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मन में दीप जलाएं
मनुष्य की मूल प्रवृत्ति है उत्सव प्रियता। क्योंकि उत्सव हमारे यहां आह्लाद, प्रसन्नता और उमंग लेकर आते हैं। दीपावली रोशनी का त्योहार है। यह अंधकार पर प्रकाश के विजय का प्रतीक है। यह संदेश देता है कि तिल-तिल गलकर, जलकर समाज को प्रकाश दो, आह्लाद दो, अज्ञान, तिमिर दूर करो। कहा गया है- तमसो माॅ ज्योतिर्गमय। अर्थात अंधेरे से प्रकाश, यानि ज्योति की ओर जाइये। यह उपनिषदों की आज्ञा है। दीपावली संस्कृत के दो शब्दों दीप तथा आवली से बना है। आवली का मतलब होता है लाइन या श्रृंखला। जो स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाश देता है उसे दीपक कहते हैं। सुंदर दास का पद है- ज्योति से ज्योति जले। दीपावली पर ज्योति ही ज्योति जलती रहती है। यह आध्यात्मिक अंधकार पर आंतरिक प्रकाश, अज्ञान पर ज्ञान, असत्य पर सत्य और बुराई पर अच्छाई का उत्सव है। पर्व है।
प्रायः यह माना जाता है की चैदह वर्ष के वनवास के बाद लंका पर विजय पाकर लौटे भगवान राम के अयोध्या वापस आने की खुशी में उस समय के लोगों ने अनंत दीप जलाकर भगवान राम के लिए अयोध्या में सहज प्रवेश का प्रकाश दिया था। इसी मिथ के तहत उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ की सरकार भी अयोध्या में दीपावली का भव्य सरकारी उत्सव करती है। भगवान राम ने रावण जैसे कुलीन राक्षस का वध किया था। पर दीपावली की कथा इसके अलावा कई और मिथ और किंवदंतियों से जुड़ती है। जैन धर्म के चैबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी के मोक्ष के रूप में जैनी इस पर्व को मनाते हैं। सिखों के लिए दिवाली इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन 1577 में स्वर्ण मंदिर का शिलान्यास हुआ था। यही नहीं, इसी दिन गुरु गोविंद सिंह को जेल से रिहा किया गया था। नतीजतन, सिख समुदाय इसे बंदी छोड़ दिवस के रूप में भी मनाता है।
दिवाली का जिक्र पद्म पुराण और स्कंद पुराण नामक ग्रंथों में भी मिलता है। माना जाता है पहली सहस्त्राब्दि के दूसरे भाग के किसी केंद्रीय पाठ को विस्तृत करके दीपावली का जिक्र किया गया। स्कंद पुराण में दीपक को सूर्य का प्रतिनिधित्व करने वाला बताया गया है। सूर्य जीवन के लिए प्रकाश और ऊर्जा का लौकिक स्रोत है। सातवीं शताब्दी के संस्कृत नाटक ‘नागनंद‘ में राजा हर्ष ने इसे दीप प्रतिपादुत्सव कहा है। राज शेखर ने अपनी काव्य मीमांसा में इसे दीप मालिका कहा है। फारसी यात्री अलबेरुनी ने भारत में अपनी 11वीं सदी के संस्मरण लिखते समय जिक्र किया है कि कार्तिक माह में दीपावली मनाई जाती है। कुछ लोग दीपावली को बैकुंठ में विष्णु के वापसी के लिए मनाते हैं। कृष्ण भक्तिधारा के लोगों का मत है कि इसी दिन भगवान कृष्ण ने नरकासुर का वध किया था। हालांकि राम और कृष्ण के एक ही कालखंड को लेकर मतवैभिन्य हो सकता है। पर एक दूसरी पौराणिक कथा के हिसाब से इसी दिन विष्णु ने नरसिंह रूप धारण कर हिरण्यकश्यप का वध किया था। सागर मंथन से इसी दिन लक्ष्मी और धनवंतरी निकले थे। कुछ लोग इसे लक्ष्मी के जन्मदिन के रूप में मनाते हैं। पर कुछ लोगों की मान्यता है कि दिवाली की रात ही लक्ष्मी ने अपने पति के रूप में विष्णु का वरण किया था। हिंदू धर्म में मान्यताओं और मिथकों की भरमार है। कहा जाता है कि लक्ष्मी की एक बहन अलक्ष्मी भी है। अलक्ष्मी गरीबी, दुख और दुर्भाग्य की देवी है। जबकि लक्ष्मी सुख, समृद्धि और शक्ति की देवी हैं। वह चंचला हंै। एक कथा के मुताबिक एक व्यापारी से दोनों बहनों ने पूछा कि दोनों में सुंदर कौन है। व्यापारी किसी को नाराज नहीं करना चाहता था। इसलिए उसने उत्तर दिया- लक्ष्मी घर में आते हुए और अलक्ष्मी जाते हुए सुंदर लगती हैं। शायद यही वजह है कि व्यापारियों पर लक्ष्मी की कृपा बरसती रहती है। वैष्णव साहित्य में हलाहल को अलक्ष्मी से जोड़कर देखा गया है। यह भी समुद्र मंथन से निकला था। दीपावली को यम और नचिकेता की कथा से भी जोड़ते हैं। यह भी पहली सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व उपनिषद में दर्ज है। उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में लक्ष्मी की जगह काली की पूजा होती है।
आधुनिक मानव अंधकार के घेरे में है। उससे निकलने के लिए ज्योति ढूंढता है। प्रगति का चक्र प्रति दशक तीव्रतर होता जा रहा है। लेकिन मानव अपने को अकेलापन, एकाकी और स्तब्ध पाता है। अमेरिकी दार्शनिक विलडूरेंट भारत के बारे में कहते हैं कि जिस प्रकार मिस्र, बेविलोनिया या असीरिया को कोई समाप्त कर सकता है भारत का इतिहास उस तरह समाप्त नहीं किया जा सकता। क्योंकि वहां इतिहास अब भी निर्मित हो रहा है। वहां सभ्यता अब भी रची जा रही है। वहां सभ्यता और संस्कृति के वाहक बहुतायत अभी भी हैं। हमारे उत्सव, हमारे पर्व, हमारे कुंभ सरीखे समागम इसी के प्रतीक हैं। हम भौतिक ही नहीं, धार्मिक प्रकाश की खोज में उतना ही जुटे हैं जितना दुनिया की कोई सभ्यता नहीं जुटी है। हम सिर्फ वर्तमान में जीने के आदी नहीं हैं। हम इतिहास, वर्तमान और भविष्य तीनों का समागम बनाकर चलते हैं। आज ही नहीं कल भी हमारे लिए महत्वपूर्ण है। यह प्रेरणा हमारे आदि गंथ वेद, पुराण उपनिषद भी देते हैं। तभी तो दीपावली की एक कथा वनवास के बाद राम के अयोध्या पहुंचने से जोड़ती है तो कई कथाएं दूसरे पौराणिक ग्रंथों से दीपावली का रिश्ता बताती हैं।
ज्योति, प्रकाश, रोशनी, उजाला, द्युति, पथ प्रशस्त करने वाला, आलोक, दृष्टि, किसी चीज के प्रज्जवलित होने से उत्पन्न दीप्ति या चमक, सूर्य, अग्नि, लपट, लौ, नक्षत्र, आत्मा, परमात्मा, चैतन्य और आंख की पुतली के बीच का बिंदु। ये सब ज्योति के पर्याय हैं। इन सबसे मनुष्य अलोकित होता है। ये सब मनुष्य के भौतिक, पराभौतिक और आध्यात्मिक चक्षु खोलते हैं। इन सबसे मनुष्य निपट अंधकार से निकल कर एक ऐसे प्रकाश की ओर जाता है, जहां से उसे ज्ञान, बुद्धि, विवेक ही नहीं, परम तत्व का भी ज्ञान होने लगता है। अंधेरा किसी भी चीज का अहसास नहीं होने देता है। जबकि ज्योति और उसके पर्याय का एक भी अंश अंधेरे को चीर कर चारों ओर एक ऐसा प्रकाश फैला देता है, जिसमें अभेद का भेद पता चल जाता है। ज्योति का रिश्ता भौतिक भी है, आध्यात्मिक भी है। आदि भौतिक भी है, वैज्ञानिक भी है। साहित्यिक भी है। सभी कलाओं से भी ज्योति का करीबी रिश्ता है। दीपावली इसी ज्योति का पर्व है। असत्य पर सत्य की विजय का उत्सव मनाना हो, अंधकार पर प्रकाश की विजय दर्ज करानी हो तो इस पर्व को जीना ही होगा। दीया-बाती जलानी होगी। अभी तक दीया के जलने की बात कही जाती है। पर कठोर सच्चाई यह है कि जलती बाती है। ज्योति के फैलने और फैलाने का हक केवल दीपक ही नहीं बाती के हिस्से क्यों नहीं आती इस दीपावली पर इस सवाल का जवाब तलाशना होगा। हालांकि इसे हमने वायु और ध्वनि प्रदूषण के साथ ही साथ बाजार का उत्सव बना दिया है। इसीलिए हम बाहर तो प्रकाशित हो ले रहे है, भीतर तक प्रकाश का पहुंचना थम सा गया है।
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