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भारत में अनोखा ट्रेंड-डिमांड घट रही और महंगाई बढ़ रही
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) के आंकड़ों के अनुसार, सितम्बर में लॉकडाउन को ढीला किये जाने के साथ साथ देश के लेबर मार्केट में एक असामान्य ट्रेंड देखा गया।
नई दिल्ली: लॉकडाउन की बंदिशें ढीली पड़ने के साथ देश में आर्थिक गतिविधियाँ रफ़्तार पकड़ रहीं हैं लेकिन आर्थिक रिकवरी से कई विरोधाभासी चीजें निकल कर आईं हैं- रोजगार बढ़ा है लेकिन काम करने वालों की संख्या घटी है, मांग में कमी है लेकिन महंगाई बढ़ती जा रही है, भविष्य के अनुमान सकारात्मक दिखाए जा रहे हैं लेकिन घरों में स्थितियां बिगड़ती जा रहीं हैं। दुनिया में कहीं और ऐसा नहीं देखा गया है।
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सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) के आंकड़ों के अनुसार, सितम्बर में लॉकडाउन को ढीला किये जाने के साथ साथ देश के लेबर मार्केट में एक असामान्य ट्रेंड देखा गया। वो यह कि एक ओर बहुत से लोगों को काम मिल गया लेकिन जिन लोगों को काम नहीं मिला वे लेबर मार्केट छोड़ कर चले गए। सामान्यतः जब ज्यादा लोगों को काम मिलता है तो बड़ी संख्या और और लोग काम की तलाश में आने लगते हैं। लेकिन इस बार उलटा ही हुआ।
ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार
अगर ग्रामीण और शहरी डेटा को अलग अलग करके देखें तो इस ट्रेंड की सच्चाई सामने आती है। आंकड़े बताते हैं कि ग्रामीण भारत में रोजगार बढ़ रहा है लेकिन शहरी भारत में ये ढलान पर है। यानी रोजगार के क्षेत्र में रिकवरी तो हो रही है लेकिन इसकी क्वालिटी में समस्या है। शहरी क्षेत्रों में बेहतर क्वालिटी के और बढ़िया पैसा देने वाले काम खत्म हो रहे हैं जबकि कम पैसे वाले ग्रामीण रोजगार बढ़ रहे हैं। एक तथ्य ये भी है प्रवासी मजदूर शहरों को लौट तो रहे हैं लेकिन ये वापसी उतनी नहीं है जितनी होनी चाहिए थी।
सीएमआईई के अनुसार सितम्बर में कुल रोजगार 51 लाख बढ़ा और ये 39 करोड़ 25 लाख से बढ़ कर 39 करोड़ 76 लाख पहुँच गया, बेरोजगारी 3 करोड़ 57 लाख से घट कर 2 करोड़ 84 लाख पर आ गयी। इससे पता चलता है कि जहाँ बेरोजगार लोगों को काम मिल गया वहीं बाकी लोग बाजार से बाहर चले गए। नतीजा ये हुआ कि लेबर फ़ोर्स 22 लाख कम हो गयी। अगस्त में इसका आंकड़ा 42 करोड़ 83 लाख का था जो सितम्बर में 42 करोड़ 60 लाख हो गया।
आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है
आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि ग्रामीण भारत में रोजगार 74 लाख बढ़ा और बेरोजगारी 50 लाख से ज्यादा घट गया। ये बताता है कि फसल कटाई के बाद आर्थिक गतिविधि में बढ़ोतरी हुई है। दूसरी ओर शहरी भारत में रोजगार 23 लाख घट गया। नतीजतन शहरों और कस्बों में लेबर फ़ोर्स 46 लाख घट गयी। अप्रैल के बाद से ये सर्वाधिक मासिक गिरावट (3.3 फीसदी) रही है।
सीएमआईई के सर्वे बताते हैं
सीएमआईई के सर्वे बताते हैं कि रोजगार के क्षेत्र में सबसे ज्यादा कमी बेहतर क्वालिटी के कामों में आई है। बेहतर क्वालिटी वाले काम से मतलब है रेगुलर वेतन वाले काम क्योंकि इनके साथ बेहतर सेवा शर्तें जुड़ी होती हैं और जिन घरों में लोग वेतन भोगी होते हैं वहां रहन सहन का स्तर तुलनात्मक रूप से अच्छा होता है। ऐसे परिवारों में लोन लेने और उसे वापस करने की अच्छी स्थिति होती है जो उपभोग और आर्थिक रिकवरी प्रोसेस पर पॉजिटिव प्रभाव डालती है।
economy (Photo by social media)
मांग घटी महंगाई बड़ी
महामारी ने कई अन्य आर्थिक विरोधाभास भी उत्पन्न किये हैं। मिसाल के तौर पर विश्व भर में ये अनुमान लगाया गया कि महामारी के कारण डिमांड पर लगे जबरदस्त झटके से सप्लाई - डिमांड का बैलेंस बहुत गड़बड़ा जाएगा और इससे मुद्रास्फीति पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। लेकिन भारत में इसका उलटा हुआ है।
भारत में कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स जून के 6 फीसदी से बढ़ कर 7 फीसदी हो गया और तीन महीनों से बढ़ता ही गया है। इस उछाल को थोड़ा-बहुत खाने पीने की चीजों के दामों ने रफ़्तार दी हुई है। लेकिन खाने पीने और ईंधन के इतर अन्य वस्तुओं के दामों में बढ़ोतरी से बहुत असमान्य संकेत निकल कर आये हैं। जब जीडीपी में रिकार्ड गिरावट का अंदेशा है ऐसे वक्त में कोर मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी हैरान करने वाली है।
बाकी दुनिया में मुद्रास्फीति घट रही
महामारी के दौर में बाकी दुनिया में मुद्रास्फीति घटने यानी दाम गिरने का ट्रेंड देखा जा रहा है लेकिन भारत एक अपवाद बना हुआ है। दिखने को तो खाद्य पदार्थों के दामों, खासकर सब्जियों, में बढ़ोतरी से महंगाई को रफ़्तार मिली है। इसके अलावा पेट्रोल-डीजल के दामों में वृद्धि का भी असर रहा है। लेकिन मार्च के बाद से जिस तरह डिमांड ध्वस्त हुई उसका असर कोर इन्फ्लेशन (खाद्य पदार्थों और ईंधन के अलावा बाकी चीजों के दाम) में गिरावट के रूप में सामने आना चाहिए था। लेकिन हुआ इसका उलटा ही। दुनिया में कहीं और ऐसा नहीं देखा गया है।
सप्लाई चेन का छिन्न भिन्न होना
महंगाई के संभावित कारणों के बारे में अर्थशास्त्रियों का कहना है कि मार्च के बाद से सप्लाई चेन जिस तरह छिन्न भिन्न हो गयी ये उसका असर है। राष्ट्रीय लॉक डाउन खुलने के बाद भी स्थानीय लॉक डाउन जारी रहे जिसके वजह से देश भर में सप्लाई बाधित ही रही और सप्लाई चेन टूटने से दाम बढ़ने लगे। इसके अलावा अनिश्चितता की स्थिति के चलते सप्लाई चेन रोक भी गयी जिसका भी असर रहा है।
निराशाजनक स्थिति
रिज़र्व बैंक का कंज्यूमर कॉन्फिडेंस सर्वे बताता है कि परिवारों की स्थिति लगातार बदतर होती जा रही है लेकिन ये सर्वे भविष्य के बेहतर अनुमान लगा रहा है। लेकिन जिस तरह जून के बाद के सर्वे लगातार गिरावट ही बता रहे हैं उससे साफ़ है कि लोगों में अर्थव्यवस्था और रोजगार के प्रति बहुत निराशावादी नजरिया है। रिज़र्व बैंक के सर्वे में निकलकर आया है कि बीते महीनों में लोगों ने सभी तरह के खर्चे घटा दिए हैं। आरबीआई का ‘करेंट सिचुएशन इंडेक्स’ लोगों की आर्थिक स्थिति को बताता है। इस इंडेक्स का स्कोर मई में 63.7, जुलाई में 53.8 और सितम्बर में 49.9. रहा है।
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विश्व बैंक ने कहा है कि चालू वित्त वर्ष में भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 9.6 प्रतिशत की गिरावट आ सकती है। भारत की आर्थिक स्थिति इससे पहले के किसी भी समय की तुलना में काफी खराब है। बैंक ने कहा है कि कोरोनावायरस महामारी के कारण कंपनियों व लोगों को आर्थिक झटके लगे हैं, साथ ही महामारी के प्रसार को थामने के लिये देश भर में लगाये गये लॉकडाउन का भी प्रतिकूल असर पड़ा है।
हालांकि रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि 2021 में आर्थिक वृद्धि दर वापसी कर सकती है और 4.5 प्रतिशत रह सकती है। विश्व बैंक ने कहा कि आबादी में वृद्धि के हिसाब से देखें तो प्रति व्यक्ति आय 2019 के अनुमान से छह प्रतिशत नीचे रह सकती है। इससे संकेत मिलता है कि 2021 में आर्थिक वृद्धि दर भले ही सकारात्मक हो जाये, लेकिन उससे चालू वित्त वर्ष में हुए नुकसान की भरपाई नहीं हो सकेगी।
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