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ऑटो रिक्शा वाला बना मसीहा: आरके श्रीवास्तव ने कांटों पर चलकर बनाई अपनी राह, सफल बनने में मां का संघर्ष अतुलनीय
कुछ कर गुजरने का जज़्बा और अगर उसे सलीके से संवारना आ गया, तो मामूली व्यक्ति भी स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हो सकता है।
बहुत मुश्किल से मिलती है ज़िंदगी, चाहे वो जिस रूप में भी मिले"। कुछ कर गुजरने का जज़्बा और अगर उसे सलीके से संवारना आ गया, तो मामूली व्यक्ति भी स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हो सकता है। जहाँ एक तरफ हमलोग अपनी छोटी-छोटी मुश्किलों से परेशान होते रहते हैं। वहीं हमारे बीच के ही कुछ शख़्स अपने समर्पण और संघर्ष से सफलता की लकीर खींच हमें नसीहत दे जाते हैं कि समस्या का समाधान हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहने के बजाय, समर्पण और संघर्ष से दूर किया जा सकता है।
बिहार राज्य के रोहतास जिले के राजपुर (जमोढी) गांव में रहते थे "मैथमेटिक्स गुरु रजनीकांत श्रीवास्तव" उर्फ आरके श्रीवास्तव के पिता पारस नाथ लाल। उनके पिता गांव में खेती कर पेट पालते थे। लेकिन जब सात बच्चे ( 5 बेटी और 2 बेटा) हो गए, तो कमाई कम पड़ने लगी।
वे खेती के अलावा बिक्रमगंज शहर आकर साधारण सा प्रिंटिंग प्रेस चलाने लगे। जिसमें शादी कार्ड छपा करते थे और कुछ टाइपिंग टाइप राइटिंग मशीन भी रखे थे। जिसमें टाइपिंग सिखाने की कोचिंग भी दिया जाता था। खेती के अलावा शादी-विवाह के दिनों में प्रिंटिंग प्रेस से भी कुछ आमदनी आने लगी, जिससे परिवार का भरण-पोषण ठीक से हो सके।
मैथमेटिक्स गुरु के पिता दुनिया छोड़कर चल बसे
मैथमेटिक्स गुरु के पिता दिन-रात परिश्रम करने लगे। जिससे ज्यादा पैसा सामूहिक परिवार चलाने के लिये मिल सके। लेकिन कुछ साल बाद वे इतने बीमार रहने लगे, जिससे काम करना मुश्किल हो गया। वे खेती के साथ- साथ प्रिंटिंग प्रेस में काम करते थे और एक दिन खेती के दौरान चुभी कील और शुगर की बिमारी से हुआ। वह घाव(जख्म) कुछ महीनों में एक बड़ा रूप ले लिया।
आरके श्रीवास्तव के पिता पारस नाथ लाल के बड़े भाई कोलकाता मे रहते थे, तो वे इलाज के लिये उन्हें कोलकता बुला ले गए, परंतु डॉक्टर ने बोला की जख्म आगे न बढ़े, इसके लिये इनका एक पैर काटना पड़ेगा। ऑपरेशन के कुछ घंटे बाद ही होश मे आने के बाद वे इस दुनिया को छोड़ चले गये। उस समय मैथमेटिक्स गुरु का उम्र 5 वर्ष था, मैथमेटिक्स गुरु बताते हैं कि पिता का चेहरा तो हमें याद नहीं बस सोते वक्त धुंधला- धुंधला सा दिखाई देता है।
अब आरके श्रीवास्तव के बड़े भाई शिवकुमार श्रीवास्तव पर परिवार चलाने की जिम्मेदारी सिर्फ 15 वर्ष के उम्र में ही आ गई। छोटे भाई रजनी कान्त श्रीवास्तव (आरके श्रीवास्तव) जिन्हें वह प्यार से सोनू बुलाते थे, की पढ़ाई लिखाई की जिम्मेवारी सहित परिवार का भरण-पोषण कैसे हो इसकी चिंता उन्हे सताने लगा।
पिता के गम मे डूबने के कई दिनो बाद उन्होनें कुछ पैसे उधार लेकर एक ऑटो रिक्शा खरीदा। ऑटो रिक्शा के प्रतिदिन के 100 से 200 रुपये के इनकम से छोटे भाई की पढ़ाई और परिवार का भरण पोषण होने लगा। मां आरती देवी और बड़े भाई शिवकुमार श्रीवास्तव की बड़ी इच्छा थी कि आरके श्रीवास्तव किसी तरह पढ़-लिख जाएं। माँ खुद कभी स्कूल नहीं गईं, लेकिन अपने बच्चे को सुबह स्कूल भेजने में कोई कोताही नहीं करती थी।
गांव के नजदीक शहर बिक्रमगंज के उस सरकारी स्कूल में पढ़ाई की उच्च स्तरीय व्यवस्था नहीं था, लेकिन आर्थिक कारणों के चलते दूसरा विकल्प भी नहीं था। आरके श्रीवास्तव पहली क्लास में थे जब पिता इस दुनिया को छोड चले गये। बड़े भाई शिवकुमार श्रीवास्तव के अथक परिश्रम के साथ समय धीरे धीरे बीतते गया और रजनी कान्त श्रीवास्तव (आरके श्रीवास्तव) पढ़ाई मे खूब मेहनत करने लगे।
कभी इतने पैसे नहीं मिले कि नई किताबें खरीद सके। किसी से पुरानी किताबें उधार लेकर किसी तरह वह अपना काम चलाते थे। ऑटो रिक्शा जिस दिन खराब हो जाता, उस दिन परिवार को भूखे पेट सोने की मजबूरी होती थी। बच्चों को भूखा देख माँ आरती देवी की आत्मा कराह उठती, लेकिन उनके हाथ में कुछ नहीं था। वे बच्चों को समझातीं कि इस गरीबी से निकलने का एक ही जरिया है, पढ़ाई और सिर्फ पढ़ाई।
परिवार चलाने के लिए पैसे की जरूरत
रजनी कान्त सर को उनकी बात बचपन में ही समझ आ गई। जब वह दसवीं में पहुंचे तो पहले से और मेहनत करने लगे। फिर वह अच्छे अंकों से दसवीं पास हो गये और अब आगे महंगे कोचिंग व्यवस्था के कारण पढ़ाई की चुनौती थी।
जब आरके श्रीवास्तव बड़े हुए तो फिर उनपर दुखों का पहाड़ टूट गया, पिता की फर्ज निभाने वाले एकलौते बड़े भाई शिवकुमार श्रीवास्तव भी इस दुनिया को छोड़ कर चले गए। अब इसी उम्र में आरके श्रीवास्तव पर अपने तीन भतीजियों की शादी और भतीजे को पढ़ाने लिखाने सहित सारे परिवार की जिम्मेदारी आ गयी। लेकिन परिवार का भरण- पोषण करने के लिए बड़े भाई ऑटो रिक्शा छोड़ गए थे, बड़े भाई के गुजरने के बाद काफी लंबे समय तक परिवार में काफी निराशा रहने लगा।
आरके श्रीवास्तव और उनका पूरा परिवार पूरी तरह टूट चुका था। आरके श्रीवास्तव जब अपने मां, भाभी और भतीजा- भतीजी का चेहरा देखते थे, तो वह पूरी तरह से टूट जाते थे। भतीजा - भतीजी के चेहरे पर स्पष्ट दिखाई देता था कि वह अपने पापा की कमी महसूस कर रहे हैं।
आरके श्रीवास्तव को परिवार चलाने के लिए पैसे की जरूरत पड़ती थी। आरके श्रीवास्तव के पास उस समय तत्काल ऑटो रिक्शा के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था। ऑटो रिक्शा से होने वाले दिनभर के आमदनी से ही परिवार का भरण पोषण होने लगा।
किसी दिन ऑटो रिक्शा से दिनभर में ₹100 कमाते थे तो किसी दिन ₹200, लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता था, जिस दिन ऑटोरिक्शा का कुछ पार्ट खराब हो जाता था तो उस दिन परिवार को भूखे पेट भी रहने का नौबत आ जाता था, धीरे-धीरे समय बितते गया। आरके श्रीवास्तव को लगने लगा कि ऑटो रिक्शा से होने वाली आमदनी से कैरियर आगे नहीं बढ़ पाएगा, उनको लगा कि पार्ट टाइम क्यों न ट्यूशन पढ़ाया जाए।
इसी दौरान आरके श्रीवास्तव अब खुद अपने से नीचे क्लास के स्टूडेंट्स को पढ़ाना शुरु किया, जिससे जो पैसे उन्हे मिलते उससे उनके आगे की पढ़ाई का खर्च निकलते गया। उन्होंने अपनी शिक्षा के उपरांत गणित में अपनी गहरी रुचि विकसित की।
आरके श्रीवास्तव अपने पढ़ाई के दौरान टीबी की बीमारी के चलते नही दे पाये थे आईआईटी प्रवेश परीक्षा। उनकी इसी टिस ने बना दिया सैकड़ो स्टूडेंट्स को इंजीनयर, आर्थिक रूप से गरीब परिवार में जन्मे आरके श्रीवास्तव का जीवन भी काफी संघर्ष भरा रहा।
छोटी उम्र में इतना संघर्ष झेल चुके आरके श्रीवास्तव की आंखें उस समय अपनी भावनाओं को संभाल नहीं पाती, जब कोई उनका पढ़ाया गरीब स्टूडेंट्स इंजीनियर बन अपने सपने को पंख लगाता है।
आरके श्रीवास्तव बताते है की जब भी मेरे पढ़ाए गरीब स्टूडेंट्स सफल होते हैं तो मैं गौर से अपने उन दिनों को देखता हूं, तो आज भी वही पैंट-शर्ट याद आता है। वही एक जोड़ी कपड़े पहनकर पूरे दो वर्ष 11वी, 12 वी की पढ़ाई करने जाता था और बीते दो साल इसी के साथ गुजारे।
निरक्षर माता के बेटे आरके श्रीवास्तव ने केवल कामयाबी हासिल नहीं की, बल्कि वह आज लाखों युवाओं का रॉल मॉडल बन चुके है। अपने पिता और बड़े भाई (जो आज इस दुनिया मे नही है) के सपने को साकार करते हुए सैकड़ों गरीब स्टूडेंट्स के लिए मसीहा बन चुके है।
पैसों के अभाव के कारण देश विदेश के बड़े बड़े संस्थानों में पढ़ने का मौका तो नहीं मिल पाया लेकिन अपनी मां की प्रेरणा और अपनी मेहनत के दम पर वह वीरकुवर सिंह विश्वविद्यालय से आगे की पढ़ाई पूरी किया,
जब रजनीकांत ने अपने अपने सपने को दफनाकर परिवार की जिम्मेदारी अपने कंधे पर लेने का फैसला कर लिया। तत्कालिक प्राथमिकता थी पैसा कमाना, जबकि ऑटो रिक्शा से उतना इनकम नहीं हो पाता था कि घर की सारी आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके, मां आरती देवी एक योजना के तहत कार्य करने का फैसला किया। वे कभी घर से बाहर नहीं निकली थी, पति की मृत्यु से पहले उनकी दुनिया एक आदर्श गृहणी तक ही सीमित था।
लेकिन पति की मृत्यु के बाद वह बिक्रमगंज शहर से गांव जाकर खेती-बाड़ी देखने लगी, थोड़ी सी जो पुश्तैनी जमीन था उससे जो अनाज उत्पन्न होता था , उसकी कुटाई से लेकर अनाज घर तक पहुंचे उसकी जिम्मेवारी मां ने अपने कंधे पर ले लिया। खेती के द्वारा जो चावल और गेहूं घर आते थे उससे दो समय का काफी हद तक भोजन का प्रबंध हो जाता था, दिन रात मेहनत कर मां चावल को फटकती थी, उससे जो खुदी (चावल के टूटे हुए छोटे टुकड़े) निकलते थे , उसे भी बेचकर कभी-कभी पैसे जुटाती थी, खेती का दायित्व मां को संभालते ही अब घर में पैसा अलग-अलग तरीकों से से आने लगा ।
कोई भी काम छोटा नहीं होता
ऑटो रिक्शा से होने वाले आमदनी के अलावा खेती से भी घर का खर्च चलने लगा। लेकिन फिर भी यह इतना पर्याप्त नहीं था कि बच्चों की शिक्षा - दीक्षा के अलावा बेटियों की शादी के लिए पैसा जुटाया जा सके। लेकिन एक कहावत सत्य है कि हमें सिर्फ, अपने हिस्से का किरदार निभाना होता है, जबकि भाग्य रहस्यमई तरीकों से हस्तक्षेप कर यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी अपने निर्धारित किरदार से इधर -उधर ना भटक सकें।
एक दिन रामचंद्र लाल रजनीकांत सर के घर आते हैं, रजनीकांत श्रीवास्तव उन्हें देखकर प्रणाम चाचा कहते हैं, क्योंकि वे उनके पिताजी के ममेरे भाई थे। रामचंद्र लाल आरती देवी को प्रणाम करते हैं, आरती देवी उनका हालचाल पूछती है कि आप कैसे हैं और परिवार में लोग कैसे हैं, बातचीत के क्रम में रामचंद्र लाल काफी दुखी दिखाई देते हैं और कहते हैं कि भैया(पारसनाथ ) जब जीवित थे तो उनके साथ रहकर कुछ कार्य कर लेता था जिससे परिवार का गुजारा होता था
लेकिन अब तो कोई काम मेरे पास नहीं है जिससे मैं अपने आगे का जीवन चला सकूं, यह सुनकर आरती देवी कहती हैं कि आप चिंता ना करें कुछ पुराने टाइप राइटिंग मशीन रखे हुए हैं जो मेरे पति प्रिंटिंग प्रेस के समय खरीदे थे, यदि आप चाहे तो इस टाइप राइटिंग मशीन को ले जाकर बगल के रूम में कोचिंग खोल दीजिए उससे जो भी पैसा आएगा
उसमें कुछ आप भी रख लीजिएगा और जो आपको उचित लगेगा प्रत्येक महीना मुझे भी दे दीजिएगा ताकि मुझे भी अपना परिवार का भरण पोषण करने के लिए पैसे की जरूरत है। यह बात सुनकर रामचंद्र लाल काफी प्रसन्न हुए क्योंकि उन्हें भी काम की जरूरत था, धीरे-धीरे समय बितते गया, रामचंद्र लाल का आर्थिक हालात सुधरते गए। आरती देवी को वह प्रत्येक महीने कभी ₹100 देते थे तो कभी ₹200 देते थे, लेकिन केवल यह शुरुआती दिनों में ही था।
जैसे ही टाइपिंग इंस्टिट्यूट पूरी तरह जम गया, अब वह पैसा देना बिल्कुल बंद कर दिए, करीब 3 महीने के बाद रामचंद्र लाल घर आकर आरती देवी को ₹20 देते हैं और बोलते हैं कि इंस्टीट्यूट से आमदनी बिल्कुल कम हो रहा है यह तो मैं अपने पॉकेट से आपको पैसा दे रहा हूं।
यह बात सुनकर आरती देवी को काफी गुस्सा आता है और वह रामचंद्र लाल से कहती हैं कि आप अपने पॉकेट से हमें पैसा क्यों दीजिएगा यदि आपको टाइपिंग कोचिंग से कोई लाभ ही नहीं है तो आप उसको बंद कर दीजिए , अपने पॉकेट से पैसा हमें क्यों दीजिएगा। फिर रामचंद्र लाल के रास्ते अलग हो जाते हैं और टाइपिंग कोचिंग से आने वाला पैसा बंद हो जाता है।
सफल बनाने में मां का संघर्ष अतुलनीय
रजनीकांत का जीवन यात्रा को सफल बनाने में मां का संघर्ष अतुलनीय है। सामाजिक संकोच और शुरुआती चुप्पी ऑटो रिक्शा वाले युवा विद्वान के लिए असहज बना देता था। लेकिन पैसे की जरूरत और समय की मांग उस समय था कि जो बड़े भाई ऑटो रिक्शा छोड़ कर गए हैं उसी के आमदनी से परिवार का भरण पोषण हो सके।
लेकिन जब भी रजनीकांत को बड़े भैया की याद आता था तो उनके बताए गए बातें दिमाग में घूमने लगता था की भैया कहा करते थे की कोई भी काम छोटा नहीं होता है, बस अपने जीवन में जो भी कार्य करना पूरी इमानदारी से करना,
थोड़ी बहुत खेती के अलावा ऑटो रिक्शा से होने वाले आए इतना पर्याप्त तो नहीं था, लेकिन धीरे-धीरे कुछ वर्षों में उतना जरूर हो गया जिससे बेटियों की शादी उसमें कुछ पैसे जोड़कर किया जा सके।
ऑटो रिक्शा के भाड़े से कुछ वर्षों में जमा किए गए पैसे और कुछ कर्ज लेकर रजनीकांत की मां आरती देवी अपनी बेटी की शादी करने में सक्षम हो गई थी। बेटी की शादी के बाद फिर से हाथ खाली हो गए थे, आरती देवी के लिए काम मुश्किल था, क्योंकि पैसों का सभी हिसाब उन्हीं के पास रहता था और वर्तमान में आज भी पैसों का सभी हिसाब वही रखती हैं।
महीने बीतते गए और ऑटो रिक्शा के भाड़े से होने वाले आमदनी से धीरे-धीरे बेटी की शादी में लिया गया कर्ज का भुगतान हो रहा था। उन दिनों जब कभी रजनीकांत श्रीवास्तव की मां अपने बेटे के लिए पसंदीदा चना की सब्जी और रोटी बनाती थी तो रजनीकांत को जैसे स्वर्ग मिल जाता, लेकिन ऐसा कभी कभी होता था जब घर में पसंदीदा पनीर की सब्जी या चने की सब्जी बन सके,
हौसलों को बुलंद रखा
रजनीकांत जब अपने उन दोस्तों का पहनावा और खानपान देखते थे जो काफी सुखी संपन्न परिवार से आते थे तो उन्हें लगता था कि वे सभी अपने जीवन में सुखमय है। पढ़ाई के अलावा रजनीकांत श्रीवास्तव को क्रिकेट का भी बहुत शौक था, लेकिन जब मैच होते थे तो प्रत्येक दोस्त को ₹2 देना होता था, लेकिन उस दौर के लिए यह दो रुपया भी रजनीकांत के लिए अधिक था, क्योंकि पैसा तो मां से ही मांगना था और उस दौर में ₹2 मां से मिलना मुश्किल था क्योंकि उनके परिवार की आर्थिक स्थिति के कारण पहले जरूरी था भोजन और शिक्षा,
कभी-कभी तो पैसों के कारण उन्हें मैच खेलने का मौका नहीं मिलता था। लेकिन अच्छे खेल के कारण किसी किसी मैच में कुछ संपन्न परिवार के दोस्त अपनी तरफ से उनका भी पैसा दे देते थे। जिसके कारण उस मैच में उन्हें खेलने का मौका मिल जाता था।
अपने विषम परिस्थितियों में भी रजनीकांत सर कभी टूटे नहीं, बल्कि उस पल में भी अपने हौसलों को बुलंद रखा।
बड़े भाई के गुजरने के बाद रजनीकांत सर को लगने लगा कि उनकी शैक्षणिक गति काफी धीमी पड़ चुका है। मैं एक शिक्षित व्यक्ति हूं और इसी तरह दिन रात मेहनत करके थोड़ी बहुत खेती और ऑटो रिक्शा के भाड़े से होने वाले आमदनी से गुजारा चलाने की कोशिश करते रहेंगे तो जीवन में कुछ हासिल नहीं कर पाएंगे?
रजनीकांत श्रीवास्तव अपने आगे की पढ़ाई को जारी रखना चाहते थे, और वह सोचते थे कि गांव से बाहर जा कर पढ़ाई करें लेकिन फिर दिमाग में बात आता था कि उतना पैसा कहां से आएगा जिससे बड़े शहर का हॉस्टल और खाने-पीने का खर्च भुगतान किया जा सके। फिर एक दिन उन्हें जानकारी मिलता है कि उनसे काफी सीनियर रिलेटिव आईआईटी प्रवेश परीक्षा का कई वर्षों से पटना में तैयारी कर रहा है और अब वह बिहार के गया जिला आने वाला है और कुछ अंकों से उसे बार-बार असफलता हासिल होता है।
रजनीकांत श्रीवास्तव ने उससे आग्रह किया कि तुम अपने साथ हमें भी रख लो, आधा किराया कमरे का मैं भी दूंगा, उस समय कमरे का किराया ₹500 था, जिसमें से ₹250 रजनीकांत को भी देना पड़ता था, लेकिन पहली बार घर से बाहर रजनीकांत निकले थे, इसलिए उन्हें खाना बनाने का तो तजुर्बा नहीं था, इसलिए उनका सीनियर खाना बना देता था और रजनीकांत का काम था बर्तन साफ करने का, जिसे वह बखूबी बेहतर तरीका से करते थे।
करीब 8 से 9 महीने के बाद रजनीकांत श्रीवास्तव को खांसी होता है, लेकिन उसे वह सीरियस नहीं लेते हैं , धीरे धीरे कुछ महीने के बाद अचानक से छाती में उन्हें काफी दर्द होता है और वह ठीक से खड़ा भी नहीं हो पाते हैं, जब यह जानकारी परिवार को पता चलता है तब उन्हें घर पर बुला लेते हैं और स्थानीय डॉक्टर से उनका इलाज कराया जाता है। इलाज के दौरान डॉक्टर साहब एक्सरे रिपोर्ट के लिए बोलते है। एक्सरे रिपोर्ट से पता चलता है कि उन्हें टीबी की बीमारी है।
टीबी एक संक्रामक बीमारी है, जो ट्यूबरक्युलोसिस बैक्टीरिया के कारण होती है। इस बीमारी का सबसे अधिक प्रभाव फेफडों पर होता है। ट्यूबरक्लोसिस एक संक्रामक बीमारी है जो आमतौर पर फेफड़ों पर हमला करती है,धीरे-धीरे ये दिमाग या रीढ़ समेत शरीर के अन्य हिस्सों में भी फैल सकती है । टीबी के ज्यादातर मामले एंटीबायोटिक दवाओं से ठीक हो जाते हैं लेकिन इसमें बहुत वक्त लग जाता है, आमतौर पर इसकी दवा 9 महीने तक चलती है।
पढ़ाई के उपरांत टीबी की बीमारी से ग्रसित होने के चलते इलाज के लिए अपने आईआईटी की तैयारी एवं प्रवेश परीक्षा को बीच मे छोड़कर रजनीकांत श्रीवास्तव अपने घर बिक्रमगंज आ गए। गांव के डॉक्टर ने आरके श्रीवास्तव को नौ महीने दवा खाने और आराम करने की सलाह दिया। बीमारी के कारण आरके श्रीवास्तव का आईआईटियन बनने का सपना टूट गया। आईआईटी की प्रवेश परीक्षा छूट गया।
उस समय आरके श्रीवास्तव काफी दुखी हो चुके थे। ऐसे ही काफी दिन बीतते गए , घर पर आरके श्रीवास्तव बोर होने लगे। फिर इन्ही नौ महीनों के दौरान आरके श्रीवास्तव ने अपने घर बुलाकर अपने आस-पास के स्टूडेंट्स को निःशुल्क पढ़ाने लगे। फिर धीरे-धीरे समय बीतते गए और ये कारवा ऐसे ही आगे बढ़ता गया।
कोचिंग के कमरे का किराया
एक वर्ष के बाद पूरी तरह स्वस्थ होने के बाद आरके श्रीवास्तव ने यह ठान लिया कि जिस गरीबी के कारण हमें शिक्षा ग्रहण करने में काफी दिक्कत हुई। वैसे बिहार सहित देश में कितने स्टूडेंट्स होंगे, जिसमें टैलेंट होने के बावजूद अपनी गरीबी की वजह से पढ़ाई को पूरा नहीं कर पाते होंगे।
फिर वही से अपने शैक्षणिक कार्यशैली की शुरुआत शहर बिक्रमगंज के गरीब स्टूडेंट्स को वर्ष 2007 से पढ़ाना शुरू किया था। शुरुआती दौर में ऑटो रिक्शा के भाड़े से कमाए पैसों का कुछ अंश को कोचिंग के कमरे का किराया देने में इस्तेमाल किया था।
शुरुआती दौर में तो काफी कम विद्यार्थी पढ़ने आए थे, लेकिन अपने दिन रात के मेहनत से उन्होंने कुछ ही दिनों में ऐसी अटूट छाप छोड़ दिया कि शहर के अगल बगल के गांव के स्टूडेंट्स भी इंजीनियर बनने का सपना देखने लगे।
सबसे बड़ी बात उन दिनों नाइट क्लासेज अभियान काफी चर्चा का विषय बन चुका था। अभिभावक सोचने पर मजबूर हो गए थे कि कौन शिक्षक है जो पूरी रात लगातार 12 घंटे पूरे कंसंट्रेशन के साथ गणित को पढ़ा देता है।
उन दिनों तक आरके श्रीवास्तव जादुई तरीके से गणित पढाने के लिए प्रसिद्ध हो चुके थे। काफी कम समय में विद्यार्थी उनके पढ़ाने के तरीकों के दीवाने बन चुके थे। विद्यार्थी कहते थे कि उनके पढ़ाने की खासियत है कि वे बहुत ही स्पष्ट और सरल तरीके से समझाते है। समाजिक सरोकार से गणित को जोड़कर, चुटकुले सुनाकर खेल-खेल में गणित को हल करना आरके श्रीवास्तव की पहचान है। गणित में उनके द्वारा चलाया जा रहा नि:शुल्क नाइट क्लासेज अभियान पूरे देश में चर्चा का विषय बन गया।
पूरे रात लगातार 12 घंटे विद्यार्थियों को गणित का गुर सिखाना किसी चमत्कार से कम नही। इस क्लास को देखने और उनका शैक्षणिक कार्यशैली को समझने के लिये कई विद्वान और शिक्षाविद उनके नाइट क्लास में आने लगे। नाईट क्लासेज अभियान के माध्यम से छात्रों को सेल्फ स्टडी के प्रति जागरूक करना और गणित को आसान बनाने के लिए यह नाईट क्लासेज अभियान अभिभावको को खुब पसंद आने लगा ।
छात्र-छात्राओं के अभिभावक इस बात से काफी प्रसन्न दिखे कि जहाँ मेरा बेटा-बेटी घर पर पढ्ने हेतू 3-4घंटे भी ठीक से नही बैठ पाते, उसे आरके श्रीवास्तव ने पूरे रात 12 घंटे पूरे कंसंट्रेशन के साथ गणित का गुर सिखाया। आपको बताते चले कि अभी तक आरके श्रीवास्तव के द्वारा अनेकों बार निःशुल्क नाइट क्लास (पूरे रात लगातार 12 घंटे) द्वारा बच्चों को गणित की शिक्षा दी जा चुकी है, जो आगे जारी भी है।
यूँ तो आरके श्रीवास्तव के प्रतिदिन के क्लास में तो छात्र गणित का गुर सीखते ही हैं, परंतु उनका नि:शुल्क नाइट क्लासेज अभियान जो पूरी रात लगातार 12 घंटे चलता है, इसकी चर्चा सोशल साइट पर खुब होने लगा कि आख़िर कैसे पूरे रात लगातार 12 घंटे गणित की शिक्षा दी जा रही है। इसके लिए उन्हें काफी प्रशंसा भी लोगो के द्वारा मिलने लगा।
कुछ ही वर्षों के बाद एक कहावत चर्चा में आ गया कि वैसे स्टूडेंट्स जिन्हें गणित के नाम से ही डर लगता है परंतु वे आरके श्रीवास्तव के क्लास में जब शिक्षा ग्रहण करते है तो वे गणित के हौवा को भूल जाते है।स्टूडेंट्स अगले दिन भी यह कहते है कि हमे आरके श्रीवास्तव के नाईट क्लासेज में पूरे रात लगातार 12 घण्टे गणित पढ़ना है। पूरे रात लगातार 12 घण्टे स्टूडेंट्स बिना किसी तनाव के एन्जॉय करते हुए गणित के प्रश्नों को हल करते है।
आरके श्रीवास्तव का दावा है कि नाइट क्लासेज में लगातार 12 घंटे पढ़ने वाले 60% से भी अधिक स्टूडेंट्स इंजीनियर बन अपने सपनों को पंख लगा रहे हैं, इसके अलावा भी कई आर्थिक रुप से गरीब स्टूडेंट्स अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं में भी सफल होकर अपने सपनों को पंख लगा रहे हैं।
अपने क्लास में स्टूडेंट्स के सामने मोटिवेशनल स्पीच देकर हमेशा आरके श्रीवास्तव गणित को हौवा या डर होने की बात को नकारते रहे हैं। वे हमेशा कहते कि यह विषय सबसे रुचिकर है। इसमें रुचि जगाने की आवश्यकता है।
अगर किसी फॉर्मूला से आप सवाल को हल कर रहे हैं तो उसके पीछे छुपे तथ्यों को जानिए। क्यों यह फॉर्मूला बना और किस तरह आप अपने तरीके से इसे हल कर सकते हैं। वे बताते हैं कि उन्हें बचपन से ही गणित में बहुत अधिक रुचि थी जो नौंवी और दसवी तक आते-आते परवान चढ़ी।
सवाल से नया सवाल पैदा करने की क्षमता का भी विकास
आरके श्रीवास्तव अपने छात्रों में एक सवाल को अलग-अलग मेथड से हल करना भी सिखाते हैं। वे सवाल से नया सवाल पैदा करने की क्षमता का भी विकास करते हैं। महान गणितज्ञ रामानुजन, वशिष्ठ नारायण को आदर्श मानने वाले आरके श्रीवास्तव कहते हैं कि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के युग में गणित की महत्ता सबसे अधिक है इसलिए इस विषय को रुचिकर बनाकर पढ़ाने की आवश्यकता है।
इनके द्वारा चलाया जा रहा वंडर किड्स प्रोग्राम क्लासेज भी अद्भुत है, इस प्रोग्राम के तहत नन्हे उम्र के बच्चे जो वर्ग 7 और 8 में है परंतु अपने वर्ग से 4 वर्ग से आगे के प्रश्नों को हल करने का मद्दा रखते है। वर्ग 7 व 8 के स्टूडेंट्स 11 वी , 12 वी के गणित को चुटकियो में हल करते है।
आरके श्रीवास्तव के वंडर किड्स प्रोग्राम क्लासेज के इन स्टूडेंट्स से मिलने और शैक्षणिक कार्यशैली को समझने के लिये अन्य राज्यो के लोग इनके इंस्टीटूट को देखने आते है। इसी खासियत और इनके गणित पढ़ाने के जादुई तरीके ने उन्हें मैथमेटिक्स गुरु का दर्जा दिला दिया ।
शुरुआती दौर से अभी तक आर्थिक रुप से गरीब स्टूडेंट्स को सिर्फ ₹1 गुरु दक्षिणा लेकर पढ़ाना शुरू कर दिया। लेकिन शुरुआती दौर में यह जरूरी था कि सिर्फ ₹1 गुरु दक्षिणा में पढ़ाकर उन गरीब बच्चों का सपना तो पूरा हो जाएगा, लेकिन क्लास रूम का किराया सहित अन्य खर्च चलाने के लिए पैसों की जरूरत पड़ती थी।
तो उन्होंने दिमाग लगाया और दिन के 10 घंटे को दो भागों में बांट लिया, पहले 5 घंटे आर्थिक रुप से गरीब बच्चों को सिर्फ ₹1 गुरु दक्षिणा में शिक्षा देने लगे, और बचे हुए 5 घंटे में वैसे सुखी संपन्न अमीर परिवार के छात्र छात्राओं को पढ़ाने लगे जिससे कुछ पैसा आ सके। ऐसे ही कारवां आगे बढ़ते गया।
कुछ समय के बाद जब गरीब बच्चे इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा में सफल होने लगे तो इनके नाम शोहरत को सुनकर देश के प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थाएं गेस्ट फैकल्टी के रूप में उन्हें पढ़ाने के लिए आमंत्रित करने लगे। दूसरे बड़े संस्थानों में पढ़ाने से जो भी उन्हें आमदनी होने लगा उनसे वह गरीब बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा के अलावा कॉपी किताब भी खरीद कर देने लगे। अपनी मां के हाथों से गरीब स्टूडेंट्स को किताब भी बटवाना शुरू कर दिया।
अब उन्हें लगने लगा था कि देश के प्रतिष्ठित महंगे शैक्षणिक संस्थाएं भी गेस्ट फैकेल्टी के रूप में पढ़ाने के लिए बुला रहे हैं , उससे पर्याप्त पैसे भी मिलने लगे, उन्हें अब लग गया कि ऑटो रिक्शा को बेच देना चाहिए, क्योंकि अब पढ़ाने लिखाने में ही समय सारा व्यतीत हो जा रहा है।
बिहार के बाहर दूसरे राज्यों के महंगे कोचिंग में गेस्ट फैकल्टी के रूप में पढ़ाने से जो आमदनी होता था उससे बिहार एवं अन्य जगहों के आर्थिक रुप से गरीब स्टूडेंट्स को निशुल्क पढ़ाने के अलावा आर्थिक मदद भी करने लगे, सफल सीनियर विद्यार्थी भौतिकी और रसायन पढ़ाने के लिए भी अपना समय देने लगे। बेहतर सामाजिक कार्यों को देखते हुए आरके श्रीवास्तव के अभियान से लोग जुड़ते गए।
सपने को लगाया पंख
कुछ ही वर्षों के शैक्षणिक कार्यशैली और आर्थिक रुप से गरीब स्टूडेंट्स के सफल रिजल्ट ने मीडिया को भी अपनी तरफ आकर्षित कर लिया था। देश के सभी प्रतिष्ठित पत्र - पत्रिकाओं और अखबारों में आरके श्रीवास्तव के शैक्षणिक कार्य शैली की खबरें विस्तृत रूप से छपने लगे थे। देश के अलग-अलग राज्यों के प्रतिष्ठित अवार्ड फंक्शन में उन्हें सम्मानित करने के लिए संस्थाएं बुलाने लगे थे।
कुछ ही वर्षों बाद आरके श्रीवास्तव के शैक्षणिक कार्यशैली हेतू इनका नाम कई रिकॉर्ड्स बुक में भी दर्ज हो गया।
आज पूरे देश के अलग-अलग राज्यों में शिविर लगाकर आर्थिक रुप से गरीब विद्यार्थियों को नि:शुल्क आरके श्रीवास्तव मैथमेटिक्स का गुर सिखाते है। अपने आईआईटियन न बनने की सपने को जिद्द में बदलकर सैकड़ो गरीब स्टूडेंट्स को आईआईटी, एनआईटी, बीसीईसीई सहित देश के प्रतिष्टित संस्था में पहुँचाकर उनके सपने को पंख लगाया।
वर्तमान में आज आरके श्रीवास्तव के शैक्षणिक कार्यशैली देशव्यापी बन चुका है। उसके अलावा शैक्षणिक मीटिंग के दौरान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी अपना आशीर्वाद दिए थे।राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद सहित अनेकों हस्तियाँ उनके शैक्षणिक कार्यशैली की प्रशंसा कर चुके हैं।
आज माँ आरती देवी कहती है की बेटे आरके श्रीवास्तव के साथ निरंतर जुड़ रही उपलब्धियों मे उसके पिता और बड़े भाई साथ रहते तो खुशी का ठिकाना नही रह्ता।
परंतु आरके श्रीवास्तव कहते है की माँ और भाभी का आशीर्वाद तो मेरे साथ है ही उसके अलावा प्रतिदिन इनसे हमेशा समाज सेवा सीखते रहता हूं, लेकिन पापा एवं भैया का आशीर्वाद मेरे साथ निरंतर बना रहता है। मेरे बड़े भैया का दिखाएं रास्ता और घरेलू संस्कार मुझे सही दिशा मे मेहनत करने के लिये प्रेरित करता है।