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संसद में चुनाव...

Dr. Yogesh mishr
Published on: 23 July 2018 6:13 PM IST
तीस साल बाद आये अविश्वास प्रस्ताव में कौन जीता, कौन हारा, यह संदेश भले ही निकल आया हो। लेकिन अविश्वास प्रस्ताव के दौरान संसद में जो मंजर दिखा उसमें लोकतंत्र हारा। जनता हारी। जनार्दन हारे। अविश्वास प्रस्ताव लाने और इसके समर्थन में खड़े विपक्ष को खुद को लोकतंत्र, जनता, जनार्दन नहीं मान लेना चाहिए। क्योंकि जनता जनार्दन सदन से बाहर थी। लोकतंत्र आहत था। देश में जब नरेंद्र मोदी और उनकी भाजपा निरंतर लोकतांत्रिक कसौटी पर खरे उतर रही हो, उनके पास बहुमत हो फिर अविश्वास प्रस्ताव लोकतंत्र के लिए सवाल है।

संसद में सबसे पहले 1963 में जे.बी. कृपलानी ने नेहरू सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव रखा था। उन्हें सिर्फ 62 वोट मिल पाये थे। नेहरू को 347 लोगों का समर्थन मिला था। इस बार को मिला दिया जाये तो संसद में 27 बार अविश्वास प्रस्ताव आये हैं। 25 बार फेल हो गए, सिर्फ दो बार अविश्वास प्रस्ताव के मार्फत सरकार गिराने में कामयाबी मिली। पहली 1978 में मोरारजी देसाई के खिलाफ, दूसरी 1998 में अटल विहारी वाजपेयी के खिलाफ। यह भी कम संयोग नहीं है कि अटल और देसाई दोनों के खिलाफ दो बार आविश्वास प्रस्ताव आये। एक बार दोनों ने मत विभाजन से पहले इस्तीफा दिया और दूसरी बार दोनों की सरकार गिर गई। इंदिरा गांधी के खिलाफ सबसे अधिक 15 अविश्वास प्रस्ताव आये। अब तक चार बार अविश्वास प्रस्ताव पर ध्वनिमति से फैसला हुआ। 21 बार वोटिंग हुई। 1993 में नरसिम्हा राव बहुत कम अंतर से अविश्वास प्रस्ताव पर विजय हासिल कर सके थे। हालांकि बाद में उन पर झामुमो सांसदों को प्रलोभन देने का आरोप लगा। सबसे अधिक अविश्वास प्रस्ताव वामपंथ ने पेश किये। अटल विहारी वाजपेयी ने इंदिरा और नरसिम्हा राव सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था। दस बार देश के प्रधानमंत्रियों को अविश्वास प्रस्ताव लेने को कहा गया। इनमें पांच सफल और इतने ही असफल रहे। विश्वनाथ प्रताप सिंह, देवगौड़, गुजराल और अटल विहारी सरकार विश्वास प्रस्ताव हारी। जबकि चरण सिंह ने इस प्रस्ताव के बाद इस्तीफा दे दिया। सबसे कम एक वोट से अविश्वास प्रस्ताव हारने वाले अटल विहारी वाजपेयी हैं। दुनिया में सबसे पहला अविश्वास प्रस्ताव 1782 में ब्रिटेन में पेश किया गया। अमेरिकी क्रांतिकारी युद्ध में योर्कटाऊन में ब्रिटिश के हार की खबर के बाद यह प्रस्ताव आया था।
इस बार संसद के अविश्वास प्रस्ताव ने कई ऐसे दृश्य दिखाए, जिसके लिए देश तैयार नहीं था। राहुल गांधी ने अगर अपने पप्पू का केचुल उतारने में कामयाबी हासिल की। उनकी अंग भाषा बेहद कम्पोज रही। 36 रफायल विमानों की खरीद का सवाल, नोटबंदी, जीएसटी, किसानों की दुर्दशा की स्थिति, समाज में बढ़ती हिंसा, बेरोजगारी आदि के सवाल उठे तो लेकिन न तो ठोस ढंग से उठे और न ठोस ढंग से उनका जवाब आया। पहली बार कांग्रेस के किसी नेता ने कार्पोरेट कप्तानों और याराना पूंजीवाद पर हमला तो किया। लेकिन जिस तरह राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदों का खुलासा हुआ है उससे सिर्फ यह कहा जा सकता है कि याराना पूंजीवाद सत्ता और विपक्ष के साथ सिर्फ कम और ज्यादा हो जाता है। खत्म कहीं नहीं होता। प्रधानमंत्री को गले लग कर घृणा और प्रेम की राजनीति की विभाजक रेखा में कौन कहां है यह बताने की कोशिश की तो पर तमिल अभिनेत्री प्रिया प्रकाश के उनके रोल के नयन मटक्का ने उनकी पूरी की पूरी भूमिका को सतही कर दिया। उनके गले मिलने के आचरण की पोल खुल गई।
स्पीकर सुमित्रा महाजन ने भी नमक अदा कर दिखाया। उन्हें राहुल गांधी के नयन मटक्का पर सवाल खड़ा करना चाहिए था। तो वह गले मिलने की बात उठाने लगी। उन्हें प्रधानमंत्री के पद की गरिमा संसद के किसी महत्वपूर्ण सदस्य द्वारा कार्यवाही के दौरान नयन मटक्का करना आचरण के खिलाफ नहीं लगा! विपक्ष जिस अविश्वास प्रस्ताव का समर्थन कर रहा था वह इस पर केंद्रित था कि केंद्र ने आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा नहीं दिया। अविश्वास प्रस्ताव राज्य के सवाल पर आये और देशव्यापी विपक्ष एक हो जाये यह भी सवाल है। जब प्रधानमंत्री बोल रहे हों तब तेलगुदेशम के सारे 16 सदस्य अपने अविश्वास प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री का जवाब सुनने की जगह बेल में लगातार शोरशराबा कर रहे हों। शिवसेना हां और न के बीच झूल रही हो। जब पूरे देश की राजनीति द्वि-ध्रुवीय हो रही हो। यूपीए और एनडीए की विभाजक रेखाएं साफ दिख रही हों तब बीजद बहिर्गमन करके यह बता रही हो कि वह भाजपा और कांग्रेस किसी के साथ नहीं है। अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान नेताओं की नजर आगामी विधानसभा चुनावों पर ज्यादा थी। तभी तो राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश सरकार की उपलब्धियां गिनाई जा रही थी और उसका पुरजोर विरोध दिख रहा था। सदन में सपा के नेता मुलायम सिंह सरकार के खिलाफ बोलते हों और पार्टी के महासचिव रामगोपाल सदन के बाहर राहुल के खिलाफ मोर्चा खोलते हों। उसी दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव मोदी के खिलाफ विपक्षी एकता का सूत्रधार बनते हों, इससे जो चरित्र उजागर होता है वह जनता, जनार्दन और लोकतंत्र को आहत करता है। यह सच है कि आभासी मीडिया के इस युग में राजनीति सिर्फ विचारों और विकास से नहीं होती। भाषण और अंग भाषा भी महत्वपूर्ण होते हैं। इन दोनों लिहाज से जनता न तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनके चिर परिचित रूप में देख पायी और न ही राहुल गांधी को पुराने अवतार में। मोदी भाषण पढ़ते हुए दिखे। राहुल ने याद किया हुआ भाषण देकर दिखा दिया। सदन की कार्यवाही में कुछ तंज ऐसे होने चाहिए जो याद दिलाए, हंसाए और गुदगुदाए। लेकिन इस बार तंज रुलाने वाले थे। भागीदार, चैकीदार, सौदागर, ठेकदार जैसे शब्दों से संसद रूबरू हुई। अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के मार्फत देश ने जो कुछ देखा उससे यही कहा जा सकता है कि दोनों नेताओं की छबि गढ़ने वाले प्रोफेशनल समूहों को अपने नेताओं की नई छवि गढ़नी होगी। क्योंकि मोदी, नरेंद्र मोदी के मुकाबिल होंगे। उन्हें अपने अच्छे दिनों के वादों और राहुल के रफायल की कीमत बढ़ जाने का जवाब देना है। जबकि राहुल गांधी को संयुक्त विपक्ष का चेहरा बनने की परीक्षा पास करनी है। इस बार चुनाव पारंपरिक मुद्दों और जुमलों पर नहीं चलेगा। मोदी के हाथ विकास और बहुसंख्यक होंगे तो राहुल को मोदी के विकास को खारिज करते हुए बहुसंख्यकों को अपने पाले में लाना होगा। यह तभी संभव है जब सबकी नई छवि हो।
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Dr. Yogesh mishr

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