TRENDING TAGS :
पदार्थ विज्ञान के पुरोधा
punam negi
शिल्पशास्त्र व मयमत ये दो ग्रन्थ आर्यावर्त के पुरातन तकनीकी ज्ञान व विज्ञान के अद्वितीय ग्रन्थ माने जाते हैं। इन ग्रन्थों में विश्वकर्मा जी के शिल्प कौशल व अविष्कारों का सविस्तार वर्णन किया गया है। इन ग्रन्थों में इन्हें पदार्थ विज्ञान के आदि पुरोधा रूप में चित्रित किया गया है। इन ग्रन्थों में वर्णित उल्लेख बताते हैं कि पदार्थ विज्ञान के ये आदि शिल्पी उच्चस्तरीय ज्ञान सम्पन्न विभूति थे। यंत्र विद्या के साथ साथ उतने ही कुशल आर्कीटेक्ट भी। उल्लेख बताते हैं कि ये जल, विद्युत, प्रकाश व परमाणु ऊर्जा के साथ साथ वनस्पति व पर्यावरण विज्ञान के भी अनूठे विशेषज्ञ थे। इन्होंने ऐसे-ऐसे यंत्र उपकरणों का निर्माण किया था जिन्हें किसी चमत्कार से कम नहीं कहा जा सकता।
उदाहरण के तौर पर पुष्पक विमान को लिया जा सकता है। इस अद्भुत विमान के कई किस्से पौराणिक विवरणों में विख्यात हैं। कहा जाता है कि यह विमान आवश्यकतानुसार अपना आकार घटा-बढ़ा सकता था। जरूरत पडऩे पर एक या दो लोगों के बैठने जितना छोटा आकार ले लेता था और उसी तरह आवश्यकता होने पर इतना बड़ा आकार ले सकता था कि पूरा नगर उसमें समा सके। कहा जाता है कि ब्रह्मा जी के कहने पर विश्वकर्मा ने इसकी रचना कुबेर के लिए की थी। कुबेर उस युग के सबसे बड़े धनिक व गंधर्वों के राजा थे। उनकी राजधानी अलकनंदा के उद्गमस्थल पर अलकापुरी में थी। कहते हैं कि रावण की दृष्टि जब कुबेर के इस अनूठे आकाशचारी यंत्र पर पड़ी तो उसने आक्रमण कर कुबेर से उसको छीन लिया। रावण के पतन के बाद विभीषण ने उसको भगवान श्रीराम को सौंप दिया। लंका युद्ध के उपरान्त श्रीराम अपनी समूची वानर सेना के साथ इसी पुष्पक विमान से लंका से अयोध्या आये थे। मगर अयोध्या लौटने के उपरान्त श्रीराम ने उसे पुन: कुबेर को लौटा दिया।
इस खबर को भी देखें: इस दिन करें मां लक्ष्मी की आराधना, पूरी होगी धन संबंधी कामना
प्राचीनकाल में हमारा ज्ञान-विज्ञान कितना समृद्ध था, इसका अनुमान तब के सुविकसित यंत्र-उपकरणों व अद्भुत वास्तु निर्माणों की जानकारियों को पढक़र सहज ही लगाया जा सकता है। अधुनातन विज्ञान पुरातन ज्ञान की बुनियाद पर खड़ा है। भग्नावशेषों से प्राचीन वास्तुविज्ञान की भव्यता व उत्कृष्टता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। आर्ष ग्रन्थों के उल्लेख बताते हैं कि प्राचीनकाल में विश्वकर्मा नाम के एक मूर्धन्य वास्तुविद थे जिन्हें चिरपुरातन वास्तुशास्त्र का प्रथम उपदेष्टा व प्रर्वतक आचार्य माना जाता था। ऋग्वेद इन्हें अत्यन्त निपुण, मेधा सम्पन्न व कुशल शिल्पकार के रूप में वर्णित किया गया है जो लोकमंगल की दृष्टि से सदैव वास्तु विद्या के अनुसंधानों में निरत रहते थे। ऋग्वेद के दशम मंडल के ८१वें व ८२वें सूक्त में देवशिल्पी के रूप में विश्वकर्मा की जी विस्तार से अभ्यर्थना की गयी है। इन सूक्तों में इन्हें दिव्य अस्त्र-शस्त्रों के निर्माता के साथ वास्तुकला, चित्रकला व अन्यान्य विविध कला उपकरणों के प्रर्वतक के रूप में चित्रित किया गया है।
आर्ष वांड्मय में विश्वकर्मा जी द्वारा निर्मित ऐसे अनेक अस्त्र-आयुधों का उल्लेख मिलता है जो आज के विकसित वैज्ञानिक युग के वैज्ञानिकों के लिए भी किसी अजूबे से कम नहीं हैं। यूं सामान्य दृष्टि से यह बात किसी लेखन की काल्पनिक उड़ान सी प्रतीत हो सकती है, किन्तु यदि दृष्टिकोण को व्यापक करके विचार जाए तो इन्हें नकारने की कोई मजबूत वजह नहीं मिलती। अब यदि हम ज्यादा नहीं, सिर्फ सौ-डेढ़ सौ साल पुरानी बात करें और सोचें कि यदि उस जमाने के लोग आज के वैज्ञानिक उपकरणों को देखते तो क्या वर्तमान की वैज्ञानिक प्रगति को देख दांतों तले उंगली दबाये बिना रह सकते?
विशेषज्ञों की मानें तो संभव है कि पुष्पक विमान सौर ऊर्जा व वनस्पति चेतना से चालित कोई विमान रहा होगा। शोध कर्मियों का कहना है कि विश्वकर्मा जी निसंदेह इस विधा में पारंगत रहे होंगे। पुप्पक विमान व उस जैसे अन्यान्य उपकरण इस मूर्धन्य वैज्ञानिक के कुशल तकनीकी कौशल का उत्कृष्ट प्रमाण कहे जा सकते हैं। पुरा साहित्य में विश्वकर्मा जी द्वारा निर्मित ऐसे अनेक रथों का भी विवरण मिलता है जो वायुवेग से चलकर लक्ष्यभेद कर सकने में सक्षम थे। इनमें प्रमुख था अर्जुन का नन्दी घोष रथ। विभिन्न प्रकार के उपकरणों से सुसज्जित इस रथ में कपिध्वज नामक एक एंटिनानुमा यंत्र भी लगा था जो आसपास से महत्वपूर्ण सूचनाएं एकत्र करने में सक्षम था। इसी तरह अर्जुन का अक्षय तुणीर व द्रौपदी का अक्षयपात्र भी विश्वकर्मा जी के चमत्कारी निर्माण कहे जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि प्राचीन काल में जितने भी प्रसिद्ध शहर, नगर और राजधानियां थीं, मुख्यतया विश्वकर्मा जी की ही बनायी हुई थी। पुराणों में इसका व्यापक विवरण मिलता है। उन्होंने कई विलक्षण नगरियों का निर्माण किया था। श्रीकृष्ण की द्वारिका, इन्द्र की अमरावती, यमपुरी, वरुणपुरी, कुबेरपुरी, रावण की लंका, पांडवों का इन्द्रप्रस्थ, सुदामापुरी आदि सुंदरतम व विलक्षण नगरियों का निर्माण इन्हीं महान शिल्पकार को जाता है। इन्हीं के विलक्षण वास्तुकौशल के बल पर ही इन सुंदर नगरियों का अस्तित्व दुनिया के समक्ष आ सका। उड़ीसा में स्थित भगवान जगन्नाथ मंदिर की निर्माण कथा भी विश्वकर्मा जी का गुणगान करती है।
‘मयशिल्पम’ नामक ग्रन्थ में उनकी भवन निर्माण शैली की विषद वर्णन मिलता है। इंका सभ्यता के नाम से जानी जाने वाली मय सभ्यता के अवशेष दक्षिण अमेरिका में पेरू से इक्वाडोर तक फैले हुए थे। इन निर्माणों में सौ-सौ टन के शिलाखंड प्रयुक्त हुए थे। और तो और इन शिलाखंडों के बीच में किसी सीमेंट जैसी वस्तु के प्रयोग के कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। ये अवशेष इस बात के साक्षी हैं कि शिल्पकार की वास्तुविज्ञान संबंधी जानकारी कितनी उच्चकोटि की थी। राजा भोज कृत ‘समारांगण सूत्रधार’ में विश्वकर्मा जी के पुत्र द्वारा खगोल, मृदा व शिल्पशास्त्र से संबंधित ६० प्रश्नों व उनके उत्तरों का विस्तार से उल्लेख मिलता है। विश्व के प्रथम तकनीकी ग्रन्थों का सृजेता भी विश्वकर्मा जी को माना गया है। इन ग्रन्थों में न केवल भवन वास्तु विद्या, रथादि वाहनों के निर्माण बल्कि व रत्नों के प्रभाव व उपयोग आदि का भी विवरण है। देव शिल्पी के ‘विश्वकर्मा प्रकाश’ को वास्तु तंत्र का अपूर्व ग्रन्थ माना जाता है। उक्त ग्रन्थ में इसकी अनुपम वास्तु विद्या को गणतीय सूत्रों के आधार पर प्रमाणित किया गया है।
कहा जाता है कि विश्वकर्मा जी के बताये वास्तुशास्त्र के नियमों का अनुपालन कर बनवाये गये मकान, दुकान शुभ फल देने वाले माने जाते हैं। ऐसा करने से उनमें कोई वास्तु दोष नहीं रहता और ऐसे भवनों में रहने वाले सदैव सुखी व सम्पन्न रहते हैं और ऐसी दुकानों में कारोबार भी अच्छा फलता-फूलता है। इसी कारण देशभर में प्रति वर्ष भगवान विश्वकर्मा की जयंती पर धूमधाम से उनकी पूजा-अर्चना की जाती है। इस मौके पर विश्वकर्मा समाज के लोग उनकी शोभायात्रा भी निकालते हैं।
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं)
Next Story