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Bhagavad Gita Adhyay 1: युद्ध है एक तमस् कार्य, भगवद्गीता - ( अध्याय - 1/ श्लोक संख्या - 22)

Bhagavad Gita Chapter 1 Verse 22: कुरुक्षेत्र के रणक्षेत्र में दोनों सेनाएं युद्ध करने के लिए ही तो आई थीं। अर्जुन भी तो गांडीव धनुष को उठाकर अपने युद्ध करने की मानसिकता को प्रकट कर दिया था, तो फिर अर्जुन का श्रीकृष्ण को यह कहना कि मुझे किन के साथ लड़ना है ?

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Published on: 9 April 2023 4:45 PM GMT
Bhagavad Gita Adhyay 1: युद्ध है एक तमस् कार्य, भगवद्गीता - ( अध्याय - 1/ श्लोक संख्या - 22)
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Bhagavad Gita Chapter 1 Verse 22 (Pic: Social Media)

Bhagavad Gita Chapter 1 Verse 22

यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धकामानवस्थितान्।

कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे।।

अर्थ - जब तक कि मैं युद्धक्षेत्र में डटे हुई युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख लूं कि इस युद्धरूप उद्यम ( कर्म ) में मुझे किन - किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे (रथ को) खड़ा कीजिए। निहितार्थ - उपर्युक्त वचन अर्जुन का श्रीकृष्ण से है। दुर्योधन को तो पता था कि उसे किन के साथ युद्ध करना है ? जिन प्रमुख योद्धाओं के साथ भिड़ंत होना है, उन सभी का नाम दुर्योधन ने स्पष्ट रूप से बताया था। तो क्या अर्जुन को पता नहीं था कि उसे किन लोगों के साथ युद्ध करना है ?

कुरुक्षेत्र के रणक्षेत्र में दोनों सेनाएं युद्ध करने के लिए ही तो आई थीं। अर्जुन भी तो गांडीव धनुष को उठाकर अपने युद्ध करने की मानसिकता को प्रकट कर दिया था, तो फिर अर्जुन का श्रीकृष्ण को यह कहना कि मुझे किन के साथ लड़ना है ? उन्हें जब तक देख न लूं, रथ को तब तक वहीं खड़ा रखिए - कहां तक उचित है ?

इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। अर्जुन को तो कहना चाहिए था कि कृष्ण ! रथ को ऐसी जगह खड़ा करिए, जहां से मैं शत्रुओं को देख सकूं। पर, अर्जुन ऐसा नहीं कहता। अर्जुन निरीक्षण की बात करता है। जब कोई व्यक्ति युद्ध करने पर आमादा होता है, तो वह दुश्मन को नहीं देखता बल्कि उसे जो दिखता है, वही दुश्मन के रूप में दिखाई देता है। जब अपने भीतर युद्ध - भाव रहता है, तो बाहर शत्रु पैदा हो जाता है।

लेकिन जब अपने भीतर युद्ध - भाव नहीं रहता, तो जांच - पड़ताल करनी पड़ती है कि शत्रु के रूप में कौन लड़ने आ रहा है ? अर्जुन दूसरी स्थिति में है। दुर्योधन पहली स्थिति में है। जो निरीक्षण करता है, वह उन्मादियों की भांति युद्ध में नहीं लड़ सकता। हम तभी निरीक्षण कर सकते हैं, जब हम शांत हों। पूरा निरीक्षण तभी संभव हो पाता है, जब कोई साक्षी - भाव से भर जाए। अर्जुन साक्षी - भाव से परिपूर्ण होने के करीब है।

युद्ध तो एक तमस कार्य है। अंधेरे में जाने की हिम्मत तीन प्रकार के लोग सहज ढंग से करते हैं। पहला - वह, जो अंधा हो। जो अंधा होता है, उसे अंधकार और प्रकाश में कोई खास अंतर महसूस नहीं होता। दूसरा - वह, जो स्वयं के प्रकाश से प्रकाशित हो, जिसके पास आत्मिक - प्रकाश होता है। वह इतना ज्योतिर्मय होता है कि उसकी उपस्थिति ही अंधेरे को समाप्त कर देती है। तीसरा - जो दोनों से भिन्न होता है। वह भी अंधेरे में जाता है, लेकिन किसी दूसरे प्रकाशक को साथ लेकर जाता है। दूसरे के प्रकाश से अंधेरा मिटता है, तब वह अंधेरे में प्रवेश करता है।

अर्जुन स्व - प्रकाशक श्रीकृष्ण को साथ लेकर ही नहीं वरन् उन्हें आगे रखकर युद्ध क्षेत्र में उतरा है। इस प्रकार कुरुक्षेत्र के रणक्षेत्र में तीन प्रकार के पात्रों को देख रहे हैं।

पहला - दुर्योधन, दूसरा - अर्जुन तथा तीसरा - श्री कृष्ण। आप सभी भगवद्गीता के प्रथम अध्याय का अध्ययन कर रहे होंगें - ऐसा विश्वास है।

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