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Debts in Hinduism: सनातन संस्कृति के अनुसार मनुष्य पर पाँच प्रकार के ऋण
Debts in Hinduism:मनुष्य का शरीर माता-पिता के रज और वीर्य से बना है। माता के दूध और पिता द्वारा कमाए गए धन से उसका पालन-पोषण होता है। माता-पिता के धन से वह शिक्षा प्राप्त करता है।
Debts in Hinduism: सनातन संस्कृति के अनुसार मनुष्य पर पाँच प्रकार के ऋण होते हैं। जिनसे मुक्त (ऋण से मुक्त) होना, मनुष्य जीवन का प्रथम कर्तव्य माना गया है। इसके लिए "सनातन मनीषियों कुछ उपाय भी बताये हैं। यथा - शास्त्रों में प्रत्येक गृहस्थ मनुष्य पर इन पांचों का—पितृ ऋण, देव ऋण, ऋषि ऋण, भूत ऋण और मनुष्य (समाज) ऋण बताया गया हैं। देवता मनोवांछित भोग प्रदान करते हैं। ऋषि-मुनि विभिन्न शास्त्रों की रचना कर मनुष्य के अज्ञान को हटाकर सबको ज्ञानवान बनाते हैं। पितर अपने वंशजों को संतान प्रदान करते है, उनकी मंगलकामना व रक्षा करते हैं।मनुष्य अपने कर्मों से सभी का हित करते हैं। पशु-पक्षी व वृक्ष आदि दूसरों के सुख के लिए आत्मदान देते हैं।इन पांचों के सहयोग से ही सभी का जीवन सुचारु रूप से चलता है। इसी कारण शास्त्रों में प्रत्येक गृहस्थ मनुष्य पर इन पांचों का—पितृ ऋण, देव ऋण, ऋषि ऋण, भूत ऋण और मनुष्य ऋण बताया गया हैं।।"
पितृ ऋण
मनुष्य का शरीर माता-पिता के रज और वीर्य से बना है। माता के दूध और पिता द्वारा कमाए गए धन से उसका पालन-पोषण होता है। माता-पिता के धन से वह शिक्षा प्राप्त करता है। माता ही बच्चे की प्रथम पाठशाला होती है, वही बच्चे को संस्कार देती है। माता-पिता हरसंभव तरीके से बच्चे की रक्षा करते हुए उसे बड़ा करते हैं। इस तरह संतान पर माता- पिता / दादा- दादी और परदादा-परदादी का ऋण रहता है।इस पितृऋण से मुक्त होने के लिए गृहस्थ व्यक्ति को "कुशलता से माता पिता की भूमिका निभानी चाहिए" तथैव अपने पितरों के नाम से जीवन भर श्राद्ध व तर्पण करना चाहिए।
देव ऋण
मनुष्य जन्म लेते ही हम नि:शुल्क हवा, पानी, धूप आदि का सेवन करते हैं और शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाते हैं। सूर्य देव हमें नित्य उष्मा और प्रकाश प्रदान करते हैं। पवन देव मनुष्य के प्राणों का आधार वायु प्रदान करते हैं। वरुण देव जल प्रदान करते हैं। इंद्र देव मेघ बरसा कर अन्न उपजाते हैं। इन सबसे मनुष्य का जीवन चलता है। अत: यह मनुष्य पर देव ऋण होता है।देव ऋण से मुक्ति के लिए अपने इष्टदेव की उपासना और पंचदेवों (शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य और विष्णु) का पूजन तथा यज्ञ-हवन करना। यज्ञ-हवन में दी गई आहुतियों से देवताओं की पुष्टि होती है क्योंकि वे सूक्ष्म-शरीरी होने के कारण गंध से ही संतुष्ट हो जाते हैं और हम देव ऋण से मुक्त हो जाते हैं।
ऋषि ऋण
ऋषि-मुनि मंत्रदृष्ट्रा होते हैं। उन्होंने मनुष्य के कल्याण के लिए विभिन्न मंत्रों को बताया। शास्त्र-पुराणों, स्मृतियों की रचना की। जो मनुष्य के अज्ञानान्धकार को दूर कर उसको कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान कराते हैं। मनुष्य को सन्मार्ग पर ले जाते हैं।ऋषि ऋण से मुक्ति के लिए मनुष्य विभिन्न पुराणों, ग्रंथों, गीता, श्रीमद्भागवत, श्रीरामचरितमानस आदि का स्वाध्याय करे। यज्ञोपवीतधारी संध्या-गायत्री करें। भगवान के नाम जप व गायत्री मंत्र के जप करने से भी मनुष्य इस ऋण से मुक्त हो जाता है।
भूत ऋण
सामान्यत: प्रत्येक प्राणी अपने सुख-साधन के लिए अनेक भूत-जीवों को प्रतिदिन कष्ट-क्लेश देता है, जो हमारे जीवन के लिए आवश्यक भी हो सकती हैं । भगवान की बनाई चर-अचर सृष्टि जैसे गाय-भैंस, भेड़ बकरी, ऊंट-घोड़ा आदि मनुष्य के जीवन-निर्वाह में सहायता करते हैं। वृक्ष-लता आदि हमें फल-फूल, लकड़ी, औषधि आदि प्रदान करते हैं। अत: इनका भी मनुष्य पर ऋण है।भूत ऋण से उऋण होने के लिए मनुष्य को पशु-पक्षियों, कुत्ता, कौवा, चींटी, कीड़ों, कुष्ठी व रोगी को अन्न, जल आदि देना चाहिए। गो-ग्रास नित्य देना बहुत ही पुण्यप्रद है। वृक्ष-लता आदि को खाद व जल देना चाहिए। साथ ही नए-नए वृक्ष लगाने चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य में सभी भूत-प्राणियों के प्रति करुणा भाव उत्पन्न होगा जिससे मनुष्य सर्वोच्च पद (मोक्ष) को प्राप्त कर लेता है।
मनुष्य या समाज ऋण
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। हमारा जीवन-निर्वाह बिना दूसरों की सहायता के नहीं चल सकता है। हम दूसरों के बनाए रास्ते पर चलते हैं, दूसरों के द्वारा उपजाए गए खाद्य-पदार्थों का उपभोग करते हैं। दूसरों के द्वारा लगाए गए वृक्षों के फलों का सेवन करते हैं, आदि। यह हमारे पर दूसरे मनुष्यों या समाज का ऋण है।हमें इस मनुष्य या समाज के ऋण से मुक्ति के लिए मनुष्य को दूसरों (समाज) की सुख-सुविधाओं के लिए अन्नदान करना चाहिए। प्याऊ लगवाने चाहिए। यदि इतना न भी कर सकें तो किसी भूखे को भोजन व जल अवश्य देना चाहिए। रोगियों के लिए दवाई की व्यवस्था करना व गरीब बच्चों की शिक्षा आदि की जिम्मेदारी लेना मनुष्य ऋण से मुक्ति का बहुत ही उत्तम उपाय है।साथ ही घर से अतिथि को कभी भी भूखा-प्यासा नहीं भेजना चाहिए। क्योंकि अतिथि को देवता का रूप ही माना गया है। महाभारत में तो यहां तक कहा गया है कि जिस घर से अतिथि निराश व दु:खी होकर जाता है तो वह अपना पाप देकर मनुष्य का संचित पुण्य ले जाता है।
‘भूत यज्ञ’ और ‘मनुष्य यज्ञ’ करने से सभी प्राणियों के प्रति ‘वासुदेव: सर्वमिति’ का भाव आता है जिससे परमधाम की प्राति होती है।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।"
अर्थात्- जो सबमें मुझको देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।
ये पांचों ऋण केवल गृहस्थ मनुष्यों पर ही लागू होते हैं। श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि - 🚩‘जो सारे कार्यों को छोड़ कर सम्पूर्ण रूप से शरणागतवत्सल भगवान की शरण में आ जाता है, वह देव, ऋषि, प्राणी, कुटुम्बीजन और पितृ ऋण इनमें से किसी का भी ऋणी नहीं रहता है। अर्थात भगवान का भजन- स्मरण करने वाला व्यक्ति सभी ऋणों से मुक्त हो जाता है।।