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Yogesh Mishra Y-Factor: नागरिकता पर बड़ा दांव, जानें CAA और NRC में अंतर

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 17 Dec 2019 6:01 PM IST (Updated on: 10 Aug 2021 6:58 PM IST)
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हंगामा है क्यों बरपा? यह सवाल मुल्क इन दिनों अपने तमाम नेताओं से पूछना चाह रहा है। उन नेताओं से खास तौर से जो कश्मीर से धारा 370 एवं 35-ए के प्रावधानों को हटाने, तीन तलाक को प्रतिबंधित करने और नागरिकता संशोधन कानून पर संसद की मुहर लगने पर शोर-शराबा मचाते रहे। उनसे भी पूछना चाह रहा है जो जामिया मिलिया, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और लखनऊ के नदवा कॉलेज में नागरिकता संशोधन कानून को लेकर सड़कों पर उतर आए हैं। इस कानून में भारतीय मुसलमानों के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है। यह कानून नागरिकता देने का है, लेने का नहीं। तो फिर क्या पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के मुसलमानों को लेकर ये सारे कैंपस गर्म हैं। इस गर्मी से पहले, विरोध में उतरने से पहले यह समझना और समझाना ज्यादा जरूरी हो गया है कि नागरिकता कानून को लेकर जो कहा गया है, वह गलत है क्या? पर इस पर कोई मुंह खोलने को तैयार नहीं है। बस यह रट है कि कानून अल्पसंख्यकों के हितों के खिलाफ है। इस कानून में अल्पसंख्यकों के हित सुरक्षित नहीं हैं। ऐसा क्यों? यह भी कोई नेता और उसकी जमात नहीं बता रहा है। कैंपस से उठ रहे विरोध के स्वर यह बता रहे हैं कि युवा कंधों पर बूढ़ा मन बैठ गया है।

हंगामा करने वाले दो तरह के लोग हैं। एक, वे जो इसे मुस्लिमों के साथ भेदभाव बता रहे हैं क्योंकि बिल में उन्हें नागरिकता देने का प्रावधान नहीं किया गया है। दूसरे, वे हैं जो कह रहे हैं कि घुसपैठिये कोई भी हों, उन्हें नागरिकता नहीं दी जानी चाहिए। पूर्वोत्तर में विरोध की वजह यही है। इस विरोध को जायज भी माना जा सकता है। पर ये मामले भारतीय जनता पार्टी के घोषणा पत्र के हिस्सा रहे हैं। इस घोषणा पत्र के बाद ही जनता ने भाजपा को केंद्र में दूसरी बार सरकार बनाने का मौका दिया है। 370 पर सांसदों के सवाल का जवाब देते हुए गृहमंत्री अमित शाह ने साफ कहा था कि जब हम म्युनिसीपिल्टी में भी नहीं थे तब से 370 खत्म करने की बात करते आ रहे हैं। आज दूसरी बार सत्ता में हैं तो क्या उसे न करें। यह जनता के साथ धोखा नहीं होगा? जनता ने घोषणा पत्र में लिखित ऐसी बातों को जांच-समझ कर हमें सरकार बनाने का मौका दिया है।

बिल पर वोटिंग से पहले अमित शाह ने साफ किया कि इस बिल को लेकर देश के मुस्लिमों को तनिक भी डरने की जरूरत नहीं है। इस बिल से उनकी नागरिकता नहीं छीनी जा रही। यह नागरिकता देने का बिल है, नागरिकता लेने का नहीं। बिल में भारतीय मुसलमानों को छुआ तक नहीं गया है। इससे पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश के प्रताड़ित गैर मुस्लिम अल्पसंख्यक हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख, ईसाई और पारसी शरणार्थियों को भारत की नागरिकता मिल सकेगी।

असम के लोगों को विरोध इस बात से है कि बांग्लादेश से बड़ी संख्या में पहले से राज्य में घुसे लोग अब नागरिकता पा जाएंगे। इससे असम के लोगों को अपनी पहचान, भाषा और संस्कृति खो जाने का खतरा सता रहा है। पर कांग्रेस के लिए यह याद रखना जरूरी है कि जिस एनआरसी का असम में कांग्रेस विरोध कर रही है। यह व्यवस्था उस असम समझौते में है जो 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने किया था। 26 मई, 2009 को गृहमंत्री रहे पी. चिदंबरम ने एनआरसी जैसी व्यवस्था पूरे देश में लागू करने की मंशा जताई थी। उन्होंनेएनआरसी की तर्ज पर राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर की बात भी कही थी।

भारत सरकार के बॉर्डर मैनेजमेंट टास्क फोर्स की वर्ष 2000 की रिपोर्ट के अनुसार 1.5 करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठ कर चुके हैं। लगभग तीन लाख प्रतिवर्ष घुसपैठ कर रहे हैं। हाल के अनुमान के मुताबिक देश में 4 करोड़ घुसपैठिये मौजूद हैं। 40 हजार रोहिंग्या घुसपैठ कर भारत में समस्या बने हुए हैं। 2014 में पश्चिम बंगाल के सीरमपुर में नरेंद्र मोदी ने कहा था कि चुनाव के नतीजे आने के साथ ही बांग्लादेशी घुसपैठियों को बोरिया-बिस्तर समेट लेना चाहिए। 1991 में असम में मुस्लिम जनसंख्या 28.42 फीसदी थी जो 2001 के जनगणना के अनुसार बढक़र 30.92 फीसदी हो गई।

2011 की जनगणना में यह बढक़र 35 फीसदी को पार कर गयी। बांग्लादेशी मुस्लिमों की एक बड़ी आबादी ने देश के कई राज्यों में जनसंख्या असंतुलन को बढ़ाने का काम किया है जिसके कारण देश में कई अप्रिय घटनाएं घटित हुई हैं। भारत में 1951 में 84 फीसदी हिंदू थे और 2011 में वो घटकर 79 फीसदी रह गए। बाकी के देशों में वहां के बहुसंख्यकों की संख्या बढ़ी है। जबकि अल्पसंख्यक घट रहे हैं।

1947 में बांग्लादेश में 22 फीसदी अल्पसंख्यक थे। 2011 में यह आंकडा़ 7.8 फीसदी रह गया है। 1971 में जब बांग्लादेश बना था तो वह धर्मनिरपेक्ष देश था। 1977 में उसका धर्म इस्लाम हो गया। 1950 में दिल्ली में नेहरू और लियाकत समझौता हुआ था, जिसमें कहा गया था कि भारत और पाकिस्तान अपने-अपने अल्पसंख्यकों का ख्याल रखेंगे। पर पाकिस्तान ने ऐसा नहीं किया। 1947 में पाकिस्तान में 23 फीसदी अल्पसंख्यक थे। 2011 में यह आंकड़ा घटकर 3.7 फीसदी रह गया है। भारत में 1951 में 9.8 फीसदी मुसलमान थे। आज इनकी संख्या 14.23 फीसदी है।

घुसपैठ की इस समस्या का सबसे अधिक शिकार पूर्वोत्तर विशेषकर असम है। वहां के लोगों की आवाज अनसुनी नहीं की जानी चाहिए। लेकिन शेष भारत में विरोध के स्वरों का सीधा सा मतलब उस राजनीति से है जो बांटती है। इस बांटने वाली सियासत के जो लोग भी टूल हैं उन्हें यह समझना चाहिए कि 2014 और 2019 के चुनावी नतीजों में नरेंद्र मोदी ने यह टें्रड सेट किया कि 82 फीसदी लोग ही उनके राजनीतिक एजेंडे के केंद्र में हैं। तकरीबन 14 फीसदी लोगों को उन्होंने एजेंडे से बाहर रखा। यह करते हुए उन्होंने लोकतांत्रिक इतिहास में मील का पत्थर गाड़ा। अपने बलबूते पर बहुमत की सरकार बना कर दिखाया। लेकिन अभी भी बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक को जोड़कर सियासत करने की जगह बांटो और राज करो पर सत्ता और विपक्ष दोनों चल रहा है। सोनिया गांधी इसे संवैधानिक इतिहास का काला दिन बता रही हैं। मुस्लिम लीग के चार सांसदों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। आईपीएस अधिकारी अब्दुल रहमान ने बिल के विरोध में इस्तीफा दे दिया। इस बिल के आने के बाद से ही कुछ भारतीय नेताओं और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के सुर में सुर मिल रहे हैं। प्रधानमंत्री प्रदर्शनकारियों के कपड़े देखने की बात कर रहे हैं। इन सब में कोशिश दोनों को दूर रखने की है। इन कोशिशों, इन चालों को समझने का समय है।



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Dr. Yogesh mishr

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