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MOVIE REVIEW: अगर नहीं करते हैं औरतों की इज्जत तो एक बार जरूर देखें PINK

suman
Published on: 16 Sept 2016 11:02 AM IST
MOVIE REVIEW: अगर नहीं करते हैं औरतों की इज्जत तो एक बार जरूर देखें PINK
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फिल्म- पिंक

निर्देशक- अनिरुद्ध रॉय चौधरी

निर्माता- शूजित सिरकार और रश्मि शर्मा

अवधि- 2 घंटे 16 मिनट

रेटिंग- 3.5/5

कलाकार- अमिताभ बच्चन, ताप्सी पन्नू, कृति कुलहरी, आन्द्रैया तैरांग, पियूष मिश्रा अंगद बेदी आदि।

फिल्म पिंक आपको अंदर तक भेद कर रख देगी। कम भाषणबाजी और बेहतरीन तर्क के साथ लाजवाब कोर्टरूम ड्रामा रचती है । धीरे धीरे ये आपको अपनी कहानी में दाखिल कराकर आपको सभी घटनाओं का चश्मदीद बना देती है और जब जिरह छिड़ती है तो आप अपना दिल दिमाग सभी कुछ उस समाज के सामने बेबस पाते हैं जहां रौशनी के पांव में अंधेरे की बेड़ियां पहनाने का शगल पाल लिया गया हो। पिंक कमर्शियल फिल्म की तरह व्यवहार करते हुए भी सच्ची लगती है। लेकिन इंटरवल के पहले और उसके बाद के कहने में फिल्म अलग-अलग छोर पर होती है जिसकी वजह से एक कमी सी महसूस होती है फिल्म को देखने पर मगर ये पकड़ में नहीं आती। पिंक आज के परिवेश में एक जरूरी फिल्म है और जरूर देखी जानी चाहिए।

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सारे पत्ते दिखाकर भी चौंकाएगी पिंक

फिल्म पिंक की कहानी एक घटना से प्रभावित लोगों की बैचेनी और घबराहट के साथ खुलती है। ये लोग अलग-अलग पारिवारिक और सामाजिक बैकग्राउंड से हैं। दिल्ली के किसी रिसॉर्ट में एक लड़की मीनल अरोड़ा यानि की ताप्सी पन्नू एक प्रभावशाली नेता के भतीजे राजवीर यानि कि अंगद बेदी पर जानलेवा हमला कर देती है। इस घटना के बाद वो अपनी दो साथियों फलक अली यानि कि कृति कुलहरी और आन्द्रेया के साथ वहां से घबराहट में भाग निलकती हैं। वहीं दूसरी ओर राजवीर की जान बच जाती है, लेकिन अब वो और उसके साथी इन तीनों लड़कियों को अलग-अलग तरीके से परेशान करने लगते हैं जिससे ये सभी मानसिक तौर पर जूझ रही हैं और वो पुलिस में शिकायत भी दर्ज कराती हैं।

इनकी सारी गतिविधियां लड़कियों की कॉलोनी में रहने वाले रिटायर एडवोकेट दीपक सहगल यानि कि अमिताभ बच्चन बराबर देख रहे हैं। एक दिन अचानक मीनल को पुलिस उठा ले जाती है और केस मीनल और लड़कियों के खिलाफ बन जाता है। लड़कियों की इस परेशानी के बराबर चश्मदीद रहे दीपक सहगल इनका केस अपने हाथ में लेते हैं और लड़कों की ओर से वकील होते हैं एडवोकेट प्रशांत यानि कि पीयूष मिश्रा। बस यहीं से फिल्म एक बेहतरीन कोर्ट रूम ड्रामा की शक्ल ले लेती और आखिर तक आपको अपने संवादों और सीन के इंटेन्सिटी में दाखिल कराकर आपको कहानी से जोड़ लेती है। फिल्म का स्क्रीनप्ले फर्स्ट हाफ में सुस्त है तो दूसरे हाफ में गजब का क्रिस्प लिए हुए। रितेश शाह और अनिरुद्ध के संवाद और कहानी कहने के ढंग में कहीं भी बेवजह की भाषणबाजी नहीं है। किरदारों की भाषा से लेकर उनके पहनावे और रियल कोर्ट रूम पर कमाल का काम स्क्रिप्ट में किया गया है।

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अमिताभ ही नहीं सभी अव्वल

फिल्म पिंक के सारे कलाकारों के लिए नए दायरे देने वाली फिल्म साबित होगी। महानायक अमिताभ बच्चन जो कि वकालत छोड़ चुके हैं। पत्नी की बीमारी की वजह से वो जब अरसे बाद कोर्ट में आते हैं तो उनमें आत्मविश्वास की कमी झलकती है और अमित जी ने इस सीन में कमाल का अंडरप्ले किया है। ताप्सी पन्नू मीनल अरोड़ा के रोल में उसका दुख उसकी झिझक उसकी तकलीफ सब कुछ भावनाओं में उड़ेल कर रख देती है। फलक अली के किरदार में कृति फिल्म का वो कोण देती हैं जहां से फिल्म स्त्री अधिकारों वाली जिरह में मजबूत होती है। आन्द्रेया ने फिल्म में नॉर्थ इस्ट से महानगरों में जद्दोजहद करने वाली लड़कियों की हालत को स्वाभाविक तरीके से बयां किया वो इस रोल में सूट करती हैं। अंगद बेदी का ऐरोगैन्ट रवैया हो या उनके दोस्तों की दूषित मानसिकता सभी किरदार में दिखती हैं। पीयूष मिश्रा साहब वकील प्रशान्त के किरदार में वो तल्खी और तेवल लाते हैं जो कहानी का संतुलन भी बनाती है। फिल्म में छोटे मोटे रोल में भी हर कलाकार सधा और सटीक लगता है। फिल्म में सरप्राइज़ रोल में पत्रकार दिबांग भी हैं।

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तकनीक में भी पिंक लाजवाब

तकनीकी पहलुओं की बात करें तो यहां दिल्ली के असल लोकेशन में हुई शूटिंग और उसके पीछे अभीक का कैमरा एक किरदार की तरह काम करता है। फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर हो या संगीत या फिर फिल्म की एडिटिंग सभी फिल्म को ऊपर उठाने का काम करते हैं।

'पिंक' सिनेमा की ताकत

फिल्म पिंक में एक खास तरह का रहस्य काम करता है जो फिल्म की आत्मा जैसा है।ये एक संतुलित फिल्म है जो मौजूदा दौर में स्त्री अधिकारों की जगह उन्हें सिर्फ जीने देने पर बहस छेड़ती है। ये अपने दर्शक को भी चुनौती देगी ।



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