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जितनी भी आसुरी सम्पत्तियां हैं दुर्गुण, दुराचारादि वे सब अभिमान की छाया में रहती हैं
-श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज
अध्यक्ष : अखिल भारतीय सोऽहम् महामण्डल
जितनी भी आसुरी सम्पत्तियां हैं दुर्गुण, दुराचारादि वे सब अभिमान की छाया में रहती हैं। मैं हूं- इस प्रकार जो अपना होनापन है, वह उतना दोषी नहीं हैं जितना दोषी अभियान है। भगवान का अंश भी निर्दोष है परन्तु मेरे में गुण हैं, मेरे में योग्यता है, मेरे में विद्या है, मैं बड़ा चतुर हूं, मैं वक्ता हूं, मैं दूसरों को समझा सकता हूं- इस प्रकार दूसरों की अपेक्षा अपने में जो विशेषता दिखती है, यह बहुत दोषी है अपने में विशेषता चाहे भजन-ध्यान से दिखे, चाहे कीर्तन से दिखे, चाहे जप से दिखे, चाहे चतुराई से दिखे, चाहे उपकार करने से दिखे, किसी भी तरह से दूसरों की अपेक्षा स्वयं में विशेषता दिखती है तो यह अभिमान है। यह अभिमान बहुत घातक है। और इससे बचना भी बहुत जरूरी है।
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अभिमान जाति को लेकर भी होता है, वर्ण को लेकर भी होता है, आश्रम को लेकर भी होता है, विद्या को लेकर भी होता है, बुद्धि को लेकर भी होता है। कई तरह का अभिमान होता है। जैसे मेरे को गीता याद है, मै गीता पढ़ा सकता हूं, मैं गीता के भाव विशेषता से समझता हूं- यह भी अभिमान है। अभिमान पतन करने वाला है। जो श्रेष्ठïता है या विशेषता है, उसको अपना मान लेने से ही अभिमान आता है। यह अभिमान केवल अपने उद्योग से दूर नहीं होता, प्रत्युत भगवान की कृपा से ही दूर होता है। अभिमान को दूर करने का ज्यों-ज्यों उद्योग करते हैं, त्यों-त्यों अभिमान दूर नहीं होता है। अभिमान को मिटाने का कोई उपाय करें तो वह उपाय ही अभिमान बढ़ाने वाला हो जाता है। इसलिए अभिमान से छूटना भगवत्कृपा के बिना बड़ा कठिन है। साधक को इस विषय में बहुत सावधान रहना चाहिए। और प्रभु की शरण ग्रहण करनी चाहिए।
साधक को इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि अपने में जो कुछ विशेषता आई है, वह खुद की नहीं है, प्रत्युत भगवान से आई है। इसलिए उस विशेषता को भगवान की ही समझें, अपनी बिलकुल न समझें। अपने में जो कुछ विशेषता दिखती है, वह प्रभु की दी हुई हैं- ऐसा दृढ़तापूर्वक मानने से ही अभिमान दूर हो सकता है। और विनम्रता आती है। मैं जैसा कीर्तन करता हूं, वैसा दूसरा नहीं कर सकता, दूसरे इतने हैं, पर मेरे जैसा करने वाला कोई नहीं है- इस प्रकार जहां दूसरे को अपने सामने रखा कि अभिमान आया। साधक को ऐसा मानना चाहिए कि मैं करने वाला नहीं हूं, प्रत्युत यह तो भगवान की कृपा कटाक्ष से हो रहा है। जो विशेषता आई है, वह मेरी व्यक्तिगत नहीं है। अगर व्यक्तिगत होती तो सदा रहती, उस पर मेरा अधिकार चलता। ऐसा मानने से ही अभिमान से छुटकारा हो सकता है। कि ‘‘ दाता एक राम भिखारी सारी दुनिया’’ भगवान की कृपा है कि वे किसी का अभिमान रहने नहीं देते। इसलिए अभिमान आते ही उसमें टक्कर लगती है। भगवान विशेष कृपा करके चेताते हैं कि तू कुछ भी अपना मत मान, तेरा सबकुछ मैं करूंगा। भगवान अभिमान को तोड़ देते हैं, उसके ठहरने नहीं देते या उनकी अलौकिक विचित्र कृपा है।
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भगवान को स्वाभाव बड़ा विचित्र। दूसरे मनुष्य तो हमारा कुछ भी उपकार करते हैं तो ऐसा एहसान बताते हैं कि तेरे को मैंने ऊंचा बनाया है। पर भगवान कुछ देकर भी कहते हैं कि ‘‘मैं तो हूं भक्तन को दास, भगत मेरे मुकुटमणि’’। भगवान ने सबरी और अर्जुन आदि भक्तों के जीवन में ऐसा ही कर दिखाया है। भगवान या नहीं कहते कि मैं तेरे को ऊंचा बनया है, प्रत्युत खुद उसके दास बन जाते हैं। इतना ही नहीं, भगवान उसको पता ही नहीं चलते देते कि मैंने तेरे को दिया है। मनुष्य के पास शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियां आदि जो कुछ हैं, वह सब भगवान का ही दिया हुआ हैै। वे इतना छिपकर देते हैं कि मनुष्य इन वस्तुओं को अपना ही मान लेता है कि मेरा ही मन है, मेरी ही बुद्धि है, मेरी ही योग्यता है, मेरा सामथ्र्य है, मेरी ही समझ है। यह तो देने वाले की विलक्षणता है कि मिली हुई चीज अपनी ही मालूम देती है। अगर आंखें अपनी हैं तो फिर चश्मा क्यों लगाते हो? आंखों में कमजोरी आ गई तो उसको ठीक कर लो। शरीर अपना तो उसको बीमार मत होने दो, मरने मत दो। पर यह सब अपने हांथ में नहीं है। भगवान अभिमान को दूर करते हैं, पर मनुष्य फिर अभिमान कर लेता है। अभिमान करते-करते उम्र बीत जाती है, इसलिए हरदम हे नाथ! हे मेरे नाथ! पुकारते रहो और भीतर से इस बात का ख्याल रखो कि जो कुछ विशेषता आई है, भगवान से आई है, यह अपने घर की नहीं है। ऐसा नहीं मानोगे तो बड़ी दुर्दशा होगी।
यह मान लो जन्म भगवान का दिया हुआ है। भगवान मनुष्य को तीन शक्तियां दी हैं- करने की शक्ति, जानने की शक्ति और मानने की शक्ति। करने की शक्ति दूसरों का हित करने के लिए दी है। जानने की शक्ति भगवान की कृपा करने को जानने के लिए दी है, मानने की शक्ति भगवान को मानने के लिए दी है परन्तु गलती तब होती है जब मनुष्य इन तीनों शक्तियों को अपने लिए लगा देता है। इसलिए वह दु:ख पा रहा है। बल, बुद्धि, योग्यता आदि अपने ही दीखते ही अभियान आ जाता है। मैं ब्राह्मण हूं- ऐसा मानने पर ब्राह्मणपने का अभियान आ जाता है। मैं धनवान हूं- ऐसा मानने पर धन का अभियान आ जाता है। मैं विद्धान हूं- ऐसा मानने पर विद्या का अभियान आ जाता है। जहां मैं पन का आरोप किया, वहीं अभियान आ जाता है। इसलिए भीतर से हरदम भगवान को पुकारते रहो। अपने में योग्यता प्रत्यक्ष दीखती है, इसलिए अभिमान से बचना बहुत कठिन होता है। मनुष्य को प्रत्यक्ष दीखता है कि मैं अधिक पढ़ा-लिखा हूं, मैं अधिक गीता जानने वाला हूं, मैं कीर्तन करने वाला हूं इसलिए वह फंस जाता हूं। अगर यह दीखने लग जाए कि यह सब केवल भगवान की कृपा से हो रहा है तो निहाल हो जाए। ऐसे चेतना भी भगवान की कृपा से होती है। जिनको ऐसी चेतना न हो उनपर दया होनी चाहिए। वे भी चेतेंगे पर देरी से चेतेंगे।
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सुना है एक समय बांकुड़े जिले में आकाल पड़ा है। सेठ जी श्रीजय दयाल जी गोयन्दका ने नियम रख दिया कि कोई भी आदमी आकर दो घंटे कीर्तन करे और चावल ले जाए। कारण ये था कि अगर उनको पैसा देंगे तो उससे वे अशुद्ध वस्तुएं खरीदेंगे इसलिए पैसा न देकर चावल देते थे। इस तरह सौ-सवा सौ जगह ऐसे केन्द्र बना दिए जहां लोग जाकर कीर्तन करते थे और चावल ले जाते थे। एक दिन सेठ जी वहां गये। रात्रि के समय बंगाली लोग इक_े हुए। उन्होंने सेठ जी से कहा कि महाराज! आपने हमारे जिले को जीवन दिया, नहीं तो बिना अन्न के लोग भूखों मर जाते। आपने बड़ी कृपा की। सेठ जी ने बदले में बहुत बढिय़ा बात कही कि आप लोग झूठी प्रशंसा करते हो।
हमने मारवाड़ से यहां आकर जितने रुपये कमाये, वे सब लग जायें, तब तक तो आपकी ही चीज आपको दी है, हमारी चीज ही नहीं। हम मारवाड़ से लाकर यहां दे, तब आप ऐसा कह सकते हो। हमने तो यहां से कमाया हुआ धन भी पूरा नहीं दिया है। सेठ जी ने केवल सभ्यता की दृष्टि से यह बात नहीं कही, प्रत्युत हृदय से यह बात कही। सेठ जी के छोटे भाई हरिकृष्णदास जी से पूछा गया कि आपने सबको चावल देने का इतना काम शुरू किया है, इसमें कहां तक पैसा लगाने का विचार है? उन्होंने बड़ी विचित्र बात कही कि जब तक मांगने वालों की जो दशा है, वैसी दशा हमारी न हो जाये, तब तक। कोई धनी आदमी क्या ऐसा कह सकता है? उनके मन में यह अभिमान ही नहीं है कि हम इतना उपकार करते हैं यदि ऐसे भाव जागृत हो जाएं तो अभिमान छूट सकता है।