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साख बनी राख

Dr. Yogesh mishr
Published on: 31 Oct 2018 6:47 PM IST
कश्मीर से कन्याकुमारी तक किसी भी नाइंसाफी में इंसाफ की उम्मीद में भरोसे का नाम रही सीबीआई में दीपावली से पहले जो पटाखे फूटे उससे यह तो साफ हो गया कि लाल बहादुर शास्त्री ने जिस भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए इसका गठन किया था, आज उसी भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी है। विशेष निदेशक राकेश अस्थान, निदेशक आलोक वर्मा पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे हों। दोनों एक-दूसरे के खिलाफ भ्रष्टाचार के कारनामों की फेहरिश्त तैयार कर रहे हों। तीसरे नंबर के अफसर एके शर्मा सीबीआई को चलाने का दम भर रहे हों। अफसरों के बीच वैमनस्व इस हद तक सतह पर आ जाए कि सत्तारूढ़ दल निदेशक पर विपक्ष के हाथों खेलने का आरोप मढ़ने लगे। पूर्व निदेशक रंजीत सिन्हा पर चार्जशीट दाखिल करने की तैयारी पूरी हो चुकी हो। पूर्व निदेशक एपी सिंह के खिलाफ चार्जशीट दाखिल हो चुकी हो। सरकार को रातोरात सीबीआई अफसरों को सीवीसी के मार्फत लंबी छुट्टी पर भेजना, फिर देर रात इस आदेश को पलटना पड़ा हो। विशेष निदेशक हाईकोर्ट की शरण लेते हों और निदेशक को सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाना पड़ा हो। सर्वोच्च अदालत को सेवानिवृत जज एके पटनायक की निगरनी में पूरे मामले की सीवीसी की जांच दो सप्ताह में पेश करने का आदेश देना। ये दृश्य यह बताते हैं कि इंसाफ की उम्मीद में भरोसे का नाम बने सीबीआई के पास अब कुछ भी नहीं बचा है। वह भी जिला पुलिस की तरह हरकत करने लगी है। तभी तो अंतरिम निदेशक बनाए गये नागेश्वर राव और उनकी पत्नी मनेम संध्या तथा चचेरे भाई रत्ना बाबू पर भी आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले के पेडापलाकालुरू गांव जमीन खरीदने के मामले में कोलकाता की कंपनी एएमपीएल से 25 लाख रुपये लेने और 2012-14 के बीच 1.14 करोड़ रुपये कर्ज देने के दस्तावेज रजिस्ट्रार आॅफ कंपनीज के हाथ लगे हैं। कहा जाता है यह एक शेल कंपनी है।
साफ है कि सीबीआई की कमान संभालने के लिए लाल बहादुर शास्त्री की नियत वाला कोई अफसर है ही नहीं? सीबीआई में चल रहे भ्रष्टाचार का यह गुब्बारा भले ही आज फूटा हो पर एक साल से अफसरों की आंतरिक लड़ाई सीबीआई में ही नहीं उसके बाहर भी सतह पर है। पता नहीं क्यों और कैसे देश की खुफिया एजेंसी ने प्रधानमंत्री को इस लड़ाई की सूचना नहीं भेजी या फिर उनके पास यह सूचना क्यों नहीं थी? 2006 से 2016 के बीच सीबाीआई ने औसतन हर साल तकरीबन छह सौ मामले की जांच की। इसमें 10 फीसदी मामले बिना किसी जांच व निष्कर्ष के बंद हो गये। 2017 तक सीबीआई में 1174 केस लम्बित थे। इनमें 35 केस पांच साल से पुराने, छह केस दस साल से पुराने और दो मामले 15 साल से भी पुराने हैं। बडे़ आपराधिक मामलों में सीबीआई का सक्सेस रेट 3.96 फीसदी है। भ्रष्टाचार के 32 फीसदी मामलों में सीबीआई फेल हो जाती है। 2017 में 534 केस में 755 आरोपी बरी हो चुके हैं। 184 मामले देश की अलग-अलग अदालतों में खारिज किये जा चुके हैं।
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ललित मोदी, नीरव मोदी, मेहुल चैकसी, विजय माल्या का देश छोड़कर चला जाना यह बताता है कि सीबीआई में सांठगांठ कितनी चल सकती है। सीबीआई के संयुक्त निदेशक रहे बीआर लाल ने अपनी किताब ‘‘हू ओंस सीबीआईः ए नेकेड ट्रूथ‘‘ और पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह की किताब ‘‘इनसाइड सीबीआई‘‘ कोई पढ़ ले तो इस जांच एजेंसी से उसका भरोसा उठ ही जाएगा। बीआर लाल ने लिखा है- ‘‘जैन ने जब तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव का नाम लिया तो कोशिश हुई कि बयान का यह हिस्सा रिकाॅर्ड न हो। झारखंड मुक्ति मोर्चा में सीबीआई निदेशक ने केस देख रहे अरुण सिन्हा से सिर्फ इसलिए मामला वापस ले लिया। क्योंकि वह निदेशक की मानने को तैयार नहीं थे। 1998 में अटल विहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान सरकार को विश्वास में लिए बिना धीरुभाई अंबानी के ठिकानों पर छापेमारी करने पर तत्कालीन कार्यवाहक निदेशक त्रिनाथ मिश्र को हटा दिया गया था। लखूभाई पाठक केस में भी नरसिम्हा राव का नाम आया था लेकिन कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी नतीजतन, मामला दर्ज नहीं हुआ। इंडियन बैंक घोटाले में बैंक चेयरमैन गोपाल कृष्णन को सेवा विस्तार न देने के सीबीआई की सुस्तुति के बावजूद वित्त मंत्रालय ने सेवा विस्तार दे दिया। चारा घोटाले में निदेशक ने संयुक्त निदेशक यूएन विश्वास की रिपोर्ट बदलवा कर लालू प्रसाद यादव का नाम ही हटवा दिया था। हाल-फिलहाल टू जी में पर्याप्त सबूत नहीं दे पाने के चलते भी सीबीआई के कम भद नहीं हुई। सर्वोच्च अदालत ने सीबीआई को पिंजड़े में बंद तोता कहा था। परमाणु करार पर बहुमत जुटाने, नरसिम्हा राव का अल्पमत की सरकार चलवाने का सेहरा भी सीबीआई के माथे बनता है। बीते दिनों बिहार विधानसभा चुनाव में गठबंधन से समाजवादी पार्टी के बाहर होने का कुशल काम सीबीआई के नाम ही गया। आरुषि कांड के नतीजे, व्यापमं घोटाला और एनआरएचएम घोटाले तथा खनन, लोक सेवा आयोग के मामलों की जांच कब किस बड़े नेता तक पहुंचेगी ये अंदेशे सीबीआई के कारनामों के नाते प्रायः सुने जाने हैं। इन सबके बीच यह देखना महत्वपूर्ण हो जाता है कि आखिर मोईन कुरैशी कौन है? क्योंकि सीबीआई की इस हलचल में भी कुरैशी मौजूद हैं।
मूलतः कानपुर निवासी कुरैशी ने 1993 में रामपुर में एक छोटा स्लाटर हाउस डालकर मांस के व्यापार की शुरुआत की। आज वह मीट को बड़ा कारोबारी है। उसका व्यापार कई देशों तक फैला है। अपनी बेटी पर्निया की शादी में पाकिस्तानी गायक राहत फतेह अली को बुलाने की वजह से कुरैशी की चर्चा तब और जोर पकड़ ली जब इस सूफी गायक को एयरपोर्ट पर 56 लाख रुपये ले जाने के आरोप में पकड़ा गया। मामला रफा-दफा कर दिया गया। 1995 में उसने शराब व्यापारी पोंटी चढ्ढा के साथ साझेदारी की। लेकिन 2012 में पोंटी की हत्या के बाद उसके बेटे से साझेदारी खत्म कर ली।
इससे पहले दो सीबीआई निदेशक मोईन कुरैशी के शिकार हो चुके हैं। राकेश अस्थाना की अगुवाई में गठित एसआईटी मोईन कुरैशी की जांच कर रही थी। देवेंद्र कुमार उनके साथ जुड़े थे। इस मामले में वर्मा और अस्थाना दोनों एक-दूसरे पर लेन-देन का कीचड़ उछाल रहे थे। यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि सीवीसी के प्रमुख केवी चैधरी की नियुक्ति के समय राम जेठमलानी ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर चैधरी पर आपराधिक गतिविधियों में शामिल होने और भ्रष्ट व राष्ट्रविरोधी तत्वों से मदद लेने का आरोप लगाया था। अब तो यह शेर मौजू हो जाता है- तुम्हीं कातिल, तुम्हीं मुंसिफ, यकी कैसे, फैसला मेरे हक में आएगा...। बाजार एक ऐसा शक्तिशाली पक्ष हो गया है जो किसी को भी नहीं बक्सता है तो सीबीआई और सीवीसी की क्या विसात।
Dr. Yogesh mishr

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