खालीपन को भरता, हमसफर बनता टीवी, जानें इस बुद्धू बक्से का इतिहास

suman
Published on: 22 Nov 2016 11:49 AM GMT
खालीपन को भरता, हमसफर बनता टीवी, जानें इस बुद्धू बक्से का इतिहास
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prabhu jhingran प्रभु झिंगरन

लखनऊ: हमारे खालीपन को भरता, हमसफर बनता टीवी, कहने को छोटा पर्दा, मगर असर बड़े से भी बड़ा। 60 का वो दशक, चुपके-चुपके हमारी जिंदगी में दाखिल हो रहा था टीवी। कालांतर में इसने कुछ यूं रंग बदला कि ब्लैक एंड व्हाइट से रंगीन हो गया। सुबह-सवेरे रामायण के बहाने टीवी की पूजा, फिर होता था कोई काम दूजा। ऐसे ही बीतती थी हम लोगों की सांझ। नयी सदी आयी तो मानो टीवी भी नया हो गया। टीवी के चेहरे-मोहरे दूरदर्शन से दूर हुए दर्शक तो इसने भी अपना लिए सैकड़ों चैनल। टीवी की नई चाल-ढाल, नए नाज-नखरे। खबरों के रसिया हैं तो अलग चैनल, संगीत प्रेमी हैं तो अलग। अनेक रंग समेटे तरह-तरह के चैनल। खाने से लेकर ओढ़ने-पहनने तक, चोखे आनंद से शुरू कर परमानंद तक। ज्ञान-विज्ञान के ऐसे कार्यक्रम कि कौन कहेगा इसे बुद्धु बक्सा। कल 21 नवंबर यानी टेलीविज़न दिवस है। टीवी ने बदलती दुनिया के साथ खुद को बदला है। तो हम भी बदलें और चलें अपने हमसफर टीवी के साथ कदम से कदम मिलाकर।

प्रभु झिंगरन

टीवी देखते-देखते एक अरसा हो गया है हम लोगों को। कभी टीवी ने हमारे लिए खुद को बदला तो कभी हम टीवी की खातिर बदले हैं। 70-80 के दशक में दर्शक साहित्यिक रुचियों वाले थे, टीवी ने साहित्य परोसा। जब हमारे यहां परदेसी चैनल आएं और एमटीवी, वीटीवी ने धूम-धड़ाका मचाया, हमारी युवा पीढ़ी उसी रंग में रंग गयी। आज हालात ऐसे हैं कि फ्री टू एयर चैनल के तौर पर दूरदर्शन दुनिया का सबसे बड़ा नेटवर्क बन गया है। आज टेलीविजन के बगैर भारतीय समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। भारत में टेलीविजन के पांव पसारने की कहानी भी रोचक और रोमांचक है। हमारे देश में टेलीविजन के प्रसारण की शुरूआत दिल्ली से 15 सितंबर 1959 में इस्तेमाल के तौर पर स्कूल टीवी के रूप में हुई।

1972 में अमृतसर और मुंबई के केन्द्र अस्तित्व में आये। साल 1975 तक भारत में कुल 7 केन्द्र की मदद से टेलीविजन प्रसारण मंथर गति से चलता रहा। यह वो समय था, जब टेलीविजन विशिष्ट और उच्चवर्गीय घरों में प्रवेश कर पाया था। ऐसे में कुछ खास कार्यक्रमों को देखने के लिए पूरे मोहल्ले का किसी के घर में इकट्ठा होना या गांव की चौपाल में जमा होना आम सामाजिक घटना थी, लेकिन साल 1980 का दशक दूरदर्शन का था। रामानन्द सागर द्वारा निर्देशित धारावाहिक रामायण की अप्रत्याशित सफलता और लोकप्रियता का आलम ये था कि धारावाहिक के प्रसारण के समय सड़कों पर सन्नाटा छा जाता। टेलीविजन संस्कृति की पैठ मध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय समाज में तेजी से होने लगी। साल 1982 आते-आते एशियाड खेलों के बहाने टेलीविजन रंगीन हो गया। यह भारतीय समाज के लिए एक अजूबे से कम नहीं था। तमाम विदेशी कंपनियां भारत में सस्ते टीवी सेटों की सौगात लेकर आने लगीं और मनोरंजन के बहाने भारत में टेलीविजन एक बड़े बाजार में तब्दील होता गया जो सिलसिला आज भी जारी है।

साल 1987 में भारत में पहली बार आयोजित विश्व कप क्रिकेट के सजीव प्रसारण ने इस माध्यम को अपार और अविश्वसनीय लोकप्रियता दिला दी। पिछले दो दशकों की प्रसारण यात्रा के दौरान भारतीय टीवी ने आश्चर्यजनक प्रगति की है। अब टेलीविजन मात्र मनोरंजन का साधन न रहकर सूचना, समाचार और किसी हद तक प्रोपेगंडा के लिए हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। साल 1990 में खाड़ी युद्ध के विश्व स्तर पर सजीव प्रसारण ने नये आयाम और रास्ते खोले और समूचा विश्व सिमट कर एक छोटे से गांव में परिवर्तित हो गया। शायद ही दुनिया में टेलीविजन प्रसारण के विस्तार का ऐसा कोई प्रमाण देखने को मिले जब 1984 में देश में तकरीबन हर दिन एक नया ट्रांसमीटर लगाने का कीर्तिमान स्थापित किया गया। आज चैनलों की लम्बी कतार दर्शक के रिमोट के नियंत्रण में है। नये चैनलों की सूचना मंत्रालय में स्वीकृति हेतु पड़ी हुई लम्बी फेहरिस्त बताती है कि आने वाले दिनों में यह उद्योग और भी तेजी से पनपेगा। फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स के सर्वेक्षण की मानें तो साल 2018 तक भारत की मीडिया एवं एन्टरटेनमेंट सेक्टर की विकास दर किसी भी अन्य उद्योग से ज्यादा होगी।

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आज नित नई तकनीक से हाथ मिलाते हुए टेलीविजन देखने का पूरा तरीका बदलता जा रहा है। अब टेलीविजन मोबाइल फोन और इंटरनेट पर भी उपलब्ध है। टेलीविजन, हाई डेफिनेशन और थ्री डायमेंशनल हो गया है। टेलीविजन प्रसारण और इंटरनेट सेवाएं मिल कर भविष्य में और भी कई अकल्पनीय गुल खिला सकती हैं इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। जो भी होगा पर्दे पर आएगा, यानी पर्दा छोटा ही सही, ख्वाब बड़े हैं। दुनिया भर के लागों को आपस में जोड़ने और सार्थक संवाद कायम कर पाने में टेलीविजन की अहम भूमिका को देखते हुए 19 सितंबर 1996 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने हर साल 21 नवंबर को विश्व टेलीविजन दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया।

21 नवंबर की तारीख इसलिए चुनी गई, क्योंकि इसी दिन पहले विश्व टेलीविजन फोरम की बैठक आहूत की गयी थी। हमारे देश में टेलीविजन का विकास एक सरकारी एजेंसी के रूप में हुआ जो सालों तक जन-जन के लिए सूचना और मनोरंजन का मजबूत माध्यम रहा। साल 1982 में रंगीन प्रसारण के साथ भारतीय टेलीविजन उद्योग ने व्यावसायिकता का रूख किया और देखते-देखते पूरे हिन्दुस्तान का टेलीविजन प्रसारण उद्योग एक बड़े बाजार में तबदील हो गया। इस अंधी दौड़ में सांस्कृतिक, साहित्यिक विषय सामग्री एक सोची समझी साजिश के तहत लगातार कम होते-होते एकदम से गायब हो गई। यह विपन्नता किसी देश, काल और समाज के चरित्र को उजागर तो करती ही है, उस समाज के भविष्य को लेकर संकेत भी करती है।

छोटे पर्दे से गायब होता साहित्य

सूचना क्रान्ति के विस्फोट और तेजी से बदलती तकनीक के तूफानी दौर में भारतीय टेलीविजन से स्तरीय, प्रेरणास्पद साहित्यिक कंटेंट का पिछले एक दशक में तेजी से गायब होते जाने का सिलसिला खतरनाक और शर्मनाक तो है ही, इसके परिणाम भी दूरगामी हैं। जिन्हें तमस, बुनियाद और हम लोग जैसे धारावाहिकों की तनिक भी स्मृति है, उनके लिए आज का छोटा पर्दा देख पाना पीड़ादायक है। 80 और 90 के दशक में साहित्यिक कृतियों पर जितने धारावाहिक और टेलीफिल्म आदि बने, वे आज के दर्शक के सामने सीधा सवाल रखते हैं कि टेलीविजन से साहित्य क्यों गायब होता गया, होता जा रहा है?

यहां अपराध कथाएं हैं

दूरदर्शन को छोड़ दें तो आज सैकड़ों चैनलों की चकाचौंध में कहीं कोई ऐसा नाम याद नहीं आता, जहां भूले से भी कोई स्तरीय साहित्यिक कृति पर आधारित कोई कार्यक्रम देखने को मिल जाए। यह सन्नाटा भयावह और साजिश भरा है। यहां प्रवचन और पाठ हैं, अपराध कथाएं हैं, व्यंजन हैं, टेलीशॉप, लॉटरी और ईनाम वगैरह हैं, सैरसपाटा है, चुटकुले हैं, फूहड़ हास्य है, नूरा-कुश्ती है, सास-बहू की साजिशों की पाठशाला है, अमेरिकी टेलीविजन से बेहयाई के साथ चुराए गए म्युजिक शो और बिग बाॅस जैसे फूहड़ तमाशे हैं, सबसे ऊपर फिल्मी फास्ट-फूड है, उससे ऊपर विज्ञापन हैं और उससे भी ऊपर है माई-बाप यानी टी.आर.पी.। यहां नहीं है तो जिंदगी का यथार्थ और संवेदना! क्योंकि टी.वी. चैनलों की नजर में हिंदुस्तान एक बड़ा बाजार है और कुछ भी नहीं। सुधीश पचौरी के शब्दों में… असली चीज है पैसा, चंद्रकांता का चूरन करना हो तो कर देंगे। गोदान का गोबर करना हो तो कर देंगे। जनता को चाहिए मनोरंजन, हमें चाहिए पैसा। तुम्हें क्या चाहिए? या फिर मनोहर श्याम जोशी के शब्दों में- इलम, चिलम, फिलम में समाहित है समूचा भारतीय प्रसारण जगत।

दूरदर्शन से दूर दर्शक

कहीं किसी रोज का अखबार उठा लीजिए और टेलीविजन-फिल्म दिग्दर्शिका वाला पृष्ठ खोलकर यह जानने की कोशिश कीजिए कि कहीं किसी चैनल पर कोई सुरुचिपूर्ण, साहित्यिक कार्यक्रम आज देखने को मिल सकता है क्या? और यकीन मानिए, जो आपके हाथ लगेगा, वह निराशा के सिवाय और कुछ नहीं होगा। दूसरे चरण में फिर एक निगाह चैनलों की लंबी सूची पर डालिए और यह जानने की कोशिश कीजिए कि क्या भारतीय सांस्कृतिक विरासत, संगीत, नाटक, शिल्पकला आदि विषयक कोई कार्यक्रम देखने को मिल सकता है? आपको फिर निराश होना पड़ेगा। इस शून्यता के दूरगामी परिणाम होने जा रहे हैं और जिसका शिकार आने वाली पीढ़ियां होंगी। दिक्कत यह है कि प्रसार भारती की प्राथमिकताओं में यह सब कुछ है, लेकिन समस्या यह है कि आज के टेलीविजन दर्शक की प्राथमिकताओं में दूरदर्शन काफी पीछे है अथवा है ही नहीं, जिसकी मोटी वजहों में केबल चैनलों की दादागिरी, खराब प्रसारण, गुणवत्ता और कार्यक्रम प्रस्तुति में फूहड़ रस्म-अदायगी है।

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भाषाई प्रदूषण

चैनलों की अंधी दौड़ ने एक और गंभीर और दीर्घगामी खतरा पैदा कर दिया है और वह है भाषाई प्रदूषण! लोगों का, खासतौर पर युवा पीढ़ी का भाषाई संस्करण नष्ट-भ्रष्ट करने में ये चैनल पूरी निष्ठा और समर्पण भाव से लगे हुए हैं। क्या उच्चारण, क्या वाक्य विन्यास, सब कुछ खुलेआम भ्रष्ट! यहां सुश्री सुसरी हो जाता है तो क्षेत्र, छेत्र! सन 2001-2002 में पं. विद्यानिवास मिश्र ने बतौर, सदस्य प्रसार भारती बोर्ड, हिन्दी और अन्य प्रमुख भारतीय भाषाओं की चुनी हुई कृतियों पर धारावाहिक और टेलीफिल्म आदि बनाने की बात उठाई थी। इससे पूर्व असंगठित तौर पर छिटपुट रूप से ऐसे विषयों पर काम तो होता ही रहता था, पर यह एक अच्छा संकेत और शुरुआत थी।

भोपाल में आयोजित पहली कार्यशाला में, प्रथम चरण में बनी 6-7 ऐसी फिल्मों का प्रदर्शन और विश्लेषण किया गया। कार्यशाला में लखनऊ केन्द्र की प्रस्तुति प्रसाद जी की कहानी पर आधारित टेलीफिल्म ‘मधुआ’ की खासी चर्चा हुई, पर हैरत की बात ये है कि आज तक यह फिल्म प्रसारण का मुंह नहीं देख पाई। इसी दौरान बीच बहस में (निर्मल वर्मा), डिप्टी कलेक्टरी (अमरकांत), बुद्धू का कांटा (चंद्रधर शर्मा गुलेरी) सहित कई अमर कृतियों पर 14-15 फिल्में अलग-अलग केंद्रों ने बनाई। लेकिन मोटे तौर पर ये जल्दबाजी में बनाई गई फिल्में थीं। तमाम क्षमताओं के बावजूद फिल्में बनाने के लिए निर्देशकों को वांछित तकनीकी संसाधन और सुविधाएं उपलब्ध नहीं कराई गईं।

उन्हें कदम-कदम पर समझौते करने पड़े और समझौतों की पीड़ा फिल्मों में दिखाई भी दी। वर्ष 2005-06 में भारत की कालजयी कृतियों पर आधारित ‘कथा सरिता’ नाम से महत्वाकांक्षी योजना लागू की गई। इस योजना की सबसे बड़ी खामी ये थी कि योजना में मात्रा (कहानियों की संख्या) पर ज्यादा जोर दिया गया, गुणवत्ता पर कम। यही बात लागू होती है फिल्म निर्माण के लिए साहित्यिक कृतियां चुनने वाली समिति के साथ। उन माननीय सदस्यों की योग्यता, अनुभव या नियत पर शक किए बगैर, यह तथ्य अपनी जगह खड़ा है कि किन कथाओं का प्रभावी रूपांतरण संभव है और इसमें कितनी तकनीकी जटिलताएं आएंगी, यह माध्यम को समझने वाला कोई सुदीर्घ अनुभवी ही बता या तय कर सकता है।

एक साहित्यकार मीडियाकर्मी का कहना है-साहित्यिक कार्यक्रमों के दर्शक सदैव सीमित रहते हैं। दूसरे, ‘कथा सरिता’ में न केवल नये पुराने कालजयी साहित्य को शामिल किया गया है, बल्कि ऐसी कृतियों को भी लिया गया है जिनके कालजयी होने की संभावना है। दूरदर्शन के दक्ष फिल्मकार रामेंद्र सरीन कई ऐसी फिल्मों का निर्देशन कर चुके हैं। उनका मानना है-साहित्यिक कार्यक्रमों के निर्माण में करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं, पर इसकी मार्केटिंग और समुचित प्रचार-प्रसार के लिए कुछ नहीं किया जा रहा है।

आम दर्शक की नजर से देखें तो ज्यादातर केबल सेवाओं वाले तमाम प्रावधानों के बावजूद दूरदर्शन नहीं दिखाते और दिखाते हैं तो काफी खराब गुणवत्ता वाला प्रसारण होता है। शहरी छतों से एंटीना पहले ही गायब हो चुकी थी, अब गांवों और कस्बों में भी यही हो रहा है। दूसरी लुभावने पैकेजों वाली सेवाओं के मुकाबले दूरदर्शन का डी. टी. एच. पनप नहीं पाया। परिणाम स्वरूप ऐसे दर्शकों की भी पर्याप्त संख्या है जो चाहकर भी दूरदर्शन नहीं देख पाते हैं। कुल मिलाकर पिछले 5-6 वर्षों में दूरदर्शन का जनाधार तेजी से नीचे खिसका है और दूरदर्शन के दर्शक लगातार कम होते गए।

सच तो यह है कि जो दर्शक हैं भी, वो भी दूरदर्शन से मजबूरी में जुड़े हैं। मीडिया के घनघोर व्यवसायीकरण का सच यह है कि भारतीय दर्शक की रुचि को उपभोक्तावादी साजिश के तहत लगातार प्रदूषित और भ्रष्ट किया जाता रहा है, और अब तो चैनलों के बीच इस बात की होड़-सी लगी हुई है कि कौन जनता को कितना ज्यादा बेवकूफ बना सकता है।

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दर्शक हैरान-परेशान

एस.एम.एस. के खेल में लुटा-पिटा दर्शक हैरान-परेशान है। इससे बेफिक्र चैनल कहते हैं कि जो बिकेगा, बेचेंगे। जैसा बिकेगा, बेचेंगे। दर्शक मजबूर हैं, जो भी परोसा जा रहा है उसे खाने के लिए। ऐसे में दूरदर्शन के साहित्यिक कृतियों पर आधारित आधे-अधूरे प्रयास कोई खास मायने नहीं रखते। तथाकथित तौर पर साहित्य और संस्कृति को समर्पित पंगु प्रसार भारती जैसे सबसे बड़े जनप्रसारक समूह के पास अपना कोई विशेष विभाग-प्रमुख वर्षों से नहीं है, और नतीजा ये हुआ कि एक ही कार्यक्रम एक हजार बार से ज्यादा प्रसारित हो चुका है।

निजी चैनलों की मजबूरी

निजी चैनलों की मजबूरी यह है कि यदि वे साहित्य परोसने का खतरा मोल लेते हैं तो विज्ञापन एजेंसियां उनसे दूर चली जाएंगी। पूर्व उपमहानिदेशक और प्रख्यात कवि लेखक डा. अशोक त्रिपाठी का मानना है कि व्यावसायिक दबावों के चलते बाहरी निर्माता भी साहित्यिक कृतियों के चयन की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं। यही वजह है कि सुरभि, सांस्कृतिक पत्रिका जैसा कोई दूसरा कार्यक्रम दूरदर्शन क्या किसी भी चैनल पर दोबारा देखने को नहीं मिला।

बौद्धिक प्रदूषण

धर्मयुग, साप्ताहिक-हिंदुस्तान, सारिका जैसी पत्रिकाएं बन्द हुईं। हिंदी के अखबारों के पास जगह का टोटा है, विविध भारती की आवाज एफ. एम. ने बंद कर दी। फिल्म जगत से कुछ उम्मीद करना व्यर्थ है, अब छोटा पर्दा भी बाजारवाद का शिकार हो गया है। कभी-कभी लगता है कि हम एक मरते हुए मूल्यहीन समाज की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं, जहां किताबों, पत्रिकाओं की जगह एस.एम.एस. साहित्य ले लेगा, यह होगा भारत का रचनात्मक स्तर पर कुंठित, तनावग्रस्त और रसविहीन समाज। वक्त आ गया है कि हवाई तरंगों के मार्फत फैलाए जा रहे बौद्धिक प्रदूषण के खिलाफ संगठित रूप से आवाज उठाई जाए।

मीडिया की दुनिया में रंगों के हमसफर

बात 1982 की है। भारतीय जनसंचार संस्थान उन दिनों साउथ दिल्ली की कलरफुल मार्केट साउथ एक्स. में हुआ करता था, और चर्चे थे एशियन गेम्स विलेज की चकाचौंध के। जेएनयू कैंपस में शिफ्ट करने की योजनाएं अभी ड्राफ्ट ही हो रही थीं कि एक दिन मिनिस्ट्री से आ गया फरमान कि नई बिल्डिंग ड्राइंग ड्राफ्टिंग की ड्राइंग टेबलें पैक करो, सरकार ने भारत में कलर टीवी प्रसारण शुरू करने का फैसला कर लिया है और आईआईएमसी में ही दूरदर्शन स्टाफ को कलर टीवी की टेक्निकल ट्रेनिंग दी जाएगी।

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वसंत साठे सूचना प्रसारण मंत्री थे और उन्होंने दूरदर्शन टीम से जिन चार प्रोड्यूसरों को भारत में टीवी की दुनिया रंगीन करने के लिए आईआईएमसी भेजा, उनमें शुमार थे लखनऊ दूरदर्शन के प्रभु झिंगरन, दिल्ली दूरदर्शन में प्रोड्यूसर न्यूज राघवाचारी और टीवी एंकर नरेश श्रीवास्तव। मैं भाग्यशाली रहा कि इनमें से राघवाचारी आईआईएमसी में ही रम गए और हमें टीवी की दुनिया का दर्शन कराया, प्रभु झिंगरन लखनऊ में हमारी पीढ़ी के पत्रकारों के फ्रेंड फिलासफर और गाइड बने। इन्हीं के मुंह से सुने भारत की सूचना और समाचार सेवाओं के रंगीन होने के किस्से। प्रभु झिंगरन तो इंडियन मीडिया जगत में रंगीनियों के मास्टर ही बन गए।

एशियाई गेम्स के मद्देनजर दूरदर्शन रंगीन हुआ तो कलर टीवी इम्पोर्ट करने की छूट से ऐसी लूट मची कि सिंगापुर और हांगकांग के बाजार खाली हो गये। दूरदर्शन को खबरों का घूमता आईना देने वाला कार्यक्रम “तीसरी आंख” प्रभु जी के ही दिमाग की उपज थी और यह प्रभु झिंगरन का उन दिनों का आइडिया था जब वे कानपुर में आज अखबार में पत्रकार हुआ करते थे। बीएचयू में पत्रकारिता फर्स्ट बैच के टॉपर और चित्रकला के स्नातक प्रभु झिंगरन ने अखबारों में लाइव रिपोर्टिंग को लोकप्रिय बनाया, टीवी में गए तो उसे रंगीन बनाने वाली पायनियर टीम का हिस्सा बने, तीन साल तक इलाहाबाद बैंक के मैगजीन एडीटर और पीआरओ की नौकरी भी की, किंतु पत्रकारिता और मीडिया की सरगर्मियों में जीने वाले प्रभु को बैंक में रुपये गिनने की नौकरी रास न आई और दूरदर्शन लौटे तो एजूकेशन टीवी दीक्षा के निदेशक, दूरदर्शन लखनऊ भोपाल और रायपुर के केंद्र निदेशक रहे।

नवोदित पत्रकारों को पढ़ाना तो इनकी हॉबी रही है। मीडिया की यात्राकथा लिखने में मशगूल प्रभु झिंगरन ने टेलीविजन की दुनिया से लेकर पीआर और मीडिया पर छह किताबें लिखी हैं। इनकी दो किताबों को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुके हैं। टेलीविजन की दुनिया पुस्तक के लिए हिंदी संस्थान का बाबू राव विष्णु पराणकर पुरस्कार और अंग्रेजी पुस्तक इलस्ट्रेटेड मीडिया ग्लासरी के लिए भारत सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय का भारतेंदु पुरस्कार।

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