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Srimad Bhagavad Gita:जो भक्ति स्वतन्त्र है, उससे भगवान् शीघ्र द्रवित होते हैं
Srimad Bhagavad Gita: ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई
*( श्रीरामगीता,)*
*( पोस्ट संख्या - 3 अंतिम )*
*जो भक्ति स्वतन्त्र है, उससे भगवान् शीघ्र द्रवित होते हैं ।*
*उस भक्ति के लक्षण और फल –*
*धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना ।*
*ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना ।।*
*जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई ।*
*सो मम भगति भगत सुखदाई ।।*
*सो सुतंत्र अवलंब न आना ।*
*तेहि आधीन ग्यान बिग्याना ।।*
*भगति तात अनुपम सुख मूला ।*
मिलइ जो संत होइँ अनुकूला।।*
भगति कि साधन कहउँ बखानी ।*
सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी ।।*
प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती ।*
निज निज कर्म निरत श्रुति रीती ।।*
एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा।*
तब मम धर्म उपज अनुरागा ।।*
श्रवनादिक नव भक्ति दृढाहीं ।*
मम लीला रति अति मन माहीं ।।*
*संत चरन पंकज अति प्रेमा ।*
*मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा ।।*
*गुरु पितु मातु बंधु पति देवा ।*
*सब मोहि कहँ जानै दृढ़ सेवा ।।*
*मम गुण गावत पुलक सरीरा ।*
*गदगद गिरा नयन बह नीरा ।।*
*काम आदि मद दंभ न जाकें ।*
*तात निरंतर बस मैं ताकें ।।*
*बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम ।*
*तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम ।।*
*( श्रीरामचरित॰ अरण्य॰ १५/१-६, १६ )*
*धर्म [ के आचरण ] से वैराग्य और योग से ज्ञान होता है तथा ज्ञान मोक्ष का देने वाला है – ऐसा वेदों ने वर्णन किया है ।*
*और भाई ! जिससे मैं शीघ्र ही प्रसन्न होता हूँ, वह मेरी भक्ति है जो भक्तों को सुख देने वाली है ।*
*वह भक्ति स्वतन्त्र है, उसको [ ज्ञान-विज्ञान आदि किसी ] दुसरे साधन का सहारा ( अपेक्षा ) नहीं है ।*
*ज्ञान और विज्ञान तो उसके अधीन हैं ।*
*तात ! भक्ति अनुपम एवं सुख की मूल है; और वह तभी मिलती है जब संत अनुकूल ( प्रसन्न ) होते हैं ।*
*अब मैं भक्ति के साधन विस्तार से कहता हूँ – यह सुगम मार्ग है, जिससे जीव मुझको सहज ही पा जाते हैं ।*
पहले तो ब्राह्मणों के चरणों में अत्यन्त प्रीति हो और वेद की रीति के अनुसार अपने-अपने [ वर्णा श्रम के ] कर्मों में लगा रहे ।*
इसका फल, फिर विषयों से वैराग्य होगा ।तब ( वैराग्य होने पर ) मेरे धर्म ( भागवत धर्म ) में प्रेम उत्पन्न होगा ।
तब श्रवण आदि नौ प्रकार की भक्तियाँ दृढ़ होंगी और मन में मेरी लीलाओं के प्रति अत्यन्त प्रेम होगा ।
जिसका संतों के चरण कमलों में अत्यन्त प्रेम हो, मन, वचन और कर्म से भजन का दृढ़ नियम हो और जो मुझको ही गुरु, पिता, माता, भाई, पति और देवता सब कुछ जाने और सेवा में दृढ़ हो,*मेरा गुण गाते समय जिसका शरीर पुलकित हो जाय, वाणी गद्गद हो जाय और नेत्रों से [ प्रेमाश्रुओं का ] जल बहने लगे तथा काम, मद और दम्भ आदि जिसमें न हों, भाई ! मैं सदा उसके वश में रहता हूँ ।*जिनको कर्म, वचन और मन से मेरी ही गति है और जो निष्काम भाव से मेरा भजन करते हैं, उनके हृदय कमल में मैं सदा विश्राम किया करता हूँ ।