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Prabhu Shri Ram Ki Katha: प्रभु श्रीराम की लीलाएँ
Prabhu Shri Ram Ki Katha: एक बार जब वे दूध पीकर पलने में सोये थे, तब माता कौसल्या अपने इष्ट देव के भोग के लिये प्रसाद बनाने लगीं। भगवान् का पूजन कर जब वे नैवेद्य लेने पाकशाला में गयीं तो यह विचित्र दृश्य देखकर चकित रह गयीं।
Prabhu Shri Ram Ki Katha: अपने बाल्य काल में भगवान् ने एक और विचित्र लीला की। एक बार जब वे दूध पीकर पलने में सोये थे, तब माता कौसल्या अपने इष्ट देव के भोग के लिये प्रसाद बनाने लगीं। भगवान् का पूजन कर जब वे नैवेद्य लेने पाकशाला में गयीं तो यह विचित्र दृश्य देखकर चकित रह गयीं । उनहोंने देखा कि बालक राम वहाँ बैठकर प्रसाद-भक्षण कर रहे है। माँ को जैसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ और दौड़कर वे शयन-कक्ष में गयीं, जहाँ कुछ देर पहले राम को पालने में सुलाकर आयी थीं। वहाँ जाने पर उनका कौतूहल और अधिक बढ़ गया व देखा, बालक राम गहरी निद्रा में सोये हैं। पुनः पाकशाला में गयीं तो देखा राम मुसकराते हुए भोजन कर रहे हैं –
एक बार जननीं अन्हवाए ।
करी सिंगार पलनाँ पौढ़ाए ।।
निज कुल इष्टदेव भगवाना ।
पूजा हेतू कीन्ह अस्नाना ।।
करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा ।
आपु गई जहँ पाक बनावा ।।
बहुरि मातु तहवाँ चली आई ।
भोजन करत देख सुत जाई ।।
गै जननी सिसु पहिं भयभीता ।
देखा बाल तहाँ पुनि सूता ।।
बहुरि आइ देखा सुत सोई ।
हृदयँ कंप मन धीर न होई ।।
इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा ।
मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा ।।
( रा॰ च॰ मा॰ १/२०१/१-७ )
द्विधा-विभक्त अपने बालक राम की इस अलौकिक लीला को देखकर माँ समझ नहीं पा रही हैं कि एक ही बालक एक ही काल में दो स्थलों पर कैसे विराजमान है। माता कौसल्या के सुत-विषयक भ्रम का निवारण करने के लिये भगवान् ने एक और लीला की रचना कर दी –
देखरावा मातहि निज अद्भुत रूप अखंड ।
रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड ।।
( रा॰ च॰ मा॰ १/२०१ )
श्रीराम ने अपने मुखारविन्द में माता कौसल्या को अखिल ब्रह्माण्ड का दर्शन कराया। अगणित रबि, शशि, शिव, चतुरानन, सरिता-सिंधु और जंगलों को देखकर माँ चकित-सी रह गयीं। किंतु माँ को भयभीत देखकर भगवान् ने विराट् रूप का संवरण कर लिया तथा पुनः शिशु रूप में यथावत् हो गये। विस्मयवंत माता कौसल्या की बुद्धि में अब यह दृढ़ निश्चय हो गया कि जिसे मैं अज्ञानवश अपना पुत्र मान बैठी थी, वस्तुतः वह तो जगत् का पिता है –
बिसमयवंत देखि महतारी ।
भए बहुरि सिसुरूप खरारी ।।
अस्तुति करि न जाइ भय माना ।
जगत पिता मैं सुत करि जाना ।।
( रा॰ च॰ मा॰ १/२०२/६-७ )
इस लीला की गोपनीयता कहीं प्रकट न हो जाय, इसलिये भगवान् ने अन्त में माताजी से आग्रह किया कि इस लीला को आप कहीं भी किसी से कहें नहीं –
हरि जननी बहुबिधि समुझाई ।
यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई ।।