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भाजपा को सचेत होने का संकेत हैं चुनाव के नतीजे
दो राज्यों के विधानसभा और 18 राज्यों के उप चुनाव के नतीजे भाजपा को यह संदेश दे रहे हैं कि उसके लिए सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। जनता ने नरेंद्र मोदी के चेहरे के बावजूद लोकसभा और विधानसभा के चुनाव के अलहदा मुद्दे तय कर लिए हैं। राज्यों में नरेंद्र मोदी के नेता ठीक से काम नहीं कर पा रहे हैं। जनता के मापदंड पर मोदी के क्षेत्रीय क्षत्रप खरे नहीं उतर रहे हैं। महाराष्ट्र और हरियाणा में भले ही भाजपा ने सरकार बनाने का करिश्मा कर दिखाया हो, पर चुनावी नतीजे बताते हैं कि भाजपा का ग्राफ ढलान की ओर है। भाजपा लगातार कमजोर हो रही है। पार्टी जैसे-जैसे कमजोर होती जाएगी, वैसे-वैसे सहयोगी दलों पर उसकी निर्भरता बढ़ती चली जाएगी। भाजपा नीत राजग गठबंधन में भाजपा को छोड़ क्षेत्रीय पार्टियां ही हैं। क्षेत्रीय पार्टियों की यह दिक्कत है कि उसके सुप्रीमो को अपनी ही जिंदगी में मुख्यमंत्री तक का सफर तय करना है। पार्टी के लिए बेहिसाब दौलत कमानी है। दो तीन पीढ़ियों की राजनीतिक व्यवस्था करनी है। यह तभी संभव है जब काफी कुछ बंदिशों के दायरे में न चले। वह चाहे संवैधानिक बंदिशें हों कानूनी या लोकतांत्रिक। इतने ढेर सारे सपने तभी पूरे हो सकते हैं। जब बंदिशों के तार तोड़कर आगे बढ़ा जाए। इन तारों के टूटने का खमियाजा राष्ट्रीय पार्टी को उठाना पड़ता है।
महाराष्ट्र में भाजपा ऐसी ही दिक्कत से दो-चार हो रही है। लेट लतीफ हरियाणा की ठक्कर सरकार को भी इन दिक्कतों से दो-दो हाथ करना होगा। क्योंकि यहां वह चौटाला परिवार की जननायक जनता पार्टी की बैसाखी पर है। बैसाखी पर रहने वाली सरकार के स्वरूप को समझने के लिए राजग के पहले कार्य काल पर नजर डालनी होगी। 2014 में नरेंद्र मोदी भले ही बहुमत जुटाने में कामयाब रहे हों लेकिन धीरे-धीरे उपचुनाव में उन्होंने लोकसभा में भाजपा का अपना बहुमत खोया। नतीजतन वे सरकार में होते हुए भी तीन तलाक, अनुच्छेद 370 और राम मंदिर जैसे मुद्दों पर कुछ नहीं कर पाए। जिन मुद्दों को उनकी पार्टी लंबे समय तक अपने घोषणा पत्र का हिस्सा बनाती रही। उन पर भी उन्हें खामोशी ओढनी पड़ी। हालांकि 2019 के चुनावी नतीजों के बाद भाजपा ने प्रचंड बहुमत के साथ ही इन मुद्दों पर काम करके दिखा दिया। क्षेत्रीय दलों का साथ कितना खतरनाक है कांग्रेस की संप्रग सरकार से भी समझा जा सकता है। मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में बड़े भ्रष्टाचारों की जद में फंसने वाले नेता सहयोगी दल के ही थे। सहयोगी दलों के चलते ही मनमोहन सिंह को ईमानदार प्रधानमंत्री के विशेषण से दूर रहना पड़ा।
हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा को फिर क्षेत्रीय क्षत्रपों के कंधे चाहिए जिसकी वह निसंदेह बड़ी कीमत मांगेंगे। सवाल यह उठता है कि आखिर भाजपा के इस स्थिति में जाने की वजह क्या है। इस सवाल का सीधा सा जवाब है कि मोदी के मुख्यमंत्री न तो उनकी केंद्र सरकार के हिसाब से काम कर पा रहे हैं और न ही जनता की जरूरतों को पूरा करने में कामयाब हो रहे हैं। हरियाणा में पिछली बार भाजपा ने 47 सीटें हासिल की थीं, उसके खाते में 33.2 फीसदी वोट आए थे। इस राज्य में पहली बार भाजपा ने अपनी सरकार बनाई थी लेकिन इस बार भाजपा को वोट भले ही 36.49 फीसदी मिले पर सीटों की संख्या 40 ही रही। वोटों के इजाफे पर भाजपा को इसलिए नहीं इतराना चाहिए क्योंकि कांग्रेस ने छह फीसदी वोट इस चुनाव में अधिक हासिल किये हैं। भाजपा का यह प्रदर्शन तब रहा जबकि कांग्रेस अपने नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा को कमान देने को तैयार नहीं थी। राहुल गांधी ने उन्हें कब का हाशिये पर पहुंचा दिया था। एक स्थिति तो यह आ गई थी कि हुड्डा अलग दल बनाने को तैयार थे। महाराष्ट्र में भी कांग्रेस हारी हुई लड़ाई लड़ रही थी। भाजपा के हाथ में आरक्षण की उपलब्धि थी। राष्ट्रवाद, पाकिस्तान, तीन तलाक और 370 जैसे मुद्दे थे। नरेंद्र मोदी और क्षेत्रीय नेताओं के चेहरे के बावजूद भाजपा ने राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, गंवाया। गुजरात, हरियाणा और महाराष्ट्र की जीत सरकार बनाने का अवसर तो देती है परन्तु गर्वोक्ति करने का नहीं। मुख्यमंत्री ठीक से काम नहीं कर रहे हैं टिकट देने में नेताओं की अनदेखी की जा रही है, स्थानीय मुद्दों पर तवज्जो नहीं दी जा रही है। क्षेत्रीय मुद्दों पर भाजपा अच्छा काम नहीं कर रही है, खेती पर संकट हो, बेरोजगारी की स्थिति गंभीर हो मंदी चिंताएं बढ़ा रही हो तब राष्ट्रीय मुद्दे नैया पार नहीं कर सकते।
इसे गुजरात, मध्यप्रदेश, छ्त्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावी नतीजों में तो पढ़ा ही जा सकता है। 18 राज्यों के 51 विधानसभा उपचुनावों के नतीजों में भी यही गूंज सुनी जा सकती है। गुजरात में छह सीटों पर हुए उपचुनाव में भाजपा सिर्फ तीन सीटें जीती है। मतलब साफ है कि जिस तरह गुजरात के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बराबर की टक्कर दी थी, किसी तरह भाजपा सरकार बनाने में कामयाब हुई थी, तो विधानसभा चुनाव से उपचुनाव के बीच हालात बदले नहीं हैं। उत्तर प्रदेश की बात करें तो लोकसभा चुनाव में जिस समाजवादी पार्टी को भाजपा ने बहुत पीछे छोड़ दिया था, वही पार्टी मुख्य विपक्ष बनकर उभर गई, भाजपा ने भले ही आठ सीटें जीती हों लेकिन यह साफ हुआ कि भाजपा का मार्ग निष्कंटक नहीं है। क्योंकि चुनाव प्रचार में मायावती और अखिलेश यादव कोई नहीं उतरे, वे पराजित योद्धा की तरह दूर बैठे रणभूमि का दृश्य देखते रहे। मायावती आम तौर पर उपचुनाव लड़ती ही नहीं हैं। पहली बार वह उपचुनाव लड़ी हैं, उनके न लड़ने की स्थिति में उनके वोटरों का ऊंट किस करवट बैठता यह कहना तो मुश्किल है, पर इतना जरूर है कि सत्ता के साथ उसके जाने की अटकलें और अनुमान घर बैठ जाने से कम ही बताए जा सकते हैं।
सपा और बसपा गठजोड़ का मुख्य सूत्रधार सपा थी, नतीजों ने बताया कि मायावती के दलित राजनीति के तौरतरीके अब अप्रासंगिक हो उठे हैं। लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद जिस तरह मायावती ने यह गर्वोक्ति की थी कि पार्टी को संजीवनी मिल गई है। उसे सपा से अधिक सीटें मिलीं इसका सीधा सा मतलब है कि जनता ने उसे सपा से अधिक कबूल किया। उनकी इस गर्वोक्ति की हवा निकल गई चुनावी नतीजे बताते हैं कि भाजपा को अपनी रीत नीति पर विचार करना चाहिए उसे अपने लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करना चाहिए क्योंकि तमाम कमजोरियों के बावजूद विपक्ष अपनी जमीन मजबूत करता दिख रहा है। नतीजों ने कांग्रेस को हौसला भरी उम्मीद दी है। हौसला छोड़ चुकी कांग्रेस की झोली में उम्मीद से ज्यादा सीटें डालकर उसे निराशा से बाहर निकलने का अवसर दिया है। इस अवसर का लाभ उठाने में कांग्रेस कामयाब हुई तो भाजपा को अपनी राज्य सरकारों के कामकाज के तौर तरीके पूरे बदलने होंगे। उसे केंद्र सरकार के नक्शे कदम पर चलना होगा क्योंकि कांग्रेस और विपक्ष केंद्र की मोदी का विजय अभियान रोकने की स्थिति में नहीं हैं। मोदी ने 2014 से बढ़कर 2019 में आंकड़े खड़े किये हैं जबकि उनकी राज्य सरकारें आंकड़ों के इस खेल में लगातार फिसलती जा रही हैं।
महाराष्ट्र में भाजपा ऐसी ही दिक्कत से दो-चार हो रही है। लेट लतीफ हरियाणा की ठक्कर सरकार को भी इन दिक्कतों से दो-दो हाथ करना होगा। क्योंकि यहां वह चौटाला परिवार की जननायक जनता पार्टी की बैसाखी पर है। बैसाखी पर रहने वाली सरकार के स्वरूप को समझने के लिए राजग के पहले कार्य काल पर नजर डालनी होगी। 2014 में नरेंद्र मोदी भले ही बहुमत जुटाने में कामयाब रहे हों लेकिन धीरे-धीरे उपचुनाव में उन्होंने लोकसभा में भाजपा का अपना बहुमत खोया। नतीजतन वे सरकार में होते हुए भी तीन तलाक, अनुच्छेद 370 और राम मंदिर जैसे मुद्दों पर कुछ नहीं कर पाए। जिन मुद्दों को उनकी पार्टी लंबे समय तक अपने घोषणा पत्र का हिस्सा बनाती रही। उन पर भी उन्हें खामोशी ओढनी पड़ी। हालांकि 2019 के चुनावी नतीजों के बाद भाजपा ने प्रचंड बहुमत के साथ ही इन मुद्दों पर काम करके दिखा दिया। क्षेत्रीय दलों का साथ कितना खतरनाक है कांग्रेस की संप्रग सरकार से भी समझा जा सकता है। मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में बड़े भ्रष्टाचारों की जद में फंसने वाले नेता सहयोगी दल के ही थे। सहयोगी दलों के चलते ही मनमोहन सिंह को ईमानदार प्रधानमंत्री के विशेषण से दूर रहना पड़ा।
हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा को फिर क्षेत्रीय क्षत्रपों के कंधे चाहिए जिसकी वह निसंदेह बड़ी कीमत मांगेंगे। सवाल यह उठता है कि आखिर भाजपा के इस स्थिति में जाने की वजह क्या है। इस सवाल का सीधा सा जवाब है कि मोदी के मुख्यमंत्री न तो उनकी केंद्र सरकार के हिसाब से काम कर पा रहे हैं और न ही जनता की जरूरतों को पूरा करने में कामयाब हो रहे हैं। हरियाणा में पिछली बार भाजपा ने 47 सीटें हासिल की थीं, उसके खाते में 33.2 फीसदी वोट आए थे। इस राज्य में पहली बार भाजपा ने अपनी सरकार बनाई थी लेकिन इस बार भाजपा को वोट भले ही 36.49 फीसदी मिले पर सीटों की संख्या 40 ही रही। वोटों के इजाफे पर भाजपा को इसलिए नहीं इतराना चाहिए क्योंकि कांग्रेस ने छह फीसदी वोट इस चुनाव में अधिक हासिल किये हैं। भाजपा का यह प्रदर्शन तब रहा जबकि कांग्रेस अपने नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा को कमान देने को तैयार नहीं थी। राहुल गांधी ने उन्हें कब का हाशिये पर पहुंचा दिया था। एक स्थिति तो यह आ गई थी कि हुड्डा अलग दल बनाने को तैयार थे। महाराष्ट्र में भी कांग्रेस हारी हुई लड़ाई लड़ रही थी। भाजपा के हाथ में आरक्षण की उपलब्धि थी। राष्ट्रवाद, पाकिस्तान, तीन तलाक और 370 जैसे मुद्दे थे। नरेंद्र मोदी और क्षेत्रीय नेताओं के चेहरे के बावजूद भाजपा ने राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, गंवाया। गुजरात, हरियाणा और महाराष्ट्र की जीत सरकार बनाने का अवसर तो देती है परन्तु गर्वोक्ति करने का नहीं। मुख्यमंत्री ठीक से काम नहीं कर रहे हैं टिकट देने में नेताओं की अनदेखी की जा रही है, स्थानीय मुद्दों पर तवज्जो नहीं दी जा रही है। क्षेत्रीय मुद्दों पर भाजपा अच्छा काम नहीं कर रही है, खेती पर संकट हो, बेरोजगारी की स्थिति गंभीर हो मंदी चिंताएं बढ़ा रही हो तब राष्ट्रीय मुद्दे नैया पार नहीं कर सकते।
इसे गुजरात, मध्यप्रदेश, छ्त्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावी नतीजों में तो पढ़ा ही जा सकता है। 18 राज्यों के 51 विधानसभा उपचुनावों के नतीजों में भी यही गूंज सुनी जा सकती है। गुजरात में छह सीटों पर हुए उपचुनाव में भाजपा सिर्फ तीन सीटें जीती है। मतलब साफ है कि जिस तरह गुजरात के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बराबर की टक्कर दी थी, किसी तरह भाजपा सरकार बनाने में कामयाब हुई थी, तो विधानसभा चुनाव से उपचुनाव के बीच हालात बदले नहीं हैं। उत्तर प्रदेश की बात करें तो लोकसभा चुनाव में जिस समाजवादी पार्टी को भाजपा ने बहुत पीछे छोड़ दिया था, वही पार्टी मुख्य विपक्ष बनकर उभर गई, भाजपा ने भले ही आठ सीटें जीती हों लेकिन यह साफ हुआ कि भाजपा का मार्ग निष्कंटक नहीं है। क्योंकि चुनाव प्रचार में मायावती और अखिलेश यादव कोई नहीं उतरे, वे पराजित योद्धा की तरह दूर बैठे रणभूमि का दृश्य देखते रहे। मायावती आम तौर पर उपचुनाव लड़ती ही नहीं हैं। पहली बार वह उपचुनाव लड़ी हैं, उनके न लड़ने की स्थिति में उनके वोटरों का ऊंट किस करवट बैठता यह कहना तो मुश्किल है, पर इतना जरूर है कि सत्ता के साथ उसके जाने की अटकलें और अनुमान घर बैठ जाने से कम ही बताए जा सकते हैं।
सपा और बसपा गठजोड़ का मुख्य सूत्रधार सपा थी, नतीजों ने बताया कि मायावती के दलित राजनीति के तौरतरीके अब अप्रासंगिक हो उठे हैं। लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद जिस तरह मायावती ने यह गर्वोक्ति की थी कि पार्टी को संजीवनी मिल गई है। उसे सपा से अधिक सीटें मिलीं इसका सीधा सा मतलब है कि जनता ने उसे सपा से अधिक कबूल किया। उनकी इस गर्वोक्ति की हवा निकल गई चुनावी नतीजे बताते हैं कि भाजपा को अपनी रीत नीति पर विचार करना चाहिए उसे अपने लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करना चाहिए क्योंकि तमाम कमजोरियों के बावजूद विपक्ष अपनी जमीन मजबूत करता दिख रहा है। नतीजों ने कांग्रेस को हौसला भरी उम्मीद दी है। हौसला छोड़ चुकी कांग्रेस की झोली में उम्मीद से ज्यादा सीटें डालकर उसे निराशा से बाहर निकलने का अवसर दिया है। इस अवसर का लाभ उठाने में कांग्रेस कामयाब हुई तो भाजपा को अपनी राज्य सरकारों के कामकाज के तौर तरीके पूरे बदलने होंगे। उसे केंद्र सरकार के नक्शे कदम पर चलना होगा क्योंकि कांग्रेस और विपक्ष केंद्र की मोदी का विजय अभियान रोकने की स्थिति में नहीं हैं। मोदी ने 2014 से बढ़कर 2019 में आंकड़े खड़े किये हैं जबकि उनकी राज्य सरकारें आंकड़ों के इस खेल में लगातार फिसलती जा रही हैं।
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