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बाबा रे बाबा.....
संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना।
निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर दुःख द्रवहिं संत सुपनीता।।
29, अगस्त- भक्ति के दौरान संत कवि तुलसीदास जी ने संतों की गुण-विशेषण को निरूपित करते हुए यह चौपाई लिखी थी। लेकिन आज जब हम अपने संत महंत की कुर्सियों पर विराजमान लोगों पर नज़र दौड़ाते हैं तो तुलसीदास की चौपाई की तासीर इनमें से ज्यादातर में नहीं मिलती है। जिस भी बाबा के बारे में सरकार ने पड़ताल शुरु की तो ऐसे-ऐसे तथ्य हाथ लगे जो धर्म और संप्रदाय को लेकर तो कई सवाल खड़े करते ही हैं इन बाबाओं के अनुयायियों पर भी प्रश्न उठते हैं कि ये कहीं सचमुच जैविक कचरा तो नहीं हो गये हैं। क्योंकि इनमें से अधिकांश जिन बाबाओं के चरण चूमते हैं उनके कृत्य ऐसे हैं कि उन बाबाओं को आप अपने घर में चरण रखने भी नहीं देंगे।
बाबाओं के आश्रम पांचसितारा ऐशगाह हैं। धर्म उनके लिए महज उत्पाद है। एक ऐसा उत्पाद जिसका बाजार और बाजार में उसका मुनाफे में हर दिन के साथ इजाफा होता जाता है। इसमें कभी मंदी नहीं आती। इन दिनों बाबा बने गुरमीत राम-रहीम पुलिस के लिए, अदालत के लिए, सरकार के लिए, सभ्यता के लिए संस्कृति के लिए और सबसे बड़े धर्म के लिए परेशानी का सबब बन गये हैं। सीबीआई कोर्ट से 10 साल की सजा पाए दष्कर्मी होने के बाद भी बाबा के चेलों ने 36 लोगों को मौत के घाट उतार दिया। इनमें कई मौतें चेलों की भी हुई।
15 साल पहले एक अनाम सी चिट्ठी तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के यहां डाक से पहुंचती है जिसमें दो लड़कियां इस बाबा बने राम-रहीम द्वारा यौन शोषण का आरोप लगाती हैं। चिट्ठी हमारी प्रशासनिक और संवैधानिक व्यवस्था के तहत अपनी गति से बढ़ती रहती है। इस मामले की पड़ताल सीबीआई को दी जाती है। सीबीआई बाबा को दोषी पाती है। हालांकि साक्ष्य मिटाने के चक्कर में वकालत छोड़कर पत्रकारिता शुरु करने वाले पूरा सच नाम के अखबार के पत्रकार रामचंद्र छत्रपति की हत्या तक करा दी। बाबा पर 400 साधुओं को नपुंसक बनाने के आरोप लगा। 166 साधुओं का नाम सहित विवरण भी दिया गया था।
बाबा के काले कारनामों की फेहरिस्त इतनी लंबी है कि पूरे बदन में कालिख पोती जाय तो कम होगी। फिर भी एक्टिंग, डायरेक्शन, म्यूजिक, डांस, एक्शन सरीखी एक फिल्म में 42 काम करने वाले बाबा भूमिका के लिहाज से किसी भी अभिनेता को पीछे छोड़ चुके हैं। नेता सबसे बड़ा अभिनेता होता है , सबसे अधिक उसके रोल होते हैं। पर बाबा ने यह साबित कर दिखाया कि राम-रहीम सबसे बड़ा अभिनेता है। तीन घंटे में उसके 42 रोल हैं। यह बताता है कि मुखौटे लगाना और उतारना भूमिकाएं बदल लेना इस बाबा का शगल है।
जेल जाने के लिए वीआईपी के अटैचियों में अपने लिए माल अस्बाब ले जाने, एक बड़े पुलिस अफसर का उनकी अटैची ढोना, बाबा के सामने हर राजनैतिक दल के नेताओं का नतमस्तक होना, उनका रसूख बताता है। पर यह रसूख इतना भी नहीं था कि उन्हें एक दशक तक सीकचों के पीछे जाने से रोक सके। ऐसा नहीं है कि राम-रहीम जो कर रहे थे वो सिर्फ उनका है। यौन शोषण के आरोप में बंद आसाराम सोमवार को चेकअप के लिए जब हास्पिटल में लाए गये तो 80 साल का यह बाबा आसाराम बुढापे और कमजोरी की वजह से खड़ा नहीं हो पा रहा था। लेकिन उसने नाश्ता लेकर आई नर्स से कहा- , “तुम खुद मक्खन जैसी हो, ब्रेड के साथ बटर क्यों लाई हो, तुम्हारे गाल सेब-टमाटर जैसे लाल हैं।” आसाराम ने भी कई हत्याएँ कराईं, कई गवाह मरवाए हैं पर फंस ही गये।
सतलोक आश्रम के रामपाल हों, इच्छाधारी भीमानंद हो, रामव़ृक्ष यादव हों, स्वामी नित्यानंद हो, आशुतोष महाराज हों, बालक ब्रह्मचारी हों, चंद्रस्वामी हो, आनंदमूर्ति हों किसी के आसपास अगर खोजबीन कीजिए तो सेक्स, नशा, लोगों को मूर्ख बनाना, पांच सितारा जीवन जीना और धर्म की आड़ में जिंदगी के सब लुत्फ लूट लेने के अनंत प्रमाण मिलते हैं। देश में कोई भी ऐसा बाबा नहीं है जिसका आर्थिक साम्राज्य लोकाकर्षण का सबब न हो। अब तो बाबाओं ने बाजार में अपने उत्पाद उतार दिए हैं।
धर्म में पसरी ऐसी निंदनीय बातें किसी एक धर्म की मोहताज नहीं हैं। सरकार को इमामों के कारनामों के चलते कई जगह उनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करनी पड़ी। ऐसे तमाम इमाम पुलिसिया तलाश की सूची में भी हैं। हालाला के मामले में एक मीडिया समूह ने स्टिंग आपरेशन किया तो कई मुल्ला मौलवी धर्म की ऐसी ही दुकान चलाते मिले जैसी राम-रहीम, आसाराम सरीखे नामधारी बाबा। सत्य परेशान होता है, पराजित नहीं। धर्म और समाज के इस संदेश को पता नहीं क्यों आसाराम, राम-रहीम सरीखे नामधारी बाबा उपदेश देते समय तो याद रखते हैं पर याद करते समय अपने लिए भूल जाते हैं। बाबाओं को उनके कारनामों की सज़ा जीवन के कालखंड में कभी न कभी मिल ही जाती है पर सत्यमेव जयते और तुलसी दास की लाइनों पर यकीन करने वालों को बाबाओं चेलों, चंपुओं और समर्थकों की दुर्गति के बारे में नहीं पता चलता है। हालांकि जो लोग ऐसे निकृष्ट कर्म वालों के चरण वंदन मे जुटे हों उनके कर्म कमोबेश इसी तरह होंगे क्योंकि इनसे जुड़ने वाले लोग श्रद्धा से नहीं विश्वास से जुड़ते हैं। यदि तर्क और प्रमाण के माध्यम के बिना विश्वास हो तो वह अज्ञानता की स्थिति में ले जाता है।
किसी का अऩुयायी बनना दो ही स्थति में हो सकता। पहला विश्वास से , दूसरा श्रद्धा से। श्रद्धा से जो जुड़ाव होता है वह बिना जाने नहीं हो सकता है। श्रद्धा तर्क मानती है, प्रमाण मानती है जबकि विश्वास को इन दोनों में से किसी की जरुरत नहीं है। वह अपने छोटे-छोटे लाभ के लिए किसी के कुछ भी कहे पर यकीन कर लेता है। धर्म मे अंग्रेजी में शब्द है- रिलीजन। इसका मतलब है हिस्सों को संयुक्त करना। ताकि कुछ भी खंड-खंड न रह जाय बल्कि पूर्ण हो जाय। लेकिन धर्म का लबादा ओढ़े यह नामधारी बाबा, संत-महंत, मुल्ला-मौलवी इसके ठीक उलट काम करते हैं। ये धर्म को एकता का विज्ञान नहीं बनने देते। धर्म विज्ञान नहीं बनने देते। क्योंकि धर्म का आधार फेथ पर नहीं नालेज पर होता है। धर्म के सिद्धांत किसी न किसी ज्ञान से निकलते है विश्वास से नहीं। धर्म परमविज्ञान है। वह अज्ञानता नहीं सिखाता। लेकिन ये नामधारी बाबा न तो विज्ञान जानते हैं, न कला। वे जो कलाएं जानते भी हैं वे इतनी निंदनीय और घृणित है कि अगर कोई छोटे-छोटे स्वार्थ बड़े बड़े समझौते करने वाला न हो तो खुद को इनका शिष्य अनुयायी बताने से परहेज करेगा।
अगर यह कहा जाय कि ये बाबा धर्म नहीं संप्रदाय बनाते और चलाते हैं तो भी जानना होगा कि संप्रदाय का अर्थ होता है वह मार्ग जिससे कहीं पहुंचा जा सकता है। यानि संप्रदाय मंजिल तक पहुंचने का पथ होता है। अज्ञानी का संप्रदाय कारागृह हो जाता है। ज्ञानी भी संप्रदाय बनाते हैं पर ज्ञानी का संप्रदाय मुक्ति का मार्ग होता है। किसी की गति उसका संप्रदाय तय करता है। इन नामधारी बाबाओं को तो तबीयत से पत्थर उछालने लोग उनके मुकाम तक पहुंचा दे रहे हैं। कारागार तक वह पहुंच जा रहे हैं लेकिन अब इनके पीछे खड़े होकर जान देने वालों पर भी नज़र रखनी होगी।
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