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क्यों बढ़ते हैं भारत में Petrol-Diesel के दाम, ये रहा कारण

भारत में पेट्रोल-ड़ीजल औऱ रसोई गैस के कीमतें बढ़ने के कारण आमजनमानस पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है लेकिन मौजूदा सरकार ने पेट्रोल-डीजल व रसोई गैस की कीमतों के रेगुलेट करने का कोई भी उपाय अभी तक नहीं खोज पाई है जिसका खामियाजा लोगो को रोजाना भुगतना पड़ रहा है। कोरोनाकाल में आमदनी कम होने तथा बहुतों की नौकरी चली गई है जिससे लोगों ऐसे ही परेशान है वहीं रसोई गैस और पेट्रोल- डीजल की आसमान छूती कीमतों ने तो और आग में घी डालने का काम किया है।

Deepak Raj
Published By Deepak Raj
Published on: 2 July 2021 10:16 AM GMT
क्यों बढ़ते हैं भारत में Petrol-Diesel  के दाम, ये रहा कारण
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लखनऊ न्यूज। भारत में पेट्रोल-ड़ीजल औऱ रसोई गैस के कीमतें बढ़ने के कारण आमजनमानस पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है लेकिन मौजूदा सरकार ने पेट्रोल-डीजल व रसोई गैस की कीमतों के रेगुलेट करने का कोई भी उपाय अभी तक नहीं खोज पाई है जिसका खामियाजा लोगो को रोजाना भुगतना पड़ रहा है। कोरोनाकाल में आमदनी कम होने तथा बहुतों की नौकरी चली गई है जिससे लोगों ऐसे ही परेशान है वहीं रसोई गैस और पेट्रोल- डीजल की आसमान छूती कीमतों ने तो और आग में घी डालने का काम किया है। अतः सरकार को ये चाहिए की इसका जल्द से जल्द कोई वैकल्पिक व्यवस्था की खोज करे जिससे लोगों को राहत मिल सके।


आपको बता दें की पिछले कुछ हफ्तों में भारत के कई शहरों में पेट्रोल के दाम 100 रुपए प्रति लीटर के पार हो गए, जिससे महंगाई बढ़ रही है और घर-परिवार के बजट पर दबाव पड़ रहा है। हालांकि पेट्रोल और डीजल की बढ़ती कीमतों का एक कारण तेल के बढ़ते अंतरराष्ट्रीय दामों को बताया जा सकता है, लेकिन तेल उत्पादों पर टैक्स की ऊंची दरें भी इसमें एक बड़ी भूमिका निभाती हैं। मार्च और अप्रैल के चुनावी महीनों में, तेल की कीमतों में वृद्धि पर रोक भी एक अन्य कारक है।


मोदी सरकार अभी तक पेट्रोलियम उत्पाद पर टैक्स कम करने से बची है


नरेंद्र मोदी सरकार अभी तक पेट्रोलियम उत्पाद पर टैक्स कम करने से बची है, इसके बावजूद कि भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर की अध्यक्षता में मौद्रिक नीति समिति (MPC) केंद्र और राज्यों को इन करों में कमी करने के लिए ठेल रही है, ताकि अर्थव्यवस्था पर महंगाई का दबाव कम हो सके। भारत में तेल की घरेलू मांग मुख्य रूप से आयातों से पूरी होती है। पिछले छह महीनों में कच्चे तेल की कीमतें तेज़ी से बढ़ी हैं, लेकिन पेट्रोल के ऊंचे बिक्री मूल्यों के पीछे एक प्रमुख कारण स्थानीय करों की ऊंची दरें हैं।


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केंद्र सरकार तेल पर उत्पाद शुल्क और सेस लगाती है और राज्य वैल्यू एडेड टैक्स (VAT) लगाते हैं। वर्तमान में, कुल टैक्स पेट्रोल की खुदरी बिक्री क़ीमतों का 58 प्रतिशत और डीज़ल की की खुदरी बिक्री क़ीमतों का लगभग 52 प्रतिशत होते हैं। इसका मतलब है कि अगर पेट्रोल के दाम 100 रुपए प्रति लीटर हैं, तो उसमें मोदी सरकार और राज्य सरकारों द्वारा, 58 रुपए के टैक्स लगाए जाते हैं। इसमें, केंद्र सरकार का उत्पाद शुल्क क़रीब 32-33 रुपए है और बाक़ी वैट है जो राज्यों द्वारा लगाया जाता है।

पिछली बार जब तेल की कीमतों में उछाल आया था, तो वो 2010-11 और 2013-14 के बीच संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA govt) सरकार के कार्यकाल के दौरान था। लेकिन उस समय, ये उछाल मुख्य रूप से कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय दामों में तेज़ी से हुई वृद्धि से आई थी, जो रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गए थे। उन वर्षों में इंडियन बास्केट के दाम 100 डॉलर के पार निकल गए थे। लेकिन, तब भी भारतीय शहरों में पेट्रोल की खुदरी कीमतें, 90 रुपए प्रति लीटर से नीचे ही रहीं थीं, क्योंकि उस समय टैक्स दरें नीची थीं। उस अवधि में उत्पाद शुल्क केवल 10 रुपए प्रति लीटर था।

2014 से मोदी सरकार ने उत्पाद शुल्क बढ़ाना शुरू कर दिया था

2014-15 की शुरुआत में, जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमतें गिरनी शुरू हुईं, तो नवंबर 2014 से मोदी सरकार ने, उत्पाद शुल्क बढ़ाना शुरू कर दिया। इसका मतलब था कि तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में गिरावट का फायदा उपभोक्ताओं को नहीं दिया गया। बढ़ती अंतरराष्ट्रीय कीमतों के बीच भी, मोदी सरकार और राज्यों ने टैक्स दरों में कटौती करने की इच्छा नहीं दिखाई है, क्योंकि ये टैक्स उनके लिए राजस्व का एक बड़ा साधन हैं। पिछले कुछ महीनों से दोनों पक्ष, तेल पर लगे टैक्स को कम करने का ज़िम्मा, एक-दूसरे पर डालते आ रहे हैं, और किसी ने भी करों में कटौती की पहल नहीं की है।

मोदी सरकार ने 2020-21 में, 3.89 लाख करोड़ रुपए उत्पाद शुल्क के रूप में एकत्र किए थे, जो 2019-20 में एकत्र किए गए, 2.39 लाख करोड़ रुपए से 62 प्रतिशत अधिक था। अनुमान है कि इस रक़म का एक बड़ा हिस्सा, पेट्रोल पर लगे टैक्स और सेस से आता है। कर संग्रह में ये वृद्धि इसके बावजूद हुई कि 2020-21 में कोविड-19 महामारी के कारण आने-जाने पर लगी पाबंदियों के चलते, पेट्रोलियम खपत 9 प्रतिशत सिकुड़ गई थी। इसके पीछे का कारण मई 2020 में पेट्रोलियम उत्पादों पर लगाए गए करों में तेज़ी से किया गया इज़ाफा था।


उस समय, मोदी सरकार ने पेट्रोल की क़ीमतों में 10 रुपए और डीज़ल में 13 रुपए का इज़ाफा कर दिया। इस तेज़ वृद्धि से 2 महीने पहले ही सरकार ने पेट्रोल और डीज़ल पर उत्पाद शुल्क 3 रुपए बढ़ा दिया था। आमतौर पर, पेट्रोल और डीज़ल पर उत्पाद शुल्क में हर एक रुपए की वृद्धि से सरकारी ख़ज़ाने को 13,000-14,000 करोड़ रुपए अतिरिक्त मिलते हैं। लेकिन, कोविड के कारण खपत में आई कमी से, ये फायदा इससे कुछ कम हो सकता है।


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राज्यों के साथ भी यही कहानी है। अपनी आय बढ़ाने के लिए ज़्यादातर राज्यों ने 2020-21 में पेट्रोल और डीज़ल पर वैट बढ़ा दिया था, क्योंकि आर्थिक गतिविधियों में आई मंदी से आय के दूसरे स्रोतों पर विपरीत प्रभाव पड़ा था। राज्यों की कर से होने वाली आय का 25-30 प्रतिशत, पेट्रोलियम और शराब पर लगे उत्पाद शुल्क से आता है, और यही एक मुख्य कारण है कि राज्य, पेट्रोलियम उत्पादों को वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के दायरे में लाने का विरोध करते रहे हैं।


पेट्रोलियम मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, राज्यों ने पेट्रोलियम पदार्थों पर लगाए गए वैट से 2019-20 में 2 लाख करोड़ रुपए जमा किए थे, जबकि 2020-21 में अप्रैल से दिसंबर के बीच, 1।35 लाख करोड़ वसूल किए थे।जून 2017 के शुरू में, भारत ने पेट्रोलियम और डीज़ल के लिए प्रशासित मूल्य निर्धारण तंत्र को समाप्त कर दिया। इसका मतलब था कि पेट्रोलियम कंपनियां, तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों के उतार-चढ़ाव के अनुसार, हर रोज़ अपने तेल के दाम बदलने के लिए स्वतंत्र थीं।


भारत के क्रूड बास्केट के औसत दाम, फरवरी के मुक़ाबले मार्च में 3.5 डॉलर बढ़ गए

पेट्रोलियम कंपनियां इन क़ीमतों को चुनाव जैसे मौक़ों के दौरान भी, हर रोज़ बदल सकती हैं। लेकिन फिर भी, तेल कंपनियों ने एक बार भी मार्च और अप्रैल के महीनों में क़ीमतें नहीं बढ़ाईं, जब चार राज्यों और एक केंद्र-शासित क्षेत्र में विधानसभा चुनाव हो रहे थे।केयर रेटिंग्स द्वारा एकत्र डेटा के अनुसार, फरवरी में 16 पैसे के इज़ाफे के बाद तेल कंपनियों ने वास्तव में मार्च में तीन बार, और अप्रैल में एक बार तेल क़ीमतों में कमी की। भारत के क्रूड बास्केट के औसत दाम, फरवरी के मुक़ाबले मार्च में 3.5 डॉलर बढ़ गए थे, जिसके बाद अप्रैल में उनमें 1.3 डॉलर की गिरावट आई।

मई में, तेल कंपनियों ने क़ीमतों में 16 बार इज़ाफा किया, जबकि अप्रैल के मुक़ाबले कच्चे तेल की क़ीमतों में, सिर्फ 3।5 डॉलर की वृद्धि हुई थी। ये इस बात को दर्शाता था कि वो उन 2 महीनों की भरपाई कर रहीं थीं, जब तेल की घरेलू दरें अंतरराष्ट्रीय कीमतों को, सही से प्रतिबिंत नहीं कर रहीं थीं। भारत जैसे बाज़ार में, चुनावों के दौरान तेल कीमतों का न बढ़ना कोई आश्चर्य नहीं है, जहां सरकारी स्वामित्व की तेल कंपनियों की, बाज़ार में 90 प्रतिशत से अधिक हिस्सेदारी है।

महंगाई पर असर


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तेल क़ीमतों में बढ़ोत्तरी ने भारत में महंगाई पर दबाव और बढ़ा दिया है, जो मई में 6 प्रतिशत के पार हो गई।इसी महीने एमपीसी ने भी, इस ओर ध्यान आकर्षित किया था कि तेल की ऊंची क़ीमतों से कुल इनपुट लागत भी बढ़ जाएगी। उसने केंद्र तथा राज्यों की सरकारों से आग्रह किया था कि पेट्रोल और डीज़ल पर करों में समन्वित ढंग से कटौती की जाए। भारत में, मई में तेल महंगाई 11.6 प्रतिशत थी, जबकि अप्रैल में ये 7.9 प्रतिशत और मार्च में 4.5 प्रतिशत थी। ये चिंता भी जताई जा रही है कि तेल क़ीमतों में वृद्धि का विवेकाधीन ख़र्चों पर विपरीत असर पड़ सकता है, क्योंकि ऊंची तेल कीमतों को समायोजित करने के लिए घर परिवार इन ख़र्चों में कटौती कर देते हैं।


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