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इस सिंगर के गानों से छिड़ते थे सभी के दिलों के तार, 50-60 के दशक में थे हर किसी की आवाज

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Published on: 23 Dec 2016 5:01 PM IST
इस सिंगर के गानों से छिड़ते थे सभी के दिलों के तार, 50-60 के दशक में थे हर किसी की आवाज
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mohammd-rafi

लखनऊ: हिंदी सिनेमा के उस फनकार को भला कौन भूल सकता है, जिसने ज़माने की हूक में अपनी एक गायकी को मिसाल बना दिया। उनके गानों की मिठास न केवल इंडिया में बल्कि दूर देशों के लोगों के कानों में आज भी घुली हुई है। हम बात कर रहे हैं हिंदी सिनेमा की मंझी और अलहदा गायकी वाले सुरों के सरताज मोहम्मद रफी जी की। गायकी के इतिहास में उनका नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा गया है। 24 दिसंबर को सरस्वती कंठ वाले इस महान गायक की बर्थ एनीवर्सरी है। एक तरफ जहां लोग मोहम्मद रफी की आवाज के दीवाने हैं, वहीं इनकी सादगी, विनम्रता और सरलता ने का हर कोई कायल था।

मोहम्मद रफी जी का जन्म पंजाब के सुल्तान सिंह गांव में 24 दिसंबर 1924 को एक मिडिल क्लास फैमिली में हुआ था। बचपन से ही उन्हें गुनगुनाने की आदत थी। जब वह 6 साल के हुए थे, तभी से इनमें गायकी का शौक उबाल लेने लगा था। नन्हें रफी के घर के पास में एक नाई की दुकान थी। जहां अक्सर एक फ़कीर गाते हुए आता था। जब भी वह फ़कीर उस दुकान के सामने से होकर निकलता था, तो नन्हें रफी उसके पीछे लग जाते थे और उसकी नक़ल करते हुए खुद भी गाने लगते थे। उनकी नक़ल में भी गाने की इतनी मिठास देखकर उस फ़कीर ने उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा कि 'बेटा एक दिन तू बहुत बड़ा गायक बनेगा।' अब इसे उस फ़कीर की दुआ कहें या फिर मोहम्मद रफी जी का हुनर, उनकी गायकी के जादू ने पूरे देश को उनका दीवाना बना दिया।

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मोहम्‍मद रफी ने जब 1946 में फिल्म 'अनमोल घड़ी' में 'तेरा खिलौना टूटा ' गाने से अपनी आवाज का सुर बिखेरा, तो हर कोई उन्हें सुनता ही रह गया। इसके बाद तो जैसे उनकी गायकी को शोहरत के पंख ही लग गए। इसके बाद उन्होंने कभी मुड़कर नहीं देखा मोहम्मद रफी जी ने अपनी जिंदगी में करीब 26 हजार गाने गाए हैं। मोहम्मद रफी हमेशा से सीधे और सरल स्वभाव वाले थे। उन्हें ना तो बड़ी पार्टियों में जाने का शौक था और ना ही आधी रात तक घर से बाहर घूमने का। जब इंडिया-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ, तो उन्होंने इंडिया में ही रहना पसंद किया। मोहम्मद रफी ने बेगम विकलिस से निकाह किया था और उनके चार बेटे व तीन बेटियां थी।

मोहम्मद रफी की सबसे खास बात यह थी कि वह जिस सिंगर के लिए गाते थे, अपनी आवाज को वह उसी की तरह ढाल लेते थे। ताकि सुनने वालों को यह पता न चल सके कि हीरो ने नहीं गाया है। खुद शम्मी कपूर भी कहते थे कि मोहम्मद रफी उनकी आवाज हैं। अगर वह नहीं, तो उनकी फिल्मों में जान नहीं मोहम्मद रफी जी ने शम्मी कपूर के ऊपर फिल्माए जाने वाले गानों 'चाहे कोई मुझे जंगली कहे', 'एहसान तेरा होगा मुझपर', 'ये चांद सा रोशन चेहरा', 'दीवाना हुआ बादल' में अपनी आवाज देकर उन्हें सुपर हीरो बना दिया। हर किसी की जुबान पर इन्ही के गाने सुनाई देते थे।

यह सब देखकर राजेंद्र कुमार, दिलीप कुमार और धर्मेंद्र भी जिद करने लगे कि उनके लिए भी मोहम्मद रफी ही गाएं। साथ ही यह भी कहा जता है कि मोहम्मद रफी जी की बढ़ती प्रसिद्धि मन्ना डे, तलत अजीज और हेमंत कुमार जैसे जाने-माने सिंगर्स के करियर में रोड़ा सी बनने लगी थी। पर रफी जी को सिर्फ सिंगिंग से प्यार था उनके अंदर किसी के लिए कोई जलन नहीं थी।

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55-60 के दशक में रफी की आवाज हर एक कानो में गूंजने लगी थी। प्यार-मोहब्बत हो या दर्दभरे नगमे, अगर रफी जी एक बार गा देते थे, तो अल्फाज जिंदा हो जाते थे। उनकी गायकी हर दिल में बसी गई थी। जब उन्होंने 'चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो' गाया, तो मानों देश के नौजवानों को अपनी मोहब्बत की तारीफ करने के लिए अल्फाज मिल गए हों। इस गाने का सभी पर जमकर खुमार चढ़ा मोहम्मद रफ़ी को इसी गाने के लिए फिल्म फेयर एवॉर्ड से नवाजा गया। इसके बाद 1961 में मोहम्मद रफी को अपना दूसरा फ़िल्मफेयर एवॉर्ड फ़िल्म 'ससुराल' के गीत 'तेरी प्यारी प्यारी सूरत को' के लिए मिला।

इनके गाए गाने 'चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे के' ने दोस्ती के एहसास को एक बार फिर ज़िंदा कर दिया। साल 1965 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा गया। साल 1966 में जब इन्होंने फिल्म सूरज के गाने 'बहारों फूल बरसाओ' को गाया, तो हर कोई वाह-वाह कर उठा और इसके लिए उन्हें चौथा फ़िल्मफेयर अवॉर्ड मिला। साल 1968 में फ़िल्म ब्रह्मचारी के गीत 'दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर' के लिए उन्हें पाचवां फ़िल्मफेयर अवॉर्ड मिला। और 1977 में छठा और लास्ट फिल्म फेयर अवॉर्ड उन्हें ''क्या हुआ तेरा वादा .... ' गीत के लिए मिला।

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शायद ही लोगों को पता होगा कि मोहम्मद रफी जी ने दो शादियां की थी। पहली शादी की बात उन्होंने काफी टाइम तक छुपा कर रखी थी। लेकिन उनकी बहू की लिखी किताब ने यह बात जमाने के सामने उजागर कर दी। बहू का नाम यास्मीन था। यास्मीन की प्रकाशित पुस्तक ''मोहम्मद रफी. मेरे अब्बा..एक संस्मरण.'' में इस बात का जिक्र किया गया है।

रफी जी का नौशाद से ख़ास रिश्ता माना जाता था। बात 1944 की थी, जब मोहम्मद रफी नौशाद साहब के नाम एक सिफारशी पत्र लेकर मुंबई आ गए थे। नौशाद ने इस पत्र का आदर किया और पहली बार मोहम्मद रफी की आवाज सुनी। आवाज इतनी ज्यादा अच्छी थी कि उन्हें लगा कि उनके सामने कोई फरिश्ता गुनगुना रहा हो। बस नौशाद ने रफी को हिन्दी फिल्म 'पहले आप' में गवाया और इस गाने के लिए रफी को 50 रुपए मेहनताना भी दिए।

उस दिन से मोहम्मद रफी का सिंगिंग करियर शुरू हुआ। पहली सफलता इन्हें तब मिली, जब इन्होंने फिल्म जुगनू के गीत 'बदला यहां वफ़ा का बेवफ़ाई के सिवा क्या है' गाया है'। और उसके बाद कोटला सुल्तान सिंह का फीकू अब मोहम्मद रफी बन चुका था, जिसमें नौशाद का अहम रोल रहा।

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हर इंसान की आंखें उस दिन गीली थी, जब मोहम्मद रफी ने इस दुनिया से विदा ली थी। बता दें कि मोहम्मद रफी जी ने माहे पाक रमजान में अंतिम सांस ली थी। वह भी अलविदा के दिन उस दिन हर कोई भूल गया था कि किस धरम या जाति का है? क्‍या हिंदू, क्या सिख, क्या ईसाई, हर कौम सड़कों पर आ गई थी। हर मजहब के लोगों ने जाते हुए मोहम्मद रफी को कंधा दिया था। इनमें राज कपूर, राजेन्द्र कुमार, सुनील दत्त के अलावा कई जाने-माने लोग शामिल थे। भले ही उनकी रूह इस दुनिया से चली गई। लेकिन जब तक यह दुनिया रहेगी, तब तक 'तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे।' हर किसी के गानों में गूंजते रहेंगे। लोगों में उनकी इस कदर दीवानगी थी कि उनके जनाजे में 10 हजार से ज्यादा लोग शामिल हुए थे।



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