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Corona Made Debtor : कोरोना ने धकेल दिया कर्ज के दलदल में, सालाना आमदनी से ज्यादा खर्च बीमारी के इलाज पर

Corona Made Debtor : माध्यम वर्ग के बहुत से लोग महामारी के दौर में ऑनलाइन मदद मांगने को मजबूर हुए हैं। बहुत सी ऐसी वेबसाइट्स हैं जो क्राउडफंडिंग में मदद करती हैं।

Neel Mani Lal
Written By Neel Mani LalPublished By Shivani
Published on: 26 July 2021 9:39 AM GMT
Corona Made Debtor
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कोरोना पर मेडिकल टीम सलाह देते 

Corona Made Debtor: कोरोना महामारी के चलते आम आदमी की कमर ही टूट गयी है। बेरोजगारी (Unemployment) और पैसे की किल्लत के बीच यदि कोई कोरोना से संक्रमित हो गया और अस्पताल में भर्ती होने की नौबत आ गयी तो फिर ऐसे लोग अपना सब कुछ बेचने को मजबूर हो सकते हैं। जो बात एक तथ्य है उसे एक नए अध्ययन ने अपनी मुहर लगा दी है। इस अध्ययन में पाया गया है कि भारत में कोरोना के इलाज (Coronavirus Treatment Cost) पर हुआ औसत खर्च आम आदमी की सालाना आय से परे है।

मेडिकल खर्चों का 63 फीसदी बोझा उठाते हैं भारतीय

ये तो पहले से ही बताया जाता रहा है कि भारतीय लोग अपने मेडिकल खर्चों का 63 फीसदी बोझा अपनी जेब से ही उठाते हैं। अनुमान है कि कोरोना के चलते करीब सवा करोड़ लोग बेरोजगार हो चुके हैं, 3 करोड़ 20 लाख लोग मिडिल क्लास से खिसक कर नीचे चले गए हैं। मार्च में प्यू रिसर्च सेंटर ने एक स्टडी में बताया था कि कोरोना काल में भारत में गरीबों की संख्या साढ़े सात करोड़ बढ़ गयी है। ऐसे में ये लोग कैसे अपना और अपने परिवार का मेडिकल खर्चा कैसे उठाएंगे ये बहुत बड़ा सवाल है।


माध्यम वर्ग के बहुत से लोग महामारी के दौर में ऑनलाइन मदद मांगने को मजबूर हुए हैं। बहुत सी ऐसी वेबसाइट्स हैं जो क्राउडफंडिंग में मदद करती हैं। इन साइट्स पर जा कर लोग अपनी परेशानियों का बयान करते हैं और मदद की गुहार लगाते हैं। भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर देश की जीडीपी का मात्र 1.6 फीसदी खर्च किया जाता है। इस मामले में भारत का स्थान लाओस और इथियोपिया जैसे देशों के साथ है।

औसत भारतीय परिवार ने अस्पताल पर 64,000 रुपए खर्च किए

पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया और ड्यूक ग्लोबल हेल्थ इंस्टिट्यूट के एक अध्ययन में सामने आया है कि अप्रैल 2020 से जून 2021 के बीच एक औसत भारतीय परिवार ने जांच और अस्पताल के खर्च पर कम से कम 64,000 रुपए खर्च किए। अध्ययन के लिए दामों के सरकार द्वारा तय सीमा को आधार बनाया गया है।

भारत में एक औसत वेतन-भोगी, स्वरोजगार वाले या अनियमित कामगार के लिए कोरोना आईसीयू का खर्च कम से कम उसके सात महीने की कमाई के बराबर पाया गया। अनियमित कामगारों पर यह बोझ 15 महीनों की कमाई के बराबर है। आईसीयू में भर्ती कराने के खर्च को 86 प्रतिशत अनियमित कामगारों, 50 प्रतिशत वेतन भोगियों और स्वरोजगार करने वालों में से दो-तिहाई लोगों की सालाना आय से ज्यादा पाया गया। इसका मतलब एक बड़ी आबादी के लिए इस खर्च को उठाना मुमकिन ही नहीं है। ऐसे लोग सिर्फ सरकारी अस्पतालों के ही भरोसे हैं। इनके लिए प्राइवेट अस्पताल के आईसीयू पहुँच से बहुत दूर हैं।


सिर्फ अस्पताल में आइसोलेशन की कीमत को 43 प्रतिशत अनियमित कामगार, 25 प्रतिशत स्वरोजगार वालों और 15 प्रतिशत वेतन भोगियों की सालाना कमाई से ज्यादा पाया गया। अध्ययन में कोविड की वजह से आईसीयू में रहने की औसत अवधि 10 दिन और घर पर आइसोलेट करने की अवधि को सात दिन माना गया था।

कोरोना टेस्ट की कीमत

निजी क्षेत्र में एक आरटीपीसीआर टेस्ट की अनुमानित कीमत, यानी 2,200 रुपए, एक अनियमित कामगार के एक हफ्ते की कमाई के बराबर पाई गई। अमूमन अगर कोई संक्रमित हो गया तो एक से ज्यादा बार टेस्ट की जरूरत पड़ती है। साथ ही परिवार में सबको जांच करवानी होगी, जिससे परिवार पर बोझ बढ़ेगा। शायद यही वजह है कि लोग सरकारी मुफ्त टेस्टिंग के इन्तजार में बैठे रहते हैं और बीमारी का पता चलने में बहुमूल्य समय निकल जाता है।

न्यूनतम खर्च

इस अध्ययन में कहा गया कि इन अनुमानित आंकड़ों को कम से कम खर्च मान कर चलना चाहिए, क्योंकि सरकारी दरों में कई अपवाद हैं और इनमें से अधिकतर का पालन भी नहीं किया जाता। इनमें यातायात, अंतिम संस्कार आदि पर होने वाले खर्च को भी नहीं जोड़ा गया है। अध्ययन में यह भी कहा गया कि ऑक्सीजन और आवश्यक दवाओं की कालाबाजारी और हालात का फायदा उठाने की प्रवृत्ति ने मरीजों पर काफी चोट की होगी। जो मरीज हलके लक्षण वाले थे और जिनको अस्पताल जाने की नौबत नहीं आयी उनका खर्चा भी भारी भरकम रहा है। जिन परिवारों में एक से ज्यादा सदस्य या सभी बीमार पड़ गए, उनकी हालात सहज सोची जा सकती है।

बचत खा गया कोरोना

ऐसे में अगर आपके पास हेल्थ इंश्योेरेंस पॉलिसी है तो राहत एक तय लिमिट तक ही है। ऐसा इसलिए क्यों कि हेल्थ पॉलिसी में कुछ खर्च को नहीं शामिल किया जाता है। कोरोना के इलाज को लेकर अस्पताल और इंश्योरेंस कंपनियों के बीच विवाद अब पॉलिसी होल्डर्स को नुकसान पहुंचा रहा है। इंडस्ट्री अनुमान के मुताबिक, देशभर में पॉलिसी होल्डर्स को कोरोना बीमारी के इलाज के दौरान अस्पताल में भर्ती पर होने वाले कुल खर्च का 50-55 फीसदी रकम ही क्लेेम में मिल रही है।


कोरोना महामारी ने अस्पतालों में सफाई और सैनिटेशन की जरूरत को बढ़ा दिया है। लेकिन इसका खर्च भी मरीजों पर ही डाला जा रहा है। वैसे, इंश्योरेंस कंपनियों का कहना है कि इस तरह के खर्च के लिए अलग से बिल नहीं बनाना चाहिए। अस्पतालों में मरीजों को हाउसकीपिंग, एयर कंडीशनिंग, डेली चार्ट्स और इन्फेक्शन कंट्रोल को रूम चार्ज में ही शामिल किया जाना चाहिए। अगर इन खर्चों का बिल अलग से बनाया जाता है तो इंश्योसरेंस कंपनियां इनका क्लेेम नहीं रिफंड करती हैं।

अधिकतर इंश्योरेंस कंपनियां पॉलिसी क्लेम के दौरान कुछ न कुछ खर्चों को बोझ नहीं उठा रही हैं। ये वो खर्च हैं, जिसके बारे में इश्योरेंस कंपनियों ने पहले ही साफ कर दिया था कि वे पॉलिसी क्लेम में ऐसे खर्च को शामिल नहीं करती हैं।

कुल मिला कर एक ही बात है कि कोरोना से बीमार पड़ना बहुत महँगा पड़ सकता है सो कोशिश यही करनी चाहिए कि कोरोना संक्रमण की चपेट में ही न आया जाए। इसके लिए जो भी एहतियात बरतना पड़े वो करने चाहिए।

Shivani

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