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अब और न काटिये, न बांटिये…
कांग्रेस भले ही अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी के कांग्रेस के मुसलमानों की पार्टी होने की बात कहे जाने को लेकर बचाव कर ले। लेकिन उसके नेता दिग्विजय सिंह और पी. चिदंबरम द्वारा कभी प्रयोग किया गया ‘हिंदू आतंकवाद‘ अथवा ‘भगवा आतंकवाद‘ का क्या बचाव होगा? शशि थरूर का यह कहना कि अगर भाजपा अगला लोक सभा चुनाव जीत जायेगी तो भारत ‘हिंदू पाकिस्तान‘ बन जाएगा। उप-राष्ट्रपति रहे हामिद अंसारी द्वारा शशि थरूर के बयान का समर्थन और फिर अयोध्या के राममंदिर मामले की सुनवाई के दौरान ‘हिंदू तालिबान‘ शब्द के प्रयोग क्या यह नहीं बताते कि भारत तुष्टिकरण की सियासत की दिशा में काफी आगे निकल गया है। तमाम ऐसे नेता हो गये हैं जो बेहद बयानवीर हैं। संविधान में निहित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कितना बेजा लाभ है कि चुनाव के दौरान और बाद में भी बड़े पदों पर बैठे नेता ऐसे-ऐसे बयान देते हैं कि आम भारतवासी का सिर शर्म से झुक जाये। पर यहां तो चिकने घड़े हैं।
वर्ष 2014 के लोक सभा चुनाव के बाद से देश में तुष्टिकरण, धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता तथा राष्ट्रवाद की स्वहितपोषी परिभाषाएं तैयार की गईं। इस चुनाव में नरेंद्र मोदी के आविर्भाव के पहले सियासत में यह फार्मूला जड़ कर गया था कि अल्पसंख्यकों के बिना कोई सरकार नहीं बन सकती। लेकिन नरेंद्र मोदी ने एक नया समीकरण स्थापित किया, जिसका सीधा संदेश यह था कि बहुसंख्यक आबादी अकेले बूते पर स्पष्ट बहुमत की सरकार बना सकती है। हालांकि गुजरात में इस फार्मूले का मोदी तीन बार सफल परीक्षण कर चुके थे। लोकसभा के बाद 2017 में हुए उत्तर प्रदेश के चुनाव में भी उन्होंने इस फार्मूले का इति सिद्धम किया।
नरेंद्र मोदी जानते थे कि गोधरा और अहमदाबाद के बाद एक हिंदू नेता की जो जगह खाली थी उसमें वह कैसे फिट हो सकते हैं। हर राजनीतिक दल द्वारा सरकारी खर्चों पर की जाने वाली अफ्तार पार्टियों, टोपी पहनकर खजूर खिलाने के दृश्य तुष्टिकरण का एक पहलू थे। इसे तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लाल किले से दिये गये उस बयान ने और हवा दे दी जिसमें उन्होंने कहा था कि देश के प्राकृतिक संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है। उन दिनों ड्राफ्ट किये जा रहे दंगा निरोधक बिल ने भी मोदी को हिंदू लीडर के तौर पर बड़ी जगह दिलाई। भले ही कांग्रेस और क्षेत्रीय दल समझ न पा रहे हों कि उनकी तुष्टिकरण की चालाक चालें समझना मुश्किल है। पर गुजरात से निकले नरेंद्र मोदी उसका भाष्य कर रहे थे। गोधरा और अहमदाबाद की घटनाओं को कांग्रेसी, स्वयं सेवी संगठनों, कथित और छद्म धर्मनिरपेक्ष ताकतों द्वारा अलग-अलग चश्में से देखने की कोशिशों ने मोदी के भाष्य पर बहुसंख्यकों को यकीन करने का मौका दिया। आजादी के बाद पहली बार अपनी खास अहमियत को देख बहुसंख्यक समुदाय ने तेज सक्रियता दिखाई। जो आज भी जारी है।
उसके सक्रियता की वजह भी बेवजह नहीं है। कांग्रेस के सलमान खुर्शीद सिमी के वकील हो जाते हैं। वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में 24 अगस्त, 2018 को कांग्रेस के शासनकाल के दौरान बाबरी मस्जिद विघ्वंस और सांप्रदायिक दंगों को लेकर पूछे गये एक सवाल के जवाब में वे कह उठते हैं कि कांग्रेस के दामन पर मुसलमानों के खून के धब्बे हैं। कांग्रेस के दिग्विजय सिंह 1 अप्रैल, 2016 को यह बताते नजर आते हैं कि हमेशा मुस्लिम कैदी ही जेल तोड़कर क्यों भागते है? गौरतलब है कि खंडवा जेल से फरार हुये सिमी के आतंकवादियों के एनकाउंटर पर वे अपनी राय दे रहे थे। तिरुवनंतपुरम में एक कार्यक्रम में शशि थरूर कहते है, ‘अगर भाजपा दोबारा लोकसभा चुनाव जीतती है तो हमें लगता है कि हमारा लोकतांत्रिक संविधान नहीं बचेगा। वो संविधान के बुनियादी सिद्धांतों को तहस-नहस करके एक नया संविधान लिखेंगे। उनका नया संविधान ‘हिंदू राष्ट्र‘ के सिद्धांतों पर आधारित होगा। अल्पसंख्यकों को मिलने वाली बराबरी खत्म कर दी जाएगी और भारत ‘हिंदू पाकिस्तान‘ बन जाएगा। जिस देश में उप-राष्ट्रपति अपने आखिरी भाषण में यह संकेत करें कि देश में मुसलमान खुद को असहज महसूस कर रहे हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि उन्होंने अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं निभाई। यह बात वह सरकार को अपने कार्यकाल के दौरान पत्र लिखकर भी कह सकते थे। यही नहीं, जब दंगा निरोधक बिल ड्राफ्ट किया जा रहा था, जब देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का बताया जा रहा था, जब हिंदू महिला और मुस्लिम महिला के पेट के सवाल को शाहबानों कांड में अलग-अलग चश्में से देखा जा रहा था, जब आरिफ मोहम्मद खान यह समझा रहे थे कि ऐसा न किया जाये, तो क्या संविधान की रक्षा की जिम्मेदारी नरेंद्र मोदी या उनके राजनीतिक दल के पास थी? इतिहास गवाह है कि किसी भी हिंदू राजा ने कभी भी दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण नहीं किया है। आमतौर पर कोई भी जाति जनसंख्या में पांच फीसदी से ऊपर होती है तो उसे अल्पसंख्यक कोटे से बाहर निकाल दिये जाने का प्रावधान है।
आज लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता का सवाल खड़ा हो गया है। नरेंद्र मोदी को देश के आवाम ने चुनकर भेजा है। उन्हें अकेले 31 फीसदी वोट मिले थे। जबकि गठबंधन सहित 38.5 फीसदी वोट उनके खाते में थे। चुनी हुई सरकार और उसके मुखिया को लोकतांत्रिक नहीं कहना, अपने वोटों को तुष्ट करने के लिये ‘हिंदू पाकिस्तान‘ कहना यह बताता है कि कांग्रेस अपनी लकीर को छोड़ने को तैयार नहीं है। संविधान और लोकतंत्र देश के आवाम के लिये हैं। इसका इस्तेमाल अपनी कुर्सी बचाये रखने और दूसरे की कुर्सी गिराने के लिये नहीं करना चाहिए। राष्ट्रवाद के लिये यह भी जरूरी है। शायद कांग्रेस के नेता यह भूल रहे हैं कि लोकतंत्र की कसौटी पर नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार लगातार चुनाव दर चुनाव सफल हो रही है। फिर किस लोकतंत्र की चिंता उन्हें सताये जा रही है। ‘मोदी बनाम ऑल‘ का फार्मूला तैयार हो रहा है। लोकतंत्र के चौसर पर उसे भी परख कर देखिये। एक समय ‘इंदिरा बनाम ऑल‘ था, तब इंदिरा गांधी के खिलाफ बड़े दिग्गज नेता थे। लोगों के दिलों में आपातकाल की पीड़ा थी। आज ‘मोदी बनाम ऑल‘ में अधिकांश नेता कठघरे में हैं। मौसेरे भाई की कथा से लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की पटकथा नहीं लिखी जा सकती। सिर पर चुनाव है, इंतजार कीजिए। आवाम अगर मोदी को दोबार मौका देता है तो उनके तुष्टिकरण, उनके लोकतंत्र, उनके राष्ट्रवाद और उनकी धर्मनिरपेक्षता कबूल कर लीजिएगा। नहीं देता है तो आप सबका कबूल हो जाएगा। पर कुर्सी के खेल में खंड-खंड देश मत बनाइये। धर्म और जातियों में तो हम बंट ही गये हैं। अब और मत बांटिये, मत काटिये।
वर्ष 2014 के लोक सभा चुनाव के बाद से देश में तुष्टिकरण, धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता तथा राष्ट्रवाद की स्वहितपोषी परिभाषाएं तैयार की गईं। इस चुनाव में नरेंद्र मोदी के आविर्भाव के पहले सियासत में यह फार्मूला जड़ कर गया था कि अल्पसंख्यकों के बिना कोई सरकार नहीं बन सकती। लेकिन नरेंद्र मोदी ने एक नया समीकरण स्थापित किया, जिसका सीधा संदेश यह था कि बहुसंख्यक आबादी अकेले बूते पर स्पष्ट बहुमत की सरकार बना सकती है। हालांकि गुजरात में इस फार्मूले का मोदी तीन बार सफल परीक्षण कर चुके थे। लोकसभा के बाद 2017 में हुए उत्तर प्रदेश के चुनाव में भी उन्होंने इस फार्मूले का इति सिद्धम किया।
नरेंद्र मोदी जानते थे कि गोधरा और अहमदाबाद के बाद एक हिंदू नेता की जो जगह खाली थी उसमें वह कैसे फिट हो सकते हैं। हर राजनीतिक दल द्वारा सरकारी खर्चों पर की जाने वाली अफ्तार पार्टियों, टोपी पहनकर खजूर खिलाने के दृश्य तुष्टिकरण का एक पहलू थे। इसे तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लाल किले से दिये गये उस बयान ने और हवा दे दी जिसमें उन्होंने कहा था कि देश के प्राकृतिक संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है। उन दिनों ड्राफ्ट किये जा रहे दंगा निरोधक बिल ने भी मोदी को हिंदू लीडर के तौर पर बड़ी जगह दिलाई। भले ही कांग्रेस और क्षेत्रीय दल समझ न पा रहे हों कि उनकी तुष्टिकरण की चालाक चालें समझना मुश्किल है। पर गुजरात से निकले नरेंद्र मोदी उसका भाष्य कर रहे थे। गोधरा और अहमदाबाद की घटनाओं को कांग्रेसी, स्वयं सेवी संगठनों, कथित और छद्म धर्मनिरपेक्ष ताकतों द्वारा अलग-अलग चश्में से देखने की कोशिशों ने मोदी के भाष्य पर बहुसंख्यकों को यकीन करने का मौका दिया। आजादी के बाद पहली बार अपनी खास अहमियत को देख बहुसंख्यक समुदाय ने तेज सक्रियता दिखाई। जो आज भी जारी है।
उसके सक्रियता की वजह भी बेवजह नहीं है। कांग्रेस के सलमान खुर्शीद सिमी के वकील हो जाते हैं। वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में 24 अगस्त, 2018 को कांग्रेस के शासनकाल के दौरान बाबरी मस्जिद विघ्वंस और सांप्रदायिक दंगों को लेकर पूछे गये एक सवाल के जवाब में वे कह उठते हैं कि कांग्रेस के दामन पर मुसलमानों के खून के धब्बे हैं। कांग्रेस के दिग्विजय सिंह 1 अप्रैल, 2016 को यह बताते नजर आते हैं कि हमेशा मुस्लिम कैदी ही जेल तोड़कर क्यों भागते है? गौरतलब है कि खंडवा जेल से फरार हुये सिमी के आतंकवादियों के एनकाउंटर पर वे अपनी राय दे रहे थे। तिरुवनंतपुरम में एक कार्यक्रम में शशि थरूर कहते है, ‘अगर भाजपा दोबारा लोकसभा चुनाव जीतती है तो हमें लगता है कि हमारा लोकतांत्रिक संविधान नहीं बचेगा। वो संविधान के बुनियादी सिद्धांतों को तहस-नहस करके एक नया संविधान लिखेंगे। उनका नया संविधान ‘हिंदू राष्ट्र‘ के सिद्धांतों पर आधारित होगा। अल्पसंख्यकों को मिलने वाली बराबरी खत्म कर दी जाएगी और भारत ‘हिंदू पाकिस्तान‘ बन जाएगा। जिस देश में उप-राष्ट्रपति अपने आखिरी भाषण में यह संकेत करें कि देश में मुसलमान खुद को असहज महसूस कर रहे हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि उन्होंने अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं निभाई। यह बात वह सरकार को अपने कार्यकाल के दौरान पत्र लिखकर भी कह सकते थे। यही नहीं, जब दंगा निरोधक बिल ड्राफ्ट किया जा रहा था, जब देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का बताया जा रहा था, जब हिंदू महिला और मुस्लिम महिला के पेट के सवाल को शाहबानों कांड में अलग-अलग चश्में से देखा जा रहा था, जब आरिफ मोहम्मद खान यह समझा रहे थे कि ऐसा न किया जाये, तो क्या संविधान की रक्षा की जिम्मेदारी नरेंद्र मोदी या उनके राजनीतिक दल के पास थी? इतिहास गवाह है कि किसी भी हिंदू राजा ने कभी भी दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण नहीं किया है। आमतौर पर कोई भी जाति जनसंख्या में पांच फीसदी से ऊपर होती है तो उसे अल्पसंख्यक कोटे से बाहर निकाल दिये जाने का प्रावधान है।
आज लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता का सवाल खड़ा हो गया है। नरेंद्र मोदी को देश के आवाम ने चुनकर भेजा है। उन्हें अकेले 31 फीसदी वोट मिले थे। जबकि गठबंधन सहित 38.5 फीसदी वोट उनके खाते में थे। चुनी हुई सरकार और उसके मुखिया को लोकतांत्रिक नहीं कहना, अपने वोटों को तुष्ट करने के लिये ‘हिंदू पाकिस्तान‘ कहना यह बताता है कि कांग्रेस अपनी लकीर को छोड़ने को तैयार नहीं है। संविधान और लोकतंत्र देश के आवाम के लिये हैं। इसका इस्तेमाल अपनी कुर्सी बचाये रखने और दूसरे की कुर्सी गिराने के लिये नहीं करना चाहिए। राष्ट्रवाद के लिये यह भी जरूरी है। शायद कांग्रेस के नेता यह भूल रहे हैं कि लोकतंत्र की कसौटी पर नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार लगातार चुनाव दर चुनाव सफल हो रही है। फिर किस लोकतंत्र की चिंता उन्हें सताये जा रही है। ‘मोदी बनाम ऑल‘ का फार्मूला तैयार हो रहा है। लोकतंत्र के चौसर पर उसे भी परख कर देखिये। एक समय ‘इंदिरा बनाम ऑल‘ था, तब इंदिरा गांधी के खिलाफ बड़े दिग्गज नेता थे। लोगों के दिलों में आपातकाल की पीड़ा थी। आज ‘मोदी बनाम ऑल‘ में अधिकांश नेता कठघरे में हैं। मौसेरे भाई की कथा से लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की पटकथा नहीं लिखी जा सकती। सिर पर चुनाव है, इंतजार कीजिए। आवाम अगर मोदी को दोबार मौका देता है तो उनके तुष्टिकरण, उनके लोकतंत्र, उनके राष्ट्रवाद और उनकी धर्मनिरपेक्षता कबूल कर लीजिएगा। नहीं देता है तो आप सबका कबूल हो जाएगा। पर कुर्सी के खेल में खंड-खंड देश मत बनाइये। धर्म और जातियों में तो हम बंट ही गये हैं। अब और मत बांटिये, मत काटिये।
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