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Bihar Political Crisis: 22 साल पुराना है नीतीश-भाजपा का साथ, रिश्तों में कई बार आ चुकी है कड़वाहट
Bihar Political Crisis: बीजेपी के साथ जारी तनातनी के बीच एक बार फिर अपने पुराने सहयोगी के साथ जाने का निर्णय ले लिया है। ये दूसरा मौका है जब जदयू बीजेपी से अलग हो चुकी है।
Bihar Political Crisis: महाराष्ट्र में सत्ता परिवर्तन और झारखंड में परिवर्तन की कोशिश की खबरें अभी मीडिया से हटी भी नहीं थी कि हिंदी पट्टी के एक बड़े राज्य में जबरदस्त सियासी सरगर्मी बढ़ गई। पीएम मोदी के सत्ता में आने के बाद से आमतौर पर राज्यों में बनी – बनाई सरकारें बिगड़ी हैं लेकिन बिहार में उन्हीं के साथ खेला हो गया। बीते कई दिनों से बिहार की राजनीति में चल रही अंदरूनी उठापटक भविष्य में किसी बड़े सियासी तूफान की तस्दीक दे रही थी।
सियासी पंडित मानते थे कि आज न कल बीजेपी जरूर अपनी सहयोगी जदयू को निगल जाएगी। जैसा कि उसने अन्य राज्यों में किया। यूपी चुनाव के बाद तो ये संभावना और प्रबल हो गई। लेकिन बीते 17 सालों से बिहार की राजनीति की धूरी बने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को आंकने में बीजेपी विफल रही। बीजेपी के साथ जारी तनातनी के बीच एक बार फिर अपने पुराने सहयोगी के साथ जाने का निर्णय ले लिया है। ये दूसरा मौका है जब जदयू बीजेपी से अलग हो चुकी है। तो आइए एक नजर नीतीश – बीजेपी के 22 साल पुरान रिश्ते पर डालते हैं –
बीजेपी के सहयोग से पहली बार बने सीएम
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बीजेपी के अकाली दल और शिवसेना की तरह सबसे पुराने सहयोगियों में से एक थे। ये अलग बात है कि मोदी – शाह की बीजेपी के साथ आज इनमें से कोई नहीं है। सीएम नीतीश को पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी का हमेशा से स्नेह प्राप्त रहा है। साल 2000 में अविभाजित बिहार के विधानसभा चुनाव में बीजेपी की सीटों की संख्या नीतीश की पार्टी से अधिक थी लेकिन फिर भी वाजपेयी के कहने के कारण उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया था। हालांकि, बहुमत न होने के कारण उन्हें सात दिन में ही पद छोड़ना पड़ा। इसके बाद साल 2005 के विधानसभा चुनाव में भी पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस और पूर्व केंद्रीय मंत्री दिग्विजय सिंह जैसे सीनियर जेडीयू लीडर नहीं चाहते थे कि नीतीश कुमार को एनडीए का मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाया जाए। लेकिन एक बार फिर यहां अटल बिहारी वाजपेयी ने वीटो करते हुए एक जनसभा में नीतीश कुमार का नाम बतौर सीएम कैंडिडेट ऐलान कर दिया।
बीजेपी के साथ रिश्तों में आई पहली कड़वाहट
पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी की मदद से बिहार की सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे नीतीश कुमार जैसे – जैसे मजबूत होते गए, उन्होंने पार्टी में अपने प्रतिद्वंदियों का सफाया करना शुरू कर दिया। केंद्र की सत्ता से बेदखल होने के बाद बीजेपी की भी हालत खराब हो गई थी। ऐसे में बिहार भाजपा से जुड़े फैसलों में भी नीतीश कुमार की दखलअंदाजी काफी थी। कहा तो यहां तक जाता है बीजेपी कोटे से मंत्री और प्रदेश अध्यक्ष तक की नियुक्ति में नीतीश कुमार की राय मायने रखती थी। बिहार में सुशील मोदी और केंद्र में अरूण जेटली से बेहतर संबंध के कारण उन्हें सरकार चलाने में पूरा फ्री हैंड मिला हुआ था। लेकिन बीजेपी में नरेंद्र मोदी के उभार के बाद से चीजें लड़खड़ाने लगी।
साल 2010 में इसका पहला ट्रेलर भी दिखा, जब विधानसभा चुनाव से ऐन पहले बिहार के अखबारों में नीतीश – मोदी की साथ वाली तस्वीर छपी। ये तस्वीर 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान लुधियाना में एनडीए की एक रैली की थी। मोदी उस दौरान गुजरात के सीएम हुआ करते थे। उन्होंने बिहार में आई कोसी की प्रलयकारी बाढ़ के लिए 5 करोड़ की सहायता भी भेजी थी। सीएम नीतीश इस तस्वीर से इतने नाराज हुए कि उन्होंने बीजेपी के केंद्रीय नेताओं के लिए आयोजित भोज को रद्द कर दिया। दरअसल उस दौरान पटना में बीजेपी कार्यकारिणी की बैठक होने वाली थी। इतना ही नहीं गुजरात से बाढ़ पीड़ितों के लिए जो पैसा आया था, बिहार सीएम ने उसे भी लौटा दिया। उनके इन कदमों से बीजेपी के नेताओं को काफी अपमानित होना पड़ा। गठबंधन टूटने की भी खबरें चलने लगीं। लेकिन अरूण जेटली और सुशील मोदी की कोशिशों के बाद गठबंधन जारी रहा और एनडीए को साल 2010 में ऐतिहासिक जनादेश प्राप्त हुआ था।
2013 में टूट गया गठबंधन
इस घटना के तीन साल बाद एक बार फिर 2014 के लोकसभा चुनाव को लेकर सियासी सरगर्मी बढ़ गई थी। ये सरगर्मी इसलिए भी बढ़ गई थी कि तब गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी दिल्ली पर अपनी दावेदारी ठोंक रहे थे। इसे लेकर भाजपा के कार्यकर्ताओं में तो भारी उत्साह था लेकिन बीजेपी की तब की टॉप लीडरशिप मोदी के इस दावेदारी से असहज महसूस कर रहे थे। बीजेपी के आला नेताओं के अलावा अगर कोई सबसे ज्यादा असहज महसूस कर रहा था तो वो थे बिहार के सीएम नीतीश कुमार। उन्होंने लगातार सिंगल देना शुरू कर दिया कि अगर बीजेपी नरेंद्र मोदी को पीएम पद का उम्मीदवार बनाती है तब दोनों के रास्ते अलग हो जाएंगे। इस दौरान नीतीश मोदी पर जमकर निशाना भी साधते थे। नीतीश की चेतावनी का कोई असर नहीं हुआ और बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को पीएम पद का उम्मीदवार बना दिया। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने कहे के मुताबिक, गठबंधन तोड़ने का ऐलान कर दिया।
2017 में साथ आए और 2022 में फिर हुए अलग
साल 2014 में अपने दम पर लोकसभा चुनाव लड़ने वाले सीएम नीतीश कुमार बुरी तरह हारे और उन्हें अंदाजा हो गया कि वह अकेले मोदी - शाह की बीजेपी से टक्कर नहीं ले पाएंगे। इसके बाद उन्होंने अपने दशकों पुराने गिले-शिकवे को दूर करते हुए लालू यादव के साथ मिल गए। साल 2015 के विधानसभा चुनाव में दोनों ने मिलकर साथ में कांग्रेस भी थी, बीजेपी को करारी शिकस्त दी। तकरीबन दो साल तक ये गठबंधन ठीक-ठाक चला। लेकिन गठबंधन में राजद की बढ़ती हैसियत को देखते हुए नीतीश खूद को काफी असुरक्षित महसूस कर रहे थे। तेजस्वी यादव को सीएम प्रोजेक्ट करने की कोशिश ने उन्हें और परेशान कर दिया। ऐसे में एकबार फिर उन्हें अपने पुराने मित्र बीजेपी की याद आई। साल 2017 में बिहार में एकबार फिर जदयू-भाजपा की सरकार बनी। साल 2019 में लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत हासिल करने के बाद बीजेपी नेताओं का आत्मविश्वास सातवें आसमान पर पहुंच गया। इसी के बाद बीजेपी नीतीश को ठिकाना लगाने में जुट गई। अगले साल यानी 2020 के विधानसभा चुनाव के नतीजों से ये काफी हद तक स्पष्ट भी हो गया।
सीएम नीतीश ने नतीजे को लेकर कहा भी था कि उनके राजनीतिक जीवन का ये पहला चुनाव है जब उन्हें पता ही नहीं चला कि कौन उनके साथ है और उनके खिलाफ। चुनाव नतीजे के बाद जब नई सरकार बनी तब नीतीश कुमार के कहने के बावजूद सुशील मोदी को डिप्टी सीएम नहीं बनाया गया। बिहार सीएम शुरू से ही इस नई सरकार में असहज महसूस कर रहे थे। विशेष राज्य का दर्जे पर अपनी ही डिप्टी सीएम रेणु देवी पर तल्ख टिप्पणी का मामला हो या फिर स्पीकर विजय सिन्हा के खिलाफ गर्मागम बहस, ये सब चीजें बता रही थी कि नीतीश अंदर ही अंदर घुंट रहे हैं। आरसीपी सिंह प्रकरण और चिराग पासवान के प्रति बीजेपी के नरम रवैये ने उन्हें ये सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि बीजेपी उनके सियासी वजूद को समाप्त करने पर तुली हुई है।