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मैला ढोने की कुप्रथा पर बन रही ये खास फिल्म, जानें इसके बारे में सबकुछ
देश में चम्बल इलाका उन हिस्सों में से एक है जहां अब भी एक समुदाय के लोग हाथ से मानव मल उठाते और ढोते हैं। इस मानवीय त्रासदी को लेकर चंबल जैसे इलाके में फीचर फिल्म 'मैला' बन रही है।
लखनऊ: स्वच्छ भारत अभियान के तहत केंद्र सरकार देश के खुले में शौच मुक्त होने की घोषणा कर चुकी है, लेकिन चंबल का इलाका अब भी इस समस्या की जद में है।
देश में चम्बल इलाका उन हिस्सों में से एक है जहां अब भी एक समुदाय के लोग हाथ से मानव मल उठाते और ढोते हैं। इस मानवीय त्रासदी को लेकर चंबल जैसे इलाके में फीचर फिल्म 'मैला' बन रही है।
चम्बल के इतिहास का यह पहला मौका है, जब यहां इस समस्या पर कोई बड़ी फीचर फिल्म बन रही है। इस फिल्म को मास्साब और बंदूक जैसी पुरस्कृत फिल्में बनाने वाले लेखक निर्देशक आदित्य ओम बना रहे हैं। इस फिल्म के लेखक निर्देशक की भूमिका भी निभा रहे आदित्य ओम तेलुगु फिल्मों के प्रसिद्ध अभिनेता भी हैं।
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अप्रैल माह से अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में देगी दस्तक
यह फिल्म अगले साल अप्रैल माह से अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में दस्तक देगी। इन दिनों अपनी यूनिट के साथ चम्बल में शूटिंग में व्यस्त आदित्य ओम फिल्म के बारे में बताते हैं कि यह फिल्म मैला ढोने की कुप्रथा को एक बच्चे के दृष्टिकोण से देखने की एक कोशिश है।
वह कहते हैं कि इस काम को करने वाले या इस काम को छोड़ चुके लोगों की जिंदगियां आसान नहीं है। हम दुनिया के सामने ऐसी तस्वीर सामने लाना चाहते हैं, जिसमें मानवता हर रोज दम तोड़ रही है।
फिल्म के निर्माता शाह आलम चम्बल के विषयों पर काफी अध्ययन कर चुके हैं। वह कहते हैं कि फिल्म झकझोर देने वाली होगी। मानवीय पहलुओं पर बन रही यह फिल्म जिंदगी और एक समाज की बड़ी समस्या को उकेरेगी।
उन्होंने कहा कि इस फिल्म में स्थानीय प्रतिभाओं को भी अपना हुनर दिखाने का मौका मिला है।फिल्म निर्माण में सहयोग कर रहे बुंदेलखंड दलित अधिकार मंच के कुलदीप कुमार बौद्ध कहते हैं कि इस विषय पर फ़िल्म बनना बहुत ही साहस का काम है।
फिल्म का निर्माण मार्डन सिनेमा के बैनर तले हो रहा है। दक्षिण भारत के कैमरामैन मधुसूदन कोटा और क्रिएटिव निर्माता आलोक जैन, अभिनेता शिवा सूर्यवंशी ने भी इस सत्र में में भाग लिया।
चंबल पर बनीं हैं कई फिल्में
एक दौर ऐसा आया था जब देश में बनने वाली हर चौथी फिल्म की कहानी या लोकेशन चंबल होती थी। इसी वजह से चंबल घाटी को 'फिल्मलैंड' कहा जाता है।
जमींदारों के अत्याचार, आपसी लड़ाई और जर, जोरू और जमीन के झगड़ों को लेकर 1963 में आई फिल्म 'मुझे जीने दो' के बाद इस विषय पर सत्तर के दशक में बहुत सारी फिल्में, चम्बल के बीहड़ और बागियों को लेकर बनीं, जिनमें 'डाकू मंगल सिंह -1966', 'मेरा गांव मेरा देश-1971', 'चम्बल की कसम-1972', 'पुतलीबाई-1972', 'सुल्ताना डाकू-1972, कच्चे धागे-1973', प्राण जाएं पर बचन न जाए-1974, 'शोले-1975', 'डकैत-1987', 'बैंडिट क्वीन-1994', 'वुंडेड : द बैंडिट क्वीन-2007', पान सिंह तोमर-2010, दद्दा मलखान सिंह और सोन चिरैया-2019 और निर्भय सिंह आदि प्रमुख हैं। इन फिल्मों में से कुछ फिल्मों में चम्बल की वास्तविक तस्वीर बड़ी विश्वसनीयता के साथ अंकित हुई है।
चम्बल में फिल्मकार बना सकते हैं बड़ी फिल्में
चम्बल में फिल्मांकन की दृष्टि से पीला सोना यानी सरसों से लदे खेत, इसके खाई-भरखे, पढ़ावली-मितावली, बटेश्वर, सिंहोनिया के हजारों साल पुराने मठ-मन्दिर, सबलगढ़, धौलपुर, अटेर, भिंड के किले, चंबल सफ़ारी में मगर, घड़ियाल और डॉल्फिनों के जीवन्त दृश्य और चांदी की तरह चमकती चंबल के रेतीले तट और स्वच्छ जलधारा।
एक्टिविस्ट शाह आलम कहते हैं कि इसके अलावा और भी बहुत कुछ है चम्बल में, जिस पर फिल्मकारों और पर्यटकों की अभी दृष्टि पड़ी नहीं है। चंबल बहुत ही उर्वर है इस मामले में नए फिल्मकारों को इसका लाभ उठाना चाहिये।
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