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Dilip Kumar जिसने जिया हर एक किरदार, अब सिर्फ यादों में ही साथ हैं
Dilip Kumar: यूसुफ खान कहें या दिलीप कुमार, नाम आते ही वो मासूम चेहरा सामने आ जाता है जिसने हमेशा से करोड़ों दिलों पर राज किया।
Dilip Kumar: पेशावर के किस्सा ख्वानी बाजार के उस मकान में अब यूसुफ खान (Yusuf Khan) फिर कभी नहीं आएंगे, अब सिर्फ उनकी यादें वहां बसेंगी। यूसुफ खान कहें या दिलीप कुमार, नाम आते ही वो मासूम चेहरा सामने आ जाता है जिसने हमेशा से करोड़ों दिलों पर राज किया। 1930 के आसपास, यूसुफ के माता पिता और कई करीबी रिश्तेदार, पेशावर छोड़ कर महाराष्ट्र में देवलाली के पास आकर बस गए थे। देवलाली और नासिक में यूसुफ ने बार्नेस स्कूल तथा बाद में खालसा कॉलेज में पढ़ाई की। यूसुफ के पिता की ख्वाहिश थी कि उनके बेटे को एक दिन 'आर्डर ऑफ ब्रिटिश एम्पायर' (ओबीई) सम्मान मिले। लेकिन बेटे ने पिता के सपने से बहुत आगे जा कर सम्मान और शोहरत पाई।
अपनी जीवनी में दिलीप साहब ने लिखा है कि यूसुफ खान को दिलीप कुमार बनाने में मशहूर एक्ट्रेस देविका रानी का हाथ था। 21 साल की उम्र में यूसुफ की मुलाकात देविका रानी से मुम्बई में अपने दोस्त और पेशावर के यार राजकपूर के जरिये हुई थी। फ़िल्म इंडस्ट्री के सबसे बड़े और नामचीन स्टूडियो, बॉम्बे टॉकीज की देविका रानी से मुलाकात ने यूसुफ को फिल्मी दुनिया में पहुंचा दिया।
निजी पसंद के आधार पर चुना था किरदार
दिलीप कुमार सिनेमा की दुनिया में आ चुके थे और उनके सफर की शुरुआत 'ज्वार भाटा' फ़िल्म से हुई। ये सफर 40 के दशक में परवान चढ़ा और सन 44 से 55 तक उन्होंने 23 फिल्मों में काम किया। दिलीप ऐसे शख्स थे जिन्होंने एक एक किरदार को बहुत सोच समझ कर और अपनी निजी पसंद के आधार पर चुना। उन्होंने सत्यजीत रे की फ़िल्म 'अभिजन' में काम करने से मना कर दिया था। यही नहीं हॉलीवुड के दिग्गज कलाकारों वाली फिल्म 'लॉरेंस ऑफ अरेबिया' भी ठुकरा दी थी।
एक्टिंग में विशेष स्टाइल बनाई
दिलीप अब सिर्फ दिलीप नहीं बल्कि दिलीप साहब बन चुके थे। उनकी अदाकारी अपने आप में एक स्कूल, एक विशेष स्टाइल बन गई थी। हालांकि उन्होंने अपनी ऑटोबायोग्राफी में इस बात से इनकार किया है लेकिन सच्चाई यही है कि दिलीप साहब की महानतम फिल्मों में उनके किरदार ट्रैजिक या अफ़सोसनाक शख्सियत के प्रतिबिंब रहे हैं। शहीद, दाग, मेला, अंदाज़, दीदार और जुगनू इसी स्टाइल की एक्टिंग की मिसाल हैं। उन्होंने खुद ही लिखा है कि सिनेमाई किरदार निभाते निभाते उनके दिलोदिमाग पर असर पड़ गया था। वो कैमरे के सामने से हटने के बाद भी किरदार से बाहर नहीं आ पाते थे। लगातार ट्रैजिक किरदार निभाने से उनकी मनोदशा प्रभावित हो रही थी। खुद को संभालने के लिए उनको डॉक्टर की मदद लेनी पड़ी और मशहूर ब्रिटिश मनोचिकित्सक डॉ डब्लू डी निकोल्स ने दिलीप साहब को इस परेशानी से निजात दिलाई। डॉ निकोल्स की सलाह पर उन्होंने कॉमेडी फिल्में करनी शुरू कर दी थीं। कॉमेडी में भी दिलीप साहब ने झंडे गाड़ दिए और सन 55 की उनकी फिल्म आज़ाद बेहद सफल रही।