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Shamshad Begum:कजरा मोहब्बत वाला' गीत गाने वाली शमशाद बेगम हमेशा रहीं सिल्वर स्क्रीन से दूर
Shamshad Begum Death Anniversary: हर युवा के दिल में शामशाद बेगम के गीतों ने अपनी अलग पहचान बनाई। शमशाद रिमिक्स को वक्त की मांग मानती थीं। आइए जानते हैं इस खनकदार, लरज़ती आवाज की मल्लिका शमशाद बेगम के जीवन से जुड़े कुछ कहे अनकहे किस्सों के बारे में.....
Shamshad Begum Death Anniversary: ''कजरा मोहब्बत वाला'', "मेरे पिया गए रंगून", 'कभी आर कभी पार', 'लेके पहला पहला प्यार', 'कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना' जब उसने गेसू बिखराये बादल आया झूम के, न आखों में आंसू ना होठों पे हाय, लेके पहला पहला प्यार, रेशमी सलवार कुर्ता जाली का, तेरी महफिल में किस्मत आजमा के हमभी देखेगे, होली आई रे कन्हाई, बूझ मेरा क्या नाम रे, कही पे निगाहें कही पे निशाना, आना मेरी जान संडे के संडे’ जैसे एवरलास्टिंग सुपरहिट गीतों से धूम मचाने वाली गायिका शामशाद बेगम बॉलीवुड का जाना-पहचाना नाम है।
शमशाद बेगम के जितने गानों को रीमिक्स किया गया, शायद ही किसी और के गानों को किया गया हो। उनके गाए 'सैंया दिल में आना रे', 'कजरा मोहब्बत वाला', 'कभी आर कभी पार' जैसे गानों के रिमिक्स बेहद लोकप्रिय रहे। खास बात ये रही कि शमशाद के मूल गीत जितने मशहूर हुए उतना ही रिमिक्स ने भी धमाल मचाया। हर युवा के दिल में उनके गीतों ने अपनी अलग पहचान बनाई। शमशाद रिमिक्स को वक्त की मांग मानती थीं। आइए जानते हैं इस खनकदार, लरज़ती आवाज की मल्लिका शमशाद बेगम के जीवन से जुड़े कुछ कहे अनकहे किस्सों के बारे में.....
जब मीडिया में फैली थी इनकी मौत की फर्जी खबर
मनोरंजन-जगत में अपने सुरीले, मंत्रमुग्ध कर देने वाले नगमों से सभी के दिलों में जगह बना चुकीं गायिका शमशाद बेगम की मौत से भी जुड़ा एक बेहद दिलचस्प किस्सा जुड़ा हुआ है। यह बात है सन 1998 की, जब चर्चित अभिनेत्री शायरा बानो की दादी, जिनका नाम शमशाद था, का निधन हुआ था। उनकी मौत से सारी मीडिया में शमशाद बेगम एक गायिका के नाम से मृत्यु की खबरें प्रसारित हुईं। जिसके कुछ समय बाद 'बीते हुए दिन' नाम से चर्चित ब्लॉग के माध्यम से शिशिर कृष्ण शर्मा ने गायिका शमशाद बेगम को जीवित ढूंढ निकाला। इसके बाद शमशाद बेगम के साक्षात्कार का दौर चल पड़ा।
सिनेमा घरों में उनके गाए गानों पर उछलते थे सिक्के
आज भले ही लता मंगेशकर को संगीत की सरस्वती माना जाता है, पर उनके आने के पहले का भी एक दौर था, जिस समय एक ऐसी गायिका थीं, जिनके गाने जब परदे पर चलते थे तो प्रशंसक परदे पर सिक्के की बौछार कर देते थे। उस समय उनकी मखमली, खनकती आवाज ने सभी सिने प्रेमियों को अपना दीवाना बना दिया था।
शमशाद बेगम का जन्म अविभाजित भारत के पंजाब के लाहौर में 14 अप्रैल, 1919 को एक मुस्लिम जाट परिवार में हुआ था। वैसे कई मीडिया रिपोर्ट में ऐसा मिलता है कि उनका जन्म अमृतसर में हुआ था, पर उनके खुद के साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि उनका जन्म लाहौर में हुआ था। उनका भारत के प्रति प्रेम अतुलनीय था। उन्होंने उस समय में, जब देश में धर्म का मुद्दा गरम था, तब एक हिन्दू से विवाह करके वो भारत में ही बस गईं थी।
लाहौर के पेशावर रेडियो के माध्यम से गूंजी थी पहली बार इनकी आवाज
पहली बार शमशाद बेगम की आवाज लाहौर के पेशावर रेडियो के माध्यम से 16 दिसंबर, 1947 को लोगों के सामने आई। उनकी आवाज के जादू ने लोगों को उनका प्रशंसक बना दिया। उस दौरान शमशाद बेगम को प्रत्येक गीत गाने पर पंद्रह रुपये पारिश्रमिक मिलता था।उस समय की प्रसिद्ध कंपनी जेनोफोन, जो कि संगीत रिकॉर्ड करती थी, से अनुबंध पूरा होने पर शमशाद बेगम को 5000 रुपये से सम्मानित किया गया था।
रेडियो पर उनकी आवाज सुनकर कई संगीत निर्देशकों ने उनसे संपर्क किया था। उनकी पहली हिंदी फिल्म 'खजांची' थी। फिल्म के 9 गीत शमशाद ने गाए। रेडियो पर उनके गायन से ओ.पी. नैय्यर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने शमशाद को अपनी फिल्म में गाने का मौका दिया। 50, 60 और 70 के दशक में शमशाद संगीतकारों की पसंदीदा हुआ करती थीं।
15 वर्ष की छोटी सी उम्र में हुई थी शमशाद की शादी
शमशाद बेगम एक कट्टवादी मुस्लिम परिवार से आती थीं। जहां कम उम्र में ही शादी रचाने का चलन था। जब शमशाद के घर वाले उनके हाथ पीले करने की तैयारी कर रहे थे उसी समय शमशाद ने सिर्फ 15 साल की उम्र में ही अपने पड़ोसी मित्र हिंदू वकील (गणपत लाल) से प्रेम विवाह कर लिया था। कहते हैं इस गायिका ने परिवार के विरोध में जाकर शादी की थी।
मिले थे केवल साढ़े बारह रुपये़
कहते हैं की सफलता कभी आसानी से हाथ नहीं आती। शमशाद को भी गायन के क्षेत्र में एक बुलंद मुकाम हासिल करने के लिए काफी दिक्कतों से गुजरना पड़ा था। शमशाद बेगम बचपन में धार्मिक समारोह में गाया करती थीं। उनके आठ भाई-बहन थे और पिता एक मेकैनिक थे तथा माँ गृहिणी थीं। शमशाद को बचपन से ही गाने का शौक था। वो शादी-ब्याह, तथा अन्य धार्मिक अवसरों पर गाया करती थीं, जिससे उनकी ख्याति जल्दी ही आसपास के क्षेत्र में फैल गई। हालांकि इनके पिता फिल्मों में गायन के पक्ष में नहीं थे पर चाचा अमीरुद्दीन ने इनके आगे बढ़ने में एहम भूमिका निभाई।
उनके चाचा ने उनका ऑडिशन उस समय के एक प्रसिद्ध म्यूजिक कंपनी Jien-Phone Record में दिलवाया। उनका ऑडिशन तब के प्रसिद्ध संगीतकार मास्टर ग़ुलाम हैदर (Ghulam Haider) ने लिया था। बेगम ने बहादुर शाह ज़फ़र की कई ग़ज़लें सुनाई, जिसके बाद उनकी आवाज से प्रभावित होकर मास्टर ग़ुलाम ने उन्हें 12.50 रुपये के हिसाब से 12 गानों को गाने का प्रस्ताव आगे रख दिया। उस समय के हिसाब से यह एक बड़ी रकम थी। इस सबके बीच दिलचस्प बात यह थी कि वो तब 13 वर्ष की थीं और उन्होंने संगीत की कोई शिक्षा नहीं ली थी। शमशाद जी को मास्टर ग़ुलाम चौमुखीया कहकर बुलाते थे।
फिल्म में नायिका के प्रस्ताव को भी नकारा
शमशाद बेगम दिखने में भी काफी खूबसूरत थीं। उस समय उनकी खूबसूरती के आगे बड़ी बड़ी अभिनेत्रियां भी फेल थीं, जिस वक्त वह गानों से सभी के बीच धूम मचा रही थीं, तभी उनको फिल्मों में काम करने के लिए भी ऑफर आए। लेकिन परिवार की रुढ़िवादी सोच होने के वजह से उन्होंने ये ऑफर ठुकरा दिया था। इनका लाहौर में तो फिल्मी सफर शुरू हो गया था पर अब भी सपनों का शहर कहा जाने वाला मुंबई शहर दूर था। मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में महबूब खान एक बड़े फिल्म निर्माता थे। वो एक फिल्म बना रहे थे जिसका नाम 'तकदीर' था। इसमें नायक के रूप में मोतीलाल और नायिका के रूप में 13 वर्षीया नरगिस थीं। पहले तो गायन के लिए नूरजहां को चुना गया था, पर उनकी आवाज नरगिस से मेल खाती नहीं दिख रही थी। उन्हें एक कमसीन आवाज की जरूरत थी। उन्होंने जब फिल्म 'खजांची' में शमशाद बेगम की आवाज सुनी तो उन्होंने फौरन अपने असिस्टेंट को इनसे संपर्क करने के लिए कहा।
असिस्टेंट पहले से उन्हें जानते थे सो उन्होंने कहा, ' ये यहाँ नहीं आएंगी'। महबूब खान ने पूछा ऐसा क्यों? फिर असिस्टेंट ने कहा उनके पिता की इजाजत नहीं होती। इसके बाद महबूब साहब खुद उनके घर लाहौर पहुंचे और उनके पिता को मना लिए। पिता ने एक शर्त रखते हुए उन्हें इजाजत दे दी कि वो अपने काम से काम रखेंगी, गायन करने जा रहीं हैं तो केवल गायन पर ध्यान देंगी। यही कारण है कि उस वक्त की प्रमुख गायिका नूरजहां और सुरैया अभिनय भी करती थीं, वहीं शमशाद बेगम ने हमेशा कैमरे के पीछे रहकर अपनी रिकॉर्डिंग दीं। कभी स्टारडम की ओर ध्यान ही नहीं दिया। 1935 में पेशावर में भी एक रेडियो केंद्र खुला जहां से उनको गाने का प्रस्ताव आया। वहाँ वो एक बार ही बस गईं और उन्होंने वहाँ का अनुभव सांझा करते हुए पेशावर को एक दकियानूस जगह बताई जहां उन्हें अपनी रिकॉर्डिंग देने के लिए पहली बार बुर्का पहनना पड़ा था।
तस्वीरें खिंचवाना, लाइमलाइट में रहना और इंटरव्यू देने से था ऐतराज
शमशाद ने हमेशा सादगी से भरी जिंदगी को जिया। उन्हें तस्वीरें खिंचवाना, लाइमलाइट में रहना और इंटरव्यू देना पसंद नहीं था। एक सड़क दुर्घटना में पति की मौत के बाद उन्होंने सिंगिंग को पूरी तरह छोड़ा दिया था। लेकिन फिर कुछ सालों बाद ओपी नैय्यर की जिद पर उन्होंने सिंगिंग में अपना कमबैक पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली से किया था।
शमशाद बेगम, वह गायिका जिसके मृत्यु से बरसों पहले ही मीडिया ने दे दी थी उन्हें श्रद्धांजलि
1998 में जब अभिनेत्री शायरा बानो की दादी, जिनका नाम शमशाद था, का निधन हुआ तो मीडिया में इसी नाम की एक गायिका के नाम के मृत्यु की खबरें प्रसारित हुईं। बाद में 'बीते हुए दिन' नाम से चर्चित ब्लॉग के माध्यम से शिशिर कृष्ण शर्मा ने उन गायिका को ढूंढ निकाला। इसके बाद उनके साक्षात्कार का दौर चल पड़ा।
इनके गाए इस गीत के बिना नहीं चढ़ता होली का रंग
भारत के प्रमुख त्योहारों में से एक होली पर यूँ तो हिन्दी फ़िल्मों में असंख्य गाने लिखे और गाये गए हैं, किंतु होली का सबसे लोकप्रिय गीत शकील बदायूँनी ने लिखा था। इस गीत को अपने समय के ख्यातिप्राप्त संगीतकार नौशाद ने संगीतबद्ध किया। शमशाद बेगम ने इस गीत को अपनी सुरीली आवाज़ से सजाकर अमर बना दिया। फ़िल्म 'मदर इंडिया' का यह गीत अभिनेत्री नर्गिस पर फ़िल्माया गया था और गीत के बोल थे- "होली आई रे कन्हाई रंग छलके, सुना दे ज़रा बाँसूरी"। इस गीत में गोपियाँ नटखट कृष्ण से गुज़ारिश कर रही हैं कि वे होली के मौके पर अपनी जादूई बाँसुरी बजाना बंद न करें। यह गीत अपने समय के सबसे सफल गीतों में से एक था, जो लोगों के हृदय पर छा गया था।
शमशाद की बेटी को जब मां का गाना सुनकर छूटी थी हंसी
वर्ष 1950 में प्रदर्शित फिल्म बाबुल में नौशाद के संगीत निर्देशन में शमशाद बेगम की आवाज में गाया गीत ‘छोड़ बाबुल का घर मोहे पी के नगर आज जाना पड़ा’ आज भी जब विदाई के समय बजता है तो सुनने वालो की आंखें नम हो जाती हैं। उन्होंने एक बार इससे जुड़ा संस्मरण सुनाया था ‘मेरी बेटी की शादी हो रही थी। सारा वातावरण गमगीन था। अचानक ही यह गीत बजाया गया। मेरी बेटी रोते रोते हंस दी और उसने कहा अरे ये तो मेरी अम्मी का गीत है।’ इसी फिल्म में उन्होंने लता मंगेश्कर के साथ ‘किसी के दिल में रहना था’ गाया था।
मुझे अपने नाम के लिए लड़ना पड़ा:
शमशाद बेगम सबसे ज्यादा अपने एकांत प्रिय स्वभाव के लिए जानी जाती थीं। ओपी नइयर से जब उनकी मुलाकात हुई थी तब वो एक ऑफिस बॉय का काम कर रहे थे। उनके आग्रह पर शमशाद झट से उनके एक फिल्म में गाने के लिए तैयार हो गई थीं। इतना ही नहीं ओपी नइयर का जब लता मंगेशकर से विवाद हो गया था और अन्य गायिकाओं ने उनके लिए गाने से मना कर दिया था, तब भी शमशाद बेगम ही उनके बचाव में उतरी थीं।
आशा भोसले अ म्यूज़िकल बायोग्राफी' में पत्रकार राजू भारतन ने बताया है कि, ओपी नइयर ने शमशाद बेगम से कहा कि लता मंगेशकर इतनी शक्तिशाली हैं कि यदि वो उनके बचाव में नहीं उतरीं तो वो बिल्कुल खत्म हो जाएंगे। इसपर शमशाद ने पलट कर कहा था, 'मैं तुम्हारे लिए जरूर गाऊँगी। लता मंगेशकर से कौन डरता है? कम से कम वह औरत तो नहीं जिसे शमशाद बेगम कहते हैं।'
इसके बाद ओपी नइयर ने 1956 के फिल्म 'सीआईडी' के गीतों में आशा भोसले और शमशाद की आवाजों को मिलाकर एक अनोखा प्रयोग किया था। इस फिल्म के सभी गाने बेहद हिट हुए। 1941 से 1955 तक का दौर बेगम के लिए स्वर्णिम काल था। 'तकदीर', 'हुमायूं', 'शाहजहाँ', 'आग', 'मेल', 'पतंग', 'जादू', इत्यादि ऐसी बेहतरीन फिल्मों में अपनी अमिट छाप छोड़ने वाली शमशाद के बारे में कहा जाता है कि, उनकी महंगी फीस जो प्रडूसर नहीं दे पाते थे वो उस समय की गायिकाओं जैसे लता मंगेशकर, आशा भोसले आदि से उनकी नकल करके गाने को कहते थे।
इस दौरान उनकी हिट गीतों के बावजूद उन्हें काम मिलना कम हो गया। दरअसल, वो एक शाजिश की शिकार हो गईं। उनकी बेटी उषा रात्रा ने एक साक्षात्कार में बताया था कि उनके माँ के विरुद्ध एक लॉबी काम करने लगी थी, जो मूवी डायरेक्टर्स पर दबाव डालती थीं कि, वो शमशाद से गीत न गवाए। धीरे-धीरे 1971 तक आते हुए वो अपने बेटी दामाद के साथ मुंबई में ही एक एकांत गुमनाम जिंदगी में चली गईं। इसके बाद इनका कोई पता नहीं चला। लोगों को शमशाद बेगम की सुध आई जब 2009 में इन्हें प्रेस्टीजिअस ओपी नइयर अवॉर्ड' मिला और उसी साल भारत सरकार ने इन्हें 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया।
यहां बहुत गंध हैं
शमशाद बेगम की इकलौती बेटी उषा देवी बताती हैं कि मां की तरह वो भी गायन क्षेत्र में आगे आना चाहती थीं। लेकिन मां ने इस बात की इजाजत नहीं दी। उन्होंने यहां तक कि संगीत भी सीखने पर रोक लगा दी। उनका कहना था की तुम अगर संगीत सीखोगी तो फिर इस दिशा में आगे भी बढ़ोगी। यहां बहुत गंध है। मैं नहीं चाहती की तुम वो सब झेलो जो मैने जिया है।
अपने ही शहर ने उन्हें भुला दिया
वैसे तो मोहम्मद रफी, किशोर कुमार, मन्ना डे आदि कई छोटी के संगीतकारों के जन्मदिन और पुण्यतिथि पर अक्सर आयोजन होते हैं, मगर लाहौर शहर की इस बेटी को याद करने के लिए शायद ही कभी कोई प्रोग्राम रखा गया हो।
गुमनामी के साथ अनंतकाल के लिए गुम हो गया एक अंतहीन आवाज का सिलसिला
शमशाद बेगम ने अपने दौर के सभी दिग्गज संगीतकार नौशाद, गुलाम हैदर, ओपी नैय्यर, कल्याणजी-आनंद जी, सी. रामचंद्र के साथ काम किया। वह सहगल की बड़ी प्रशंसक थी और उन्होंने उनकी फिल्म देवदास 14 बार देखी थी।
इस प्रख्यात पार्श्व गायिका का निधन 23 अप्रैल 2013 को मुंबई में हो गया। उनकी बेटी उषा के मुताबिक हिंदू और मुस्लिम अंतरजातीय विवाह के चलते किसी भी प्रकार के कट्टरपंथी विवाद से दूर रहने के लिए
उनकी माँ शमशाद हमेशा चाहती थीं कि उनके मौत के बाद ही किसी को पता लगे कि शमशाद दुनिया छोड़ कर जा चुकी हैं।