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Shrimad Bhagavad Gita: सत्य को पाने के लिये संतोष का साधन करना परम आवश्यक है
Shrimad Bhagavad Gita: सत्य को पाने के लिये संतोष का साधन करना परम आवश्यक है
यदि मनुष्य अपने जीवन में संतोष धारण कर ले तो
वो सदा के लिए सुखी बन जायेगा।
मानव-जीवन का एकमात्र उद्देश्य है,
सत्य को पाने के लिये संतोष का साधन करना परम आवश्यक है
संतोष का साधन दो प्रकार से होता है –
आत्मा के स्वरूप को समझकर आत्मा की पूर्णता में विस्वास करने से अथवा परम मंगलमय सर्वसुहृद भगवान् के विधान पर निर्भर करने से |दोनों का फल एक ही है |एक ज्ञानियों का मार्ग है,दूसरा भक्तों का |भगवान् ने गीता में भक्तों के लक्षण बतलाते हुए दो बार ‘संतुष्ट’ शब्द का प्रयोग करके भक्तों में संतोष की आवशयकता सिद्ध की है |'संतुष्ट: सततम’, ‘संतुष्टो येन केनचित |
( गीता - १२ /१४,१९ )
चतुर्थ अध्याय में भगवान् ने कहा है –
‘जो पुरुष भगवान् के विधान और प्रकृति के नियमानुसार बिना ही प्रयास प्राप्त वस्तु और स्थिति में संतुष्ट है, हर्ष शोकादि दवन्द्वों से अतीत है,किसी की वस्तु या स्थिति पर डाह नहीं करता तथा सफलता-असलता में समबुद्धि रहता है,वह कर्तव्य-कर्म करने पर भी कर्मबन्धन में नहीं बँधता,क्योंकि आसक्ति से रहित परमात्मा के ज्ञान में स्थित चित वाले मुक्त पुरुष के समस्त कर्म जो वह स्वाभाविक ही यथार्थ-लोक कल्याणार्थ करता है,परमात्मा में ही प्रवीलीन हो जाते हैं |’
( गीता ४/२२-२३ ) |
इससे यह सिद्ध होता है कि संतोष मनुष्य को कर्तव्य-कर्म त्याग के लिये बाध्य नहीं करता,बल्कि वह उसे अचल समत्व की शान्तिमयी भूमिका पर पहुँचाकर सदा के लिये सुखी बना देता है,और जो-जो उसके संपर्क में आते हैं, उसको भी सुखी बनाने की चेष्टा करता है |