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विजयदशमी पर विशेष: शौर्य और संकल्प का महापर्व
पूनम नेगी
यकीनन श्रीराम भारतीय जनमानस के उच्चतम आदर्श हैं। ऐसे लोकनायक, जिनके चरित्र व व्यवहार की मर्यादा का कोई सानी नहीं। भले ही वे अवतारी सत्ता हैं मगर जन्म से लेकर लोकलीला के संवरण तक उनके जीवन के प्रत्येक घटनाक्रम में मानवीय आदर्श की पराकाष्ठा प्रतिबिम्बित होती है। शायद यही वजह है सदियां बीत जाने के बाद भी भारतीय जनमानस में श्रीराम की स्वीकार्यता में रंचमात्र भी अंतर नहीं आया है। ऐसी आराध्य सत्ता जिनके चिरंतन गुण आज भी भारतीय समाज का पथ प्रदर्शन करते हैं, सत्पथ पर चलने की प्रेरणा देते हैं। विजयदशमी में विजय के साथ संयोजित दशम संख्या सांकेतिक रहस्य संजोए है। दशम का स्थान नवम के बाद है। जिसने नवरात्रियों में भगवती आदिशक्ति की उपासना की है, वही अपनी आत्मशक्ति के प्रभाव से दस इन्द्रियों का नियंत्रण करने में समर्थ होता है।
अहिंसा, क्षमा, सत्य, नम्रता, श्रद्धा, इन्द्रिय संयम, दान, यज्ञ, तप के रूप में धर्म के दस लक्षण उसकी आत्म चेतना में प्रकाशित होते हैं। श्रीराम के जीवन में शक्ति आराधन की यही पूर्णता विकसित हुई थी। इस धर्म साधन के ही प्रभाव से उनकी सभी दस नाडिय़ां - इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, गाँधारी, हस्तिजिह्व, पूषा, यशस्विनी, कुह्, अलंवुषा एवं शंखिनी पूर्ण जाग्रत् एवं ऊर्जस्विनी हुई थीं। तभी वह आतंक एवं अत्याचार के स्रोत दशकण्ठ रावण को मृत्युदण्ड देने में समर्थ हुए। ‘शुक्रनीति’ के अनुसार ‘दशहरा’ को दशविध पापों (हिंसा, चोरी, अवैध मैथुन, चुगलखोरी, कटुवचन, मिथ्या कथन, भेदवार्ता, अविनय, नास्तिकता तथा शास्त्र विरुद्ध आचरण) से मुक्त करने वाला माना गया है। श्रीराम की धर्म साधना में एक ओर तप की प्रखरता थी तो दूसरी ओर संवेदना की सजलता। इस पूर्णता का प्रभाव था कि जब उन्होंने धर्म युद्ध के लिए अपने पग बढ़ाये तो विजयदशमी धर्म विजय का महापर्व बन गयी।
इस पर्व से हमारी गौरवशाली भारतीय संस्कृति के दिव्य सांस्कृतिक मूल्य जुड़े हैं। अन्याय पर न्याय की विजय का यह पर्व युगों-युगों से सत्पथ पर चलने की प्रेरणा देता आ रहा है। ‘नर’ से ‘नारायण’ कैसे बना जा सकता है, इसका सर्वोतम शिक्षण श्रीराम के जीवन से मिलता है। विजयदशमी का खास आकर्षण है रामलीला और पुतला दहन। श्रीराम के जीवन चरित को आम जनमानस के मध्य लोकप्रिय बनाने के लिए लोकमंगल के अमर गायक गोस्वामी तुलसीदास ने 16वीं में लोकभाषा अवधी में स्वरचित रामकथा के मंचन की शुरुआत कर जिस तरह समाज में आदर्श जीवन मूल्यों की स्थापना की, उसका कोई सानी नहीं है। उस समय भारतीय इतिहास में हिन्दू जनमानस अनेक विघटनशील प्रक्रियाओं से गुजर रहा था। समाज में विभिन्न अंतर्विरोधी प्रवृत्तियां एवं विसंगतियां पनप रही थीं। उनकी इस कालजयी कृति ने दिग्भ्रमित व भयाक्रांत जनता के मन में मानवता का बीजारोपण किया तथा उनको भारतीय संस्कृति की रक्षा तथा धर्म को विश्वास की भूमि पर खड़ा करने का युग बोध दिया।
आज समूचे देश में श्रीराम की लीला का मंचन जिस धूमधाम से किया जाता है, उससे साबित होता है कि श्रीराम के आदर्शों के जनस्वीकार्यता आज भी कम नहीं है। रामायण भगवान राम के आदर्श चरित्र की पावन कथा है जो युगों से एक प्रचण्ड प्रेरक शक्ति के रूप में भारतीय संस्कृति को आदर्शोन्मुख दिशा की ओर प्रवृत्त किए हुए है। आदि कवि महर्षि वाल्मीकि ने देवभाषा में इसका संकलन किया एवं गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के रूप में इस कथा को जन-जन के बीच लोकप्रिय बनाया। कम्बन रामायण के रूप में इसने दक्षिण भारत में लोकप्रियता पायी। नाना भाषाओं में इस पावन कथा के भाषान्तरण के साथ भारतवर्ष में इतनी लोकप्रिय हुई है कि ‘घर-घर में बसे हैं राम’ की उक्ति चरितार्थ होती है।
हम लोग सदियों से प्रतिवर्ष विजयादशमी के दिन रावण, मेघनाद व कुंभकर्ण के बड़े-बड़े पुतले बनाकर उनका दहन कर बुराई पर अच्छाई की जीत का सूत्रवाक्य दोहराते हैं। किन्तु समाज की स्थितियां देख नहीं लगता कि बुराई हारी है और अच्छाई जीती है। अत्याचार, अनाचार, दुराचार व भ्रष्टाचार का रावण हमारे चहुंओर तांडव कर रहा है। यह हमारे वर्तमान सामाजिक जीवन की विडम्बनाग्रस्त सच्चाई है। आज हम अपने ऋषि-मनीषियों द्वारा बतायी गयी पर्वों की प्रेरणाओं को पूरी तरह भुला बैठे हैं। पर्वों में निहित आत्मिक संवेदना हमारी जड़ता के कुटिल व्यूह में फंसकर मुरझा गयी है।
समझना होगा कि विजयादशमी इसी साहस और संकल्प का महापर्व है। जीवन की शक्तियों को जाग्रत करने और उन्हें सही दिशा में नियोजित करने की महान प्रेरणाएं इसमें समायी हैं। विजयादशमी के साथ जितनी भी पुराकथाएं व लोक परम्पराएं जुड़ी हुई हैं, सबका सार यही है। इस पर्व से जुड़ा सबसे लोकप्रिय संदर्भ मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के जीवन का है। राम कथा विभिन्न भाषाओं के विभिन्न महाकाव्यों में अनेक तरह से कही गयी है। कुछ पौराणिक कथानकों के मुताबिक लोकनायक श्री राम ने महर्षियों के आश्रम में ‘निसिचर हीन करौं महि’ का वज्र संकल्प आश्विन शुक्ल दशमी को ही लिया था और कुछ वर्षों बाद विभिन्न घटनाक्रमों के उपरांत वह यही तिथि विजयादशमी बन गयी जब श्रीराम का वह संकल्प पूर्ण हुआ। यही नहीं, भगवती महिषमर्दिनी ने भी इसी पुण्यतिथि को महिषासुर के आसुरी दर्प का दलन कर देवशक्तियों का त्राण किया था। विजयादशमी माता आदिशक्ति की उसी विजय की यशोगाथा है।
हो सकता है कि जिन्हें केवल पुराग्रन्थों के ऐतिहासिक आंकड़ों के आंकलन में रुचि हो उन्हें लोक काव्यों के ये प्रसंग महज गल्प प्रतीत हों लेकिन जिन भावनाशीलों को जीवन के भाव-सत्य से प्रेम है, वे इन प्रसंगों से प्रेरणा लेकर अपनी भक्ति एवं शक्ति की अभिवृद्धि की बात जरूर सोचते हैं। विजयादशमी शक्ति के उपासक क्षत्रिय समाज का प्रतिनिधि पर्व है। प्राचीनकाल में इस पर्व को बड़ी ही धूमधाम से मनाने का प्रचलन था। देश का मध्ययुगीन इतिहास भी इसके छुट-पुट प्रमाण देता है।
विडम्बना है कि हमारा साहस और संकल्प आज दिशा से भटक चुका है। हम साहसी तो हैं, पर नवनिर्माण के लिए नहीं, बल्कि तोड़-फोड़ के लिए, हम अपने संकल्पों की शक्ति निज की अहंता के उन्माद को फैलाने और साम्प्रदायिक दुर्भाव को बढ़ाने में लगाते हैं, देश की समरसता एवं सौहार्द में विष घोलने का काम करते हैं; जबकि होना यह चाहिए कि हमारे साहस और संकल्प की ऊर्जा आतंकवादी बर्बरता के गढ़ को विध्वंस करने में नियोजित हो और हमारा वज्र संकल्प उन्हें खण्ड-खण्ड करने में अपनी प्रतिबद्धता दिखाए जो हमारे गौरवशाली देश की अखण्डता को नष्ट करने में तुले हैं। आइए मिलकर भूल सुधारें और इस विजयादशमी हम सब मिलकर एक साहस भरा संकल्प लें अपनी निज की और समाज की दुष्प्रवृत्तियों को मिटाने का, अनीति और कुरीति के विरुद्ध संघर्ष करने का, आतंक और अलगाव के विरुद्ध जूझने का।
(लेखिका साहित्यकार हैं)