पड़ता है। विश्वास न हो तो आदमी अकेला हो जाये। एकदम अपरिचित रह जाये।
भरत जी विश्वास के अनुपम प्रतीक हैं। कोई लाख समझाये, राम नहीं मान सकते कि भरत उनके विरुद्ध हो सकते हैं। यह भाव वन्दनीय है। जीवन को जीने योग्य बनाने के लिए भरत जी का - सा विश्वास जरूरी है। इससे मनुष्य की जीवन में हर मनचाही चीज़ मिल सकती है।
कहत सुनत सति भाउ भरत को ।
सीय राम पद होई न रत को ॥
भरत के सद्भाव को कहते - सुनते कौन मनुष्य सीताराम के चरणों में अनुरक्त न हो जायेगा। जिसे पाने के लिए जन्म - जन्मान्तर तक ऋषि - मुनि तरसते हैं, उसे भरत जी चुटकी बजाते आदमी को दे सकते हैं। भरत के माध्यम से कितना आसान है प्रभु को पाना ! जो भरत के सद्भाव को अपने जीवन में उतारेगा, सीताराम उसके पास दौड़ आयेंगे। भरत का नाम सुनकर राम का दौड़ पड़ना भाई के प्रति पक्षपात नहीं था। भरत ने अपने शील - स्नेह से राम की कृपा पायी थी; अपनी तपस्या और साधना से राम के हृदय में स्थान बनाया था।
भूषण बसन भोग सुख भूरी ।
मन तन बचन तजे तिन तूरी ॥
गहने, कपड़े तथा अन्य प्रकार के सभी सुख - भोगों को भरत ने तन, मन और वचन से एक तिनके की तरह तोड़ दिया था। यह त्याग सराहनीय है। राम के लिए भरत तपस्वी बन गये हैं। सबकुछ उन्होंने तन, मन और वचन से छोड़ दिया है। अगर वह ढोंग करते तो केवल वचन से छोड़ते। अपने त्याग के बारे में एक बयान जारी करवा देते। आधुनिक त्यागियों की तरह शम्पू से सूखे बालों को दिखाकर कहते कि बहुत दिनों से तेल नहीं मिल रहा है। मालपूआ और मलाई खाकर निराहार व्रत के महत्त्व पर भाषण देते। उन्होंने उसे तन, मन और वचन से छोड़ दिया।
वचन से किसी चीज को छोड़ना आसान है ; किन्तु उसे तन - मन से छोड़ पाना बड़ा कठिन है। तन आदत का गुलाम होता है और मन आकर्षण का। आदतें जल्दी छोड़ी नहीं जातीं। मन प्रेयस छोड़कर श्रेयस की ओर जाता ही नहीं। वचन का त्याग तब तक सार्थक नहीं होता जब तक तन और मन उसे मान न लें। भरत जी का तीनों पर नियन्त्रण था। इसीलिए वे सबकुछ एक झटके से छोड़ सके। त्याग एक झटके में ही किया जा सकता है। संकल्प वह है जो तुरन्त आचरण में आ जाये। घोषणाओं, सभाओं और यात्राओं से संकल्प नहीं साधा जा सकता। उसे साधने के लिए आचरण चाहिए। भरत जी ने जो संकल्प किया, उसे अपने आचरण से साधा।
परम पुनीत भरत आचरनू ।
मधुर मंजु मुद मंगल करनू ॥
भरत का परम पवित्र आचरण मधुर, सुन्दर और आनन्द - मङ्गलों को देने वाला है। मनुष्य को इस संसार में और क्या चाहिए! कितनी कोशिश करता है वह, लेकिन जीवन में मधुरता नहीं आती है। संसार के जंजाल उसे लटकाते - भटकाते रहते हैं, कठोरता - कड़ुवाहट उसे दबोचने को दौड़ती रहती हैं; ऐसे में यदि तनिक भी मधुरता मिल जाय तो लोग धन्य हो जाते हैं। सुन्दरता की प्यास किसे नहीं होती ! बदसूरती को सँजोने में कोई रुचि नहीं लेता है; लेकिन जीवन में वही ज्यादा मिलती है। इसीलिए आदमी ने बाग - बगीचे बना रखे हैं, क्यारियाँ - फुलवारियाँ बना रखी हैं। कारण एक है कि वह कहीं तो सुन्दरता, केवल सुन्दरा देख सके। वहाँ बदसूरती का नामोनिशान न हो। आनन्द और मङ्गल भी बड़े दुर्लभ हैं। इनकी चाह सभी को होती है; पर वे विरलों को चाहते हैं। उनके दरबार में बड़ी लम्बी " क्यों " होती है।
परमात्मा की यह दुर्लभ देन हर एक को सुलभ नहीं होती। जीवन - भर अथक उपाय करके भी आदमी इन्हें पूरी तौर पर पाने में समर्थ नहीं हो पाता। भरतलाली जी का आचरण इन्हें दिला पाने का अचूक रास्ता है। जो भरत भाव का स्मरण करता है उसे जीवन में कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता। यह अनुभव सिद्ध है। भरतलाल जी की महिमा गाते - गाते बाबा तुलसीदास अपने आपको भी दाँव पर लगा देते हैं –
सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को ।
मुनि मन अगम जम नियम सम दम विषम ब्रत आचरत को ॥
दुख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को ।
कलिकाल तुलसी से सठन्हि हठि राम सनमुख करत को ॥
सीताराम के प्रेम रूपी अमृत से परिपूर्ण भरत का जन्म यदि न होता तो मुनियों के मन को भी अगम यम , नियम, शम, दम आदि कठिन आचरणों को कौन करता ? दुःख, दाह, दरिद्रता, दम्भ आदि दोषों को अपने सुयश के बहाने कौन हरण करता ? तुलसीदास जैसे शठों को कलियुग में हठपूर्वक राम के सन्मुख कौन करता ?
नारायण ! श्रीभरतलाल जी की महिमा का इससे बढ़कर बखान नहीं किया जा सकता। मुनियों के लिए भी जो आचरण कठिन है, उसे भरत जी ने सहज कर दिया। अपने सुयश से उन्होंने संसार के सभी दुःखों को दूर करने का रास्ता बता दिया। भरत ने ही सिखाया कि बगैर आचरण में पवित्रता लाये दुःखों से छुटकारा नहीं पाया जा सकता। इतना ही नहीं, तुलसी बाबा यह भी कहते हैं कि यदि भरत जैसा राम का प्रेमपात्र पैदा नहीं होता तो तुलसी जैसे शठों को राम के पास और कोई नहीं बिठा सकता था। यह कहकर तुलसी बाबा अपनी सारी उपलब्धि भरत के चरणों में समर्पित कर देते हैं।
बाबा तुलसी जी ने भरत के चरित्र को बड़ा महत्त्व दिया है। राम को पाने के लिए भरत का आचरण मार्ग है । परिवार में रहते हुए, परिवार छोड़कर साधना करते हुए आदमी प्रभु की कृपा चाहता है। जो संसारी है उसे सुख - समृद्धि चाहिए, जो असंसारी है उसे मुक्ति चाहिए। दोनों के लिए प्रभु की कृपा जरूरी है। इसे पाने के लिए एक ही मार्ग है - श्रीभरतलाल जी का आचरण अपनाना। जो इसे अपनायेगा वह निश्चय ही धन्य हो जायेगा।
(कंचन सिंह)