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Election 2022: नया वोट बैंक बन रहीं महिलाएं

वैसे तो पंजीकृत पुरुष मतदाता अब भी महिला मतदाताओं से अधिक हैं लेकिन 2019 के राष्ट्रीय चुनावों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं का अधिक अनुपात मतदान करने के लिए निकला।

Neel Mani Lal
Written By Neel Mani LalPublished By Divyanshu Rao
Published on: 27 Jan 2022 5:29 PM IST
UP Election 2022
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यूपी विधानसभा चुनाव 2022 की तस्वीर 

Election 2022: बीते कुछ वर्षों से चले आ रहे चुनावों से साफ़ पता चलता है कि महिलाएं अब भारत में सबसे तेजी से बढ़ने वाला राजनीतिक क्षेत्र हैं या नया वोट बैंक हैं। 2019 के आम चुनावों में देश की पंजीकृत महिला मतदाताओं में से 77 फीसदी यानी 29 करोड़ 40 लाख ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया था।

वैसे तो पंजीकृत पुरुष मतदाता अब भी महिला मतदाताओं से अधिक हैं लेकिन 2019 के राष्ट्रीय चुनावों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं का अधिक अनुपात मतदान करने के लिए निकला। दरअसल, भारत के इतिहास में पहली बार मतदान में लैंगिक अंतर कम हुआ है और देश भर के नेता और राजनीतिक दल ये बखूबी समझ रहे हैं।

पिछले कई वर्षों में, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, उत्तर प्रदेश और गोवा में राजनीतिक दलों ने महिलाओं को सशक्त बनाने और उनके तेजी से महत्वपूर्ण वोटों को जीतने के उद्देश्य से कई नए सामाजिक कार्यक्रम शुरू किए हैं। यूपी के विधानसभा चुनावों में तो कांग्रेस ने 40 फीसदी टिकट महिलाओं को देने की नीति बना डाली है। अन्य दल क्या करते हैं ये तो सबकी सूचियाँ आ जाने के बाद ही पता चलेगा।

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि मूक मतदाताओं के रूप में महिलाओं ने नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार, नवीन पटनायक और ममता बनर्जी जैसे नेताओं की सफलता में जबर्दस्त योगदान किया है। अब उत्तर प्रदेश के चुनाव में सभी दलों के लिए महिलाएं शीर्ष फोकस समूह के रूप में उभरी हैं। भाजपा ने 2014 के बाद अपनी लोकप्रियता में वृद्धि को देखते हुए महिला-केंद्रित कार्यक्रमों की एक श्रृंखला शुरू की और उसका उसे काफी फायदा भी मिला है। अब इस रणनीति को प्रतिद्वंद्वी दलों द्वारा अपनाया जा रहा है। लेकिन सवाल ये है कि क्या ये महिलाएं राजनीति में कोई बदलाव डाल पाएंगी?

चुनाव की प्रतीकात्मक तस्वीर (फोटो:सोशल मीडिया)

बंगाल चुनाव और तृणमूल कांग्रेस

अगस्त 2021 में पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस पार्टी सरकार ने तीसरी बार जीत हासिल की और उसकी इस जीत में महिलाओं का मजबूत समर्थन भी जिम्मेदार है। इनमें आदिवासी, मुस्लिम और कम आय वाली महिलाओं के साथ-साथ सवर्ण वर्ग की महिलाओं का भी समर्थन शामिल है।

तृणमूल पार्टी की नेता और राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कम आय वाली महिलाओं और लड़कियों को लक्षित करते हुए कई कार्यक्रम शुरू किए थे। पिछले साल असम के चुनावों में महिला मतदाताओं ने भारतीय जनता पार्टी की सत्ता बनाए रखने में इसी तरह की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। असम में भाजपा ने चुनाव से साल भर पहले महिलाओं के लिए प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण कार्यक्रमों की एक श्रृंखला शुरू की थी।

बिहार चुनाव

एक निर्वाचन क्षेत्र के रूप में महिलाएं, पुरुषों से अलग हैं, बिहार के 2005 के चुनावों में साफ़ देखा गया था, जब नीतीश कुमार ने लड़कियों को साइकिल देने का वादा किया था। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की एक शोधकर्ता के अनुसार, साइकिल मिलने से लड़कियों के बीच स्कूल ड्राप आउट की दर काफी कम हो गयी है।

इस प्रोग्राम का फायदा निश्चित तौर पर नीतीश कुमार को मिला था। इसके अलावा बिहार में शराबबंदी का फायदा नीतीश कुमार को महिलाओं के भरपूर समर्थन के रूप में भी मिला है। चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार बिहार में महिलाओं की मतदाता भागीदारी 2005 में 42 प्रतिशत से बढ़कर 2020 में लगभग 60 प्रतिशत हो गई। नीतीश कुमार अब लगातार महिलाओं के लिए शुरू किये गए सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों का बखान पार्टी मंचों से करते रहते हैं।

चुनाव से पहले नकद लाभ कार्यक्रमों या प्रलोभनों के वादों का असर भी महिला मतदाताओं पर काफी पड़ता है। ऐसे कार्यक्रमों के समर्थकों का कहना है कि मुफ्त चीजों का वितरण समाज में स्त्री-पुरुष के बीच लम्बे समय से चली आ रही असमानताओं का निवारण है।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर कार्तिक मुरलीधरन का कहना है कि इस बात के प्रमाण हैं कि महिलाओं को नकद हस्तांतरण देने से उन चीजों पर अधिक खर्च होता है जिससे पूरे परिवार को लाभ होता है, जैसे भोजन, शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल।

येल यूनिवर्सिटी तथा अन्य के शोधकर्ताओं के एक अध्ययन के अनुसार, एक अधिक सशक्त महिला आबादी से समग्र रूप से अर्थव्यवस्था को लाभ पहुंचता है। ग्रामीण मध्य प्रदेश में येल विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक प्रयोग में पाया गया कि जिन महिलाओं की मजदूरी सीधे उनके अपने बैंक खातों में जमा की जाती है, उनके घर से बाहर काम करने की संभावना अधिक होती है।

भारत में महिला श्रम बल की भागीदारी 2005 से घट रही है और महामारी के दौरान और भी गिर गई है। प्रत्यक्ष जमा कार्यक्रम जो महिलाओं को उनके वित्त पर स्वायत्तता देते हैं, उस प्रवृत्ति को धीमा या उलटने में मदद कर सकते हैं।

यूपी की स्थिति

उत्तर प्रदेश में भी पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी में तेजी से वृद्धि हुई है। रिपोर्टों के अनुसार, राज्य के मतदाताओं का लगभग 46.5 प्रतिशत महिलाओं का है। उनकी संख्या न केवल संख्यात्मक रूप से बढ़ी है बल्कि चुनावी भागीदारी के मामले में भी बढ़ी है। 2017 के आंकड़ों से पता चलता है कि राज्य में 63.31 प्रतिशत (4.5 करोड़) महिलाओं ने मतदान किया, जबकि पुरुष मतदाताओं में से केवल 59 प्रतिशत (4.5 करोड़) ने मतदान किया।

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में राजनीतिक दलों ने राज्य की महिला मतदाताओं की ओर ध्यान केंद्रित किया है। वैसे तो कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने स्पष्ट किया है कि वह यूपी में पार्टी की मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार नहीं होंगी लेकिन उनकी पार्टी ने बड़े पैमाने पर महिला-केंद्रित अभियान चला रखा है। 40 फीसदी टिकट, सरकारी नौकरियों में आरक्षण, पुलिस पोस्टिंग में आरक्षण, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) की दुकानों में आरक्षण, और मुफ्त में मोबाइल फोन और स्कूटर देने का वादा वगैरह।

सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी भी महिला मतदाताओं को लुभाने की कोशिश कर रही है। राज्यसभा सांसद गीता शाक्य को एक ऑनलाइन अभियान की जिम्मेदारी सौंपी गयी है जिसके टैगलाइन है - 'क्यों उत्तर प्रदेश की महिलायें कहती हैं कि योगी सरकार है जरूरी।' पिछले साल दिसंबर के अंत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों के खातों में 1,000 करोड़ रुपये जमा किए थे।

उन्होंने उज्ज्वला, स्वच्छ भारत और पीएम आवास जैसी योजनाओं को भी इस रूप में प्रोजेक्ट किया है कि पार्टी ने महिलाओं को और सशक्त बनाने की अपनी प्रतिज्ञा पूरी की है। प्रधानमन्त्री मोदी ने एक कार्यक्रम में कहा भी था कि यूपी में महिलाएं सुनिश्चित करेंगी कि विपक्ष सत्ता में न आने पाए।

पर्यवेक्षकों का कहना है कि उज्ज्वला, स्वच्छ भारत, पीएम आवास योजना जैसी प्रमुख योजनाओं की बदौलत महिलाएं कई राज्यों में भाजपा को वोट देती रही हैं।क्योंकि ऐसी योजनाओं की बदौलत महिलाओं को आर्थिक स्वामित्व, संपत्ति के अधिकार, गैस सिलेंडर, टॉयलेट जैसी उपयोगिताएं प्रदान की हैं।

बेटी बचाओ, पीएम जन धन, सुकन्या समृद्धि योजना जैसी वित्तीय समावेशन योजनाओं के अलावा, सरकार ने छह महीने के मातृत्व अवकाश और नाबालिगों से बलात्कार के आरोपियों को अधिक कठोर सजा जैसे कानूनों को आगे बढ़ाया है। इसके जरिये महिलाओं के सामाजिक-आर्थिक डेवलपमेंट को टारगेट किया गया है।

यही वजह है कि इस चुनाव में सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने भी कहा है कि इस बार राज्य में 'एमवाई-गठबंधन' यानी महिला प्लस युवा होगा। पार्टी महिलाओं के लिए नए शैक्षिक और रोजगार के अवसरों का वादा कर रही है। पिछली बार सत्ता में रहने के दौरान शुरू की गई महिला हेल्पलाइन पर ध्यान आकर्षित करने के अलावा, सपा ने 'उत्तर प्रदेश की नारी, भाजपा पर पड़ेगी भारी' के नारे पर केंद्रित एक अभियान भी चलाया है, जिसमें मौजूदा सरकार की महिलाओं के कल्याण के प्रति लापरवाही को लक्षित किया गया है।

सपा के सहयोगी जयंत चौधरी की राष्ट्रीय लोक दल ने राज्य सरकार की नौकरियों में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण और सरकारी स्कूलों में लड़कियों को मुफ्त सैनिटरी पैड देने का वादा किया है। मायावती के नेतृत्व वाली बसपा ने कोई वादा तो नहीं किया है लेकिन भाजपा और कांग्रेस पर हमला करते हुए कहा है कि इन दलों ने संसद में महिलाओं के लिए आरक्षण जैसे नीतिगत फैसलों पर कुछ नहीं किया और सिर्फ जुबानी जमाखर्च किया है।

अचानक नहीं याद आई महिलाओं की

उत्तर प्रदेश के राजनीतिक संगठनों के लिए महिलाएं एक महत्वपूर्ण वोट बैंक कोई अचानक नहीं बन गईं हैं। बल्कि पिछले कुछ वर्षों में राज्य में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी तेजी से बढ़ी है। रिपोर्टों के अनुसार, राज्य के मतदाताओं का लगभग 46.5 प्रतिशत महिलाएं हैं। उनकी संख्या न केवल संख्यात्मक रूप से बल्कि चुनावी भागीदारी के मामले में भी बढ़ी है। जनवरी की शुरुआत में जब मुख्य चुनाव आयोग सुशील चंद्रा ने मतदान कार्यक्रम की घोषणा की थी तो उन्होंने कहा था कि उत्तर प्रदेश में मतदाताओं की संख्या बढ़कर 15 करोड़ हो गई है, जिनमें से 6.98 महिलाएं हैं।

उन्होंने बताया है कि राज्य में पिछले चुनाव के बाद से महिलाओं की संख्या में सबसे अधिक वृद्धि हुई है। मतदाता सूची में 52 लाख महिलाओं के नाम जुड़े हैं। 2017 के आंकड़ों से पता चलता है कि उस चुनाव में राज्य में 63.31 प्रतिशत (4.5 करोड़) महिलाओं ने मतदान किया था जबकि पुरुष मतदाताओं में से सिर्फ 59 प्रतिशत (4.5 करोड़) ने मतदान किया था। 2012 के विधानसभा चुनावों में भी महिलाओं का मतदान प्रतिशत (60 प्रतिशत) पुरुषों (58.68 प्रतिशत) की तुलना में अधिक था।

बढ़ा है प्रतिनिधित्व

पिछले दशक में महिला राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी बढ़ा है। 2017 में जब भाजपा सत्ता में आई थी तो राज्य की 403 सदस्यीय विधानसभा में 42 महिला विधायक थीं। यह 2012 से सात की वृद्धि थी जब 35 महिलाओं को विधानसभा के लिए चुना गया था। 2007 में सिर्फ 23 महिलाएं ही विधायक बनीं।

उत्तर प्रदेश में 1962 में केवल 46.6 फीसदी महिलाओं ने मतदान किया जबकि पुरुषों की भागीदारी 63.3 फीसदी थी। यूपी में महिलाओं की भागीदारी 1991 में 44.2 फीसदी से बढ़कर 2019 में 59.56 फीसदी हो गई है। ये भागीदारी पुरुषों की तुलना में बहुत तेजी से बढ़ रही है। पिछले 50 वर्षों में पुरुषों की भागीदारी मात्र 3.8 फीसदी बढ़ी है जबकि महिलाओं में ये 19 फीसदी बढ़ चुकी है।



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Divyanshu Rao

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