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दल बदल के लिए कूल ऑफ जरूरी

Dr. Yogesh mishr
Published on: 16 March 2020 11:05 AM GMT
कभी मध्यप्रदेश में कांग्रेस का एक चेहरा रहे ग्वालियर घराने के महाराज ज्योतिरादित्य सिंधिया के हालिया दिल और दल परिवर्तन के बाद एक बार फिर लोकतांत्रिक मूल्यों, आस्थाओं और दलबदल को लेकर ढेर सारे यक्ष प्रश्न खड़े हो गये हैं। उन्होंने कांग्रेस की पारी को अलविदा करते हुए कहा कि कांग्रेस पार्टी से उनकी जनसेवा का लक्ष्य पूरा नहीं हो पा रहा है। मध्य प्रदेश में सरकार बनते समय जो वायदे किये गये थे,वे पूरे नहीं हो पाये। कांग्रेस नये नेतृत्व और नये विचार को नकार रही है।
सिंधिया के कांग्रेस छोड़ते  भाजपा ज्वाइन करते समय कहे इन भावुक वाक्यों की पड़ताल करें तो यह तथ्य हाथ लगता है कि सिंधिया जन सेवा करना चाहते हैं। हालांकि उन्होंने अपने हाथ में ज्यों कमल पकड़ा , उसके 5-7 मिनट के अंदर ही उनके हाथ राज्यसभा का टिकट भी लग गया। वह केन्द्र में र्कई महकमों के मंत्री रहे हैं। उनके महकमों ने कभी कोई  बड़ा और आगे बढक़र जन हितैषी कदम नहीं उठाया। यह भी बात किसी से छुपी नहीं है कि मध्य प्रदेश में लड़ाई की वजह सेवा-जनसेवा से अधिक राज्य सभा का चुनाव था।
कांग्रेस अगर चार और विधायक जुगाड़ सकती तो उसके दो लोग राज्यसभा पहुंचने में कामयाब होते। कमलनाथ चाहते थे कि एक दिग्विजय  सिंंह और दूसरा उनके कोटे का कोई आदमी पहुंच जाये। दिग्विजय सिंह राघौगढ़ रियासत से जुड़े हैं। राघौगढ़ और ग्वालियर में रंजिश की कहानी बहुत पुरानी है। कहा तो यह भी जाता है कि २०० साल पहले राघौगढ़  के राजा जयसिंह ने ग्वालियर वंशज के दौलतराम के काल में हमला कर हरा दिया था। राधोगढ़ और ग्वालियर की रंजिश भी सिंधिया के कांग्रेस छोडऩे की पृष्ठड्ढभूमि में है।
1985 में ज्योतिरादित्य सिंधिया के पिता माधवराज सिंधिया का नाम मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर सामने आया था। वह राजीव गांधी के मित्र थे,पर वह नहीं बन पाये। 1993 में दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री बन गये। यही नहीं, राहुल गांधी चाहकर भी 2012 में ज्योतिरादित्य सिंधिया को प्रदेश की कमान नहीं दिला पाये। उन्हें मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री नहीं बना पाये।
2019 में भाजपा के कृष्णपाल सिंह यादव ने, जो कभी सिंधिया के ही हमकदम होते थे, ज्योतिरादित्य को हराकर एक र्नई पटकथा लिख दी थी। सिंधिया राजघराने का रिश्ता जनसंघ से पुराना है। ज्योतिरादित्य  के पिता 1971 में गुना सीट से जनसंघ के सांसद बने थे। 1977 में निर्दल जीते, 1980 में कांग्रेस का हाथ थाम लिया। बाद में कांग्रेस छोड़ी। अपनी पार्टी बनाई। फिर कांग्रेसी हो गये।
ज्योतिरादित्य की दादी विजयराजे सिंधिया ने भले ही 1957 व 1962 में हिन्दू महासभा और जनसंघ के प्रत्याशी को हराया था। लेकिन ग्वालियर के छात्र आंदोलन को लेकर 1967 में तत्कालीन मुख्यमंत्री डीपी मिश्र से उनके मतभेद इस कदर गहराये कि उन्होंने कांग्रेस की सरकार गिराकर गैर कांग्रेसी सरकार बना दी। 1989, 91, 96, 98 में वह भाजपा के टिकट पर गुना से जीतीं। 1980 में रायबरेली से इंदिरा गांधी के खिलाफ मैदान में उतरीं। हार गईं। इस बीच जब विजयराजे सिंधिया जनसंघ में थीं तब उनके बेटे माधव राव सिंधिया कांग्रेस की सियासत कर रहे थे। जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी तक की यात्रा में विजयराजे सिंधिया की भूमिका निःसन्देह कमल छाप पार्टी के किसी आदमी के लिए भुलाना मुश्किल है।
यही नहीं, ज्योतिरादित्य की बुआ वसुन्धरा राजे राजस्थान भाजपा की बड़ी नेता हैं। मुख्यमंत्री भी रहीं। इनकी बहन यशोधरा राजे भाजपा के टिकट पर  ग्वालियर से सांसद रहीं हैं। इस लिहाज से देखें तो ज्योतिरादित्य घर वापसी कर रहे हैं। लेकिन ऐसे में यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि जिस कृष्णपाल यादव ने ज्योतिरादित्य  को चुनौती देकर पटखनी दी,उसके बारे में पार्टी ने क्या सोचा? जो शिवराज सिंह चौहान लगातार सिंधिया विरोध की सियासत कर रहे थे, वह अपने तेवर की धार कैसे बरकरार रखेंगे। सिंधिया को वह कमलनाथ की लंका जलाने के लिए विभीषण कह रहे हैं। इसे सिंधिया कब तक सुनते रहेंगे। रावण तो लोग आज भी नाम  रखे मिल जाते हैं पर विभीषण नहीं। रावण के मंदिर हैं पर विभीषण के नहीं।  जिन 22 विधायकों ने सिंधिया के दल बदलने के फैसले से प्रभावित होकर न केवल दल बदला बल्कि विधानसभा से इस्तीफा भी दिया, ये लोग कांग्रेस से भाजपा में जाने के बाद कमल छाप पार्टी के चाल, चरित्र और चेहरे के साथ रिश्ते कैसे और कितने दिनों में कांग्रेस सरीखा बना पायेंगे। सिंधिया को मोदी मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री पद भी मिल सकता है। लेकिन इन विधायकों को क्या मिलने वाला है । राज्यसभा चुनाव की आड़ में मध्य प्रदेश ही नहीं राजस्थान, गुजरात सरीखे कई राज्यों में जिस तरह दल और दिल बदलने के खेल को हवा दी जा रही है,उससे यह तो साफ हो ही जाता है कि हमारे राजनेताओं के लिए विचार की राजनीति बीते दिनों की बात हो गई। शुरूआती दौर में लोग राजनीति में इसी वजह से आते थे। इसी के मददेनजर पार्टिंयां चुनते थे। लेकिन अब राजनीति में आने का आधार अपने व्यापार और कामकाज को फलने-फूलने का मौका देना है। यह तभी संभव है जब केन्द्र या राज्य की सत्ता का वरदहस्त हासिल हो।
वर्ष 1985 में जब राजीव गांधी दलबदल कानून लेकर आये। तब उन्हें नहीं पता था कि यह कानून कितना निर्जीव है। यद्यपि इस कानून में पहले एक तिहाई और बाद में दो तिहाई सदस्यों के पार्टी छोडऩे पर दलबदल लागू न होने की बात कही गई। इसके लाने का लक्ष्य अपनी सुविधा के हिसाब से पार्टी बदलने वाले सांसदों व विधायकों पर लगाम लगाना था क्योंकि इससे पहले ऐसा कोई कानून नहीं था। नतीजतन, 1967 में हरियाणा के एक विधायक गयालाल ने एक दिन में 3 बार पार्टी बदली। आयाराम गयाराम प्रचलित हो गया। हरियाणा में भजनलाल, देवीलाल और बंशीलाल ने सत्ता में बने रहने के लिए दलबदल का इस कदर बेजा इस्तेमाल किया कि 8 महीने चली विधानसभा में 44 विधायकों ने दल बदला। एक विधायक ने 5 बार, दो ने 4 बार, तीन ने 3 बार, चार ने 2 बार और 34 विधायकों ने 1 बार अपना खेमा बदला। आंध्र प्रदेश में वर्ष 2016 में 13 विधायकों का दलबदल कराकर चन्द्रबाबू नायूड ने अपनी सरकार बचाई।  तमिलनाडु में शशिकला के समर्थक 19 विधायकों ने भी पलनीस्वामी की सरकार को अस्थिर कर दिया।
उत्तर प्रदेश में दलबदल कराकर मायावती की सरकार गिराने में मुलायम सिंह यादव कामयाब हुए। उस समय के विधानसभा अध्यक्ष केशरीनाथ त्रिपाठी की भूमिका को लेकर भी सवाल उठे। दलबदल के समय हमेशा विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका पर सवाल उठते रहे हैं। यही वजह है कि पहले दलबदल कानून में इस बात का जिक्र था कि दलबदल को लेकर स्पीकर के फैसले में कोर्ट दखल नहीं दे सकती है। लेकिन 1991 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने 10वीं अनुसूची के इस पैराग्राफ 7 को असंवैधानिक करार दिया। यानि स्पीकर के फैसले की कानूनी समीक्षा हो सकती है।
लोकतंत्र के लिए दलबदल एक शर्मसार करने वाला अध्याय है। इससे सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को परहेज करना चाहिए क्योंकि जो लोग सत्ता के लिए दल और दिल बदल रहे हैं उनकी जरूरतें भौतिक होती हैं, सैद्घांतिक नहीं। इस पर निर्वाचन आयोग को भी नजर रखनी चाहिए। जिस तरह महत्वपूर्ण पदों पर रहे नौकरशाह नौकरी से छुट्टी पाने या लेने के बाद तुरन्त किसी निजी औद्योगिक घराने में नौकरी नहीं कर सकते, उन्हें कूल ऑफ टाइम बिताना पड़ता है,उसी तरह राजनेताओं के लिए भी एक दल से दूसरे दल में जाने के लिए भी कोई दलदल पैदा करने की जगह कूल ऑफ टाइम  तय किया जाना चाहिए। जो कम से कम दो साल का होना चाहिए ताकि नये दल के लिए वह अपने को तैयार कर सकें। वह जिस दल में जा रहा है ,उसके लोगों को जो कुछ भला बुरा कहा हो,उसे लोग भूल सकें। इसके बिना जिस दल में जायेगा उसका भी फायदा नहीं होगा। जिस दल से जायेगा उसको भी सबक नहीं मिलेगा। यह पब्लिक है, सब जानती है।
Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

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