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Ramcharit Manas: तुम मन, चित्त और बुद्धि लगाकर सुनो
Ramcharit Manas: मैं और मेरा; तू और तेरा – यही माया है, जिसने समस्त जीवों को वश में कर रखा है ।इन्द्रियों के विषयों को और जहाँ तक मन जाता है, भाई ! उस सबको माया जानना । उसके भी
थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई ।
सुनहु तात मति मन चित लाई ।।
मैं अरु मोर तोर तैं माया ।
जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया ।।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई ।
सो सब माया जानेहु भाई ।।
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ ।
विद्या अपर अविद्या दोऊ ।।
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा ।
जा बस जीव परा भवकूपा ।।
एक रचइ जग गुन बस जाकें ।
प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें ।।
( श्रीरामचरित॰ अरण्य॰ १३/३-४,१४ )
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं ।
देख ब्रह्म समान सब माहीं ।।
कहिअ तात सो परम बिरागी ।
तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी ।।
( श्रीरामचरित॰ अरण्य॰ १४/१-४ )
[ श्रीरामजी ने कहा - ] ‘तात ! मैं थोड़े में ही सब समझाकर कह देता हूँ ।
तुम मन, चित्त और बुद्धि लगाकर सुनो ।
मैं और मेरा; तू और तेरा – यही माया है, जिसने समस्त जीवों को वश में कर रखा है ।
इन्द्रियों के विषयों को और जहाँ तक मन जाता है, भाई ! उस सबको माया जानना । उसके भी –
एक विद्या और दूसरी अविद्या, इन दोनों भेदों को तुम सुनो –
एक ( अविद्या ) दुष्ट ( दोषयुक्त ) है और अत्यन्त दुःखरूप है, जिसके वश होकर जीव संसार रूपी कुएँ में पड़ा हुआ है ।और एक ( विद्या ) जिसके वश में गुण है और जो जगत् की रचना करती है, वह प्रभू से ही प्रेरित होती है, उसके अपना बल कुछ भी नहीं है ।ज्ञान वह है जहाँ ( जिसमें ) मान आदि एक भी ( दोष ) नहीं है और जो सब में समान रूप से ब्रह्म को देखता है ।तात !उसी को परम वैराग्यवान् कहना चाहिये जो सारी सिद्धियों को और तीनों गुणों को तिनके के समान त्याग चुका है ।
[ जिसमें मान, दम्भ, हिंसा, क्षमाराहित्य, टेढापन, आचार्य सेवा का अभाव, अपवित्रता, अस्थिरता, मन का निगृहीत न होना, इन्द्रियों के विषय में आसक्ति, अहंकार, जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधिमय जगत् में सुख-बुद्धि, स्त्री-पुत्र-घर आदि में आसक्ति तथा ममता, इष्ट और अनिष्ट की प्राप्ति में हर्ष-शोक, भक्ति का अभाव, एकान्त में मन न लगना, विषयी मनुष्यों के संग में प्रेम –ये अठारह न हों और नित्य अध्यात्म ( आत्मा ) में स्थिति तथा तत्त्व ज्ञान के अर्थ ( तत्त्व ज्ञान के द्वारा जानने योग्य ) परमात्मा का नित्य दर्शन हो, वही ज्ञान कहलाता है ।[ देखिये गीता अ॰१३/७ से ११ ]माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव ।बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव ।।
( श्रीरामचरित॰ अरण्य॰ १५ )
जो माया को, ईश्वर को और अपने स्वरूप को नहीं जानता, उसे जीव कहना चाहिये ।
जो ( कर्मानुसार ) बन्धन और मोक्ष देने वाला, सबसे परे और माया का प्रेरक है वह ईश्वर है।