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Pakeezah a Classic Film: कहानी 'पाकीज़ा' फिल्म के परदे के पीछे की...

Making of Classic Film Pakeezah: फिल्म 'पाकीजा' 16 जुलाई, 1955 में शुरू हुई इस फिल्म की शूटिंग पूरी होने के बाद यह 4 फ़रवरी, 1972 को रिलीज हुई। फिल्म को बनने में 17 साल लगे जो किसी भी फिल्म निर्माण में इतना वक्त लेने वाली अकेली फिल्म कही जाएगी।

Shreedhar Agnihotri
Published on: 18 April 2023 8:59 PM IST
Pakeezah a Classic Film: कहानी पाकीज़ा फिल्म के परदे के पीछे की...
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पाकीजा की अभिनेत्री मीना कुमारी (Social Media)

Pakeezah Inside Story: हिन्दी फिल्मों के इतिहास में जिन कुछ फिल्मों की हमेशा चर्चा होती है, उनमें से एक फिल्म 'पाकीजा' भी है। जिसे रिलीज हुए 50 साल से अधिक का समय बीत चुका है। पर, यह फिल्म अभी भी लोगों के मन में रची बसी है। 16 जुलाई, 1955 में शुरू हुई इस फिल्म की शूटिंग पूरी होने के बाद यह 4 फ़रवरी, 1972 को रिलीज हुई । फिल्म को बनने में 17 साल लगे जो किसी भी फिल्म निर्माण में इतना वक्त लेने वाली अकेली फिल्म कही जाएगी।

फिल्मकार कमाल अमरोही (Filmmaker Kamal Amrohi) की इस फिल्म का संगीत तथा फोटोग्राफी बताती है कि उस दौर में भी जब संसाधनों का अभाव था, तब कैसे इसे फिल्माया गया होगा। फिल्म के सभी गाने बेहद हिट हुए। बहुत कम सिनेमा प्रेमियों को पता होगा कि फिल्म का आधा संगीत गुलाम मोहम्मद साहब (Ghulam Mohammad) ने बनाया था। पर उनके निधन के बाद इसे संगीतकार नौशाद ने पूरा किया। हालांकि, इसके पहले कुछ लोगों ने फिल्म का संगीत शंकर जयकिशन से करवाने को कहा था।

कमाल अमरोही का कहना था कि गुलाम मोहम्मद ने जो गीत तैयार किए हैं । उसमें नौशाद का पहले से योगदान है। गुलाम साहब ने बीमारी के वक्त भी बाकी का संगीत नौशाद से पूरा कराने को कहा है। यदि वह किसी और संगीतकार को लेते हैं, तो यह नाइंसाफी होगी। तब कुछ लोगों का कहना था कि बदलते वक्त में शंकर जयकिशन फिल्म में आधुनिक संगीत देगें। पर कमाल अमरोही इसके लिए तैयार नहीं हुए।

पचास और साठ के दशक में निर्देशकों में इस बात की होड रहती थी कि कौन कितनी बढ़िया ढंग से फिल्म काशूट करता है। इसलिए महंगे सेट लगाने की प्रतिस्पर्धा हुआ करती थी। इनमें चाहे व्ही शांताराम (V Shantaram) हों, गुरूदत्त (Guru Dutt) हों, के आसिफ (K Asif) हों अथवा महबूब खान (Mehboob Khan )हों, सब एक से बढ़कर एक निर्देशकों ने अपनी फिल्मों में कला का प्रदर्शन किया। ऐसे में कमाल अमरोही कहां चूकने वाले थे। उन्होंने भी फिल्म 'पाकीजा' के लिए जर्मन सिनेमेटोग्राफर जोसेफ वर्सचिंग को पसंद किया और उन्हें भारत लेकर आए।

पहले यह फिल्म ब्लैक एंड व्हाइट बन रही थी पर इस बीच रंगीन फिल्मों का दौर शुरू हो गया था तो फिर इसे रंगीन किया गया। यहीं नही, फिल्म को बेहतरीन ढंग से बनाया जाए तो पचास हजार रुपए प्रतिमाह के हिसाब से किराए के लेंस लेने के लिए कैलोफोर्निया भी गए। यह करते हुए छह साल निकल गए। इस बीच कमाल अमरोही के पत्नी मीना कुमारी से सम्बन्ध भी बिगडे़ पर कमाल साहब ने इन सभी बातों को नजरअंदाज किया।

फिल्म बनाते-बनाते कई कलाकारों के चेहरों में परिवर्तन आने लगा तो फिल्म की कहानी में भी बदलाव किया गया। दुर्भाग्य से फोटोग्राफर जोसेफ वर्सचिंग का भी अचानक निधन हो गया तो फिर अपने ही देश के फोटोग्राफर जाल मिस्त्री से काम कराया गया। उनके सहयोग के लिए कुछ और फोटोग्राफरों को फिल्म में लिया गया। इसके चलते परेशानियां पैदा होने लगी। ‘‘आज हम अपनी दुआंवों का असर देखेगें’’ गीत उनकी जगह अभिनेत्री पद्मा खन्ना के कुछ शाट्स लेकर फिल्म में जोड़े गए। जहां तक फिल्म के गानों की बात है तो इसमें पहले 15 गाने रिकॉर्ड किए गए थे। पर फिल्म में केवल छह गाने ही रखे गए। जिन्हें कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफ भोपाली, मीर तकी और कमाल अमरोही ने लिखा था।

फिल्म की कहानी भी कमाल साहब ने ही लिखी थी। फिल्म पाकीजा मीनाकुमारी के कैरियर की सबसे बेहतरीन फिल्म कही जाती है। इस फिल्म में मीनाकुमारी ने जबरदस्त अभिनय की बदौलत अपने कैरियर को जीवंत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसके बावजूद उन्होंने फिल्म के लिए केवल एक रुपए ही फीस ली थी।

फिल्म पाकीजा से जुड़ा एक किस्सा और बड़ा मशहूर है जब फिल्म की शूटिंग के एक हिस्से के लिए पूरी टीम मध्यप्रदेश के शिवपुरी से लौट रही थी तो रात को एक बजे गाड़ी पेट्रोल खत्म हो गया। तो ऐसे में कुछ लोग मदद के लिए वहां आ गए। पूरी टीम को वहीं रुकने को कहा खाने पीने का इंतजाम किया। इसके बाद जब कमाल अमरोही और मीनाकुमारी लौटने लगे तो वहां के मुखिया ने मीनाकुमारी को एक चाकू दिया और कहा कि वह उसके हाथ में चाकू से अपना आटोग्राफ दें। मीनाकुमारी घबरा गयीं पर वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था। आखिर में मीनाकुमारी ने चाकू से उसके हाथ में आटोग्राफ दिया बाद में पता चला कि मीनाकुमारी का यह प्रशंसक कोई और नहीं बल्कि उस क्षेत्र का एक बड़ा डकैत अमृतलाल था।

कमाल अमरोही साहब पहले राजकुमार की जगह धर्मेन्द को लेना चाह रहे थे पर पत्नी मीनाकुमारी की धर्मेन्द्र से नजदीकियां बढ़ने के कारण कमाल अमरोही ने फिर राजकुमार को ले लिया। इस बात पर मीनाकुमारी और कमाल के बीच विवाद भी पनपा। फिल्म का नाम बदलने पर भी कई बार मंथन हुआ। कई लोगों ने कमाल अमरोही को फिल्म ‘लहू पुकारेगा’ नाम रखने को कहा पर बाद में अमरोही को पाकीजा ही बेहतर लगा। दुर्भाग्य से चार फरवरी 1972 को फिल्म रिलीज होने के दो महीने बाद ही मीना कुमारी का निधन हो गया। वह अपनी फिल्म की सफलता को भी अपनी आंखों से नहीं देख सकी।


(लेखक वरिष्ठ फ़िल्म समीक्षक हैं)



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Shreedhar Agnihotri

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