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Shankar-Jaikishan: बेहतरीन संगीत देने के लिए 50 के दशक में एक लाख रुपए फीस लेते थे शंकर जयकिशन की जोड़ी....

Shankar Jaikishan: 50 के दशक में अपनी धुनों से भारत देश के संगीत को एक नई दिशा देने का श्रेय अगर किसी को जाता है तो वो हैं नामचीन जोड़ी शंकर जयकिशन को। हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग में शंकर जयकिशन की जोड़ी फिल्मी संगीत की दुनियां में सफलता के चरम पर आसीन थी।

Jyotsna Singh
Published on: 27 April 2023 12:03 AM IST (Updated on: 27 April 2023 12:05 AM IST)
Shankar-Jaikishan: बेहतरीन संगीत देने के लिए 50 के दशक में एक लाख रुपए फीस लेते थे शंकर जयकिशन की जोड़ी....
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Shankar Jaikishan (Pic: Social Media)

Shankar Jaikishan: मूड मुड़ के न देख मुड़ मुड़ के, उनसे मिली नजर की मेरे होश उड़ गय, वो चांद खिला वो तारे हंसे ये रात, अजीब दास्तां है ये, एहसान तेरा होगा मुझ पर... जैसे दिल, दिमाग, रूह को सुकून देने वाले ऐसे अनगिनत गीत हैं जिसने अंतरराष्ट्रीय फलक पर भारतीय संगीत को एक नई पहचान दी है, जिसमे इस जोड़ी ने कुछ बेहद लोकप्रिय गीत तैयार किए जो न सिर्फ अपने देश में बल्कि सोवियत संघ, तुर्की और चीन में भी हिट हुए। उदाहरण के लिए, मेरा जूता है जापानी और इचक दाना बीचक दाना, शायोनारा शायोनार आदि गीतों को इजरायल में भी बड़ी संख्या में फॉलोअर्स ने पसंद किया। हम यहां जिक्र कर रहें है हौलीवुड के मशहूर संगीतकार शंकर जयकिशन की। आज इनमे से दोनो ही हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन इनके नायाब संगीत युगों युगों तक हमें इस जोड़ी की याद दिलाते रहेंगे। आज 26 अप्रैल को संगीतकार शंकर जी की पुण्य तिथि पर हम उन्हें नमन करने के साथ उनसे जुड़े कुछ रोचक किस्सों के पन्ने खोलकर उन्हें दोबारा याद करते हैं,,

700 से ज्यादा फिल्मों के लिए अनगिनत हिट संगीत दिये

50 के दशक में अपनी धुनों से भारत देश के संगीत को एक नई दिशा देने का श्रेय अगर किसी को जाता है तो वो हैं नामचीन जोड़ी शंकर जयकिशन को। हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग में शंकर जयकिशन की जोड़ी फिल्मी संगीत की दुनियां में सफलता के चरम पर आसीन थी। उन्हें फिल्मों में बेहतरीन संगीत देने के लिए मुंहमांगी कीमत दी जाती थी। उस जमाने में ये जोड़ी प्रति फिल्म एक लाख रूपये जैसी बड़ी राशि लेती थी। इस जोड़ी ने अपने 22 साल के करियर में 700 से ज्यादा फिल्मों के लिए अनगिनत हिट संगीत दिये। शंकर-जयकिशन की अटूट जोड़ी अपने अथक सांगीतिक योगदान से आज भी सुमधुर गीतों के जरिए हमसब के बीच बरकार है। हिंदी फिल्म संगीत की दुनिया में जो मुकाम शंकर-जयकिशन की जोड़ी ने अर्जित किया, उस मुकाम तक आज भी दूसरे संगीतकारों के लिए महज एक ख्वाब बनकर रह गया। हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग में शंकर जयकिशन की जोड़ी के संगीत की दुनियां कायल थी। इनके संगीत फिल्मों को हिट करने का मादा रखते थे। रामानंद सागर ने अपनी फिल्म 'आरजू' के लिए उन्हें उस दौर में दस लाख रूपये जैसी बड़ी रकम बतौर फीस का भुगतान किया था।

फिल्म ' बरसात ' से बनीं यह जोड़ी

इस जोड़ी का बनना भी एक इत्तेफाक था। दरअसल साल 1948 में राज कपूर ने अपनी पहली फिल्म 'आग' का प्रोडक्शन शुरू किया था। संगीत राम गांगुली को इस फिल्म में संगीत देने की जिम्मेदारी दी गई थी। राज कपूर को राम गांगुली की धुनें बेहद पसंद आती थीं इसलिए उन्होंने अपनी अगली फिल्म फिल्म 'बरसात' के लिए भी राम गांगुली को फाइनल कर लिया। लेकिन राजकपूर ने ये शर्त रखी थी की की फिल्म के लिए तैयार की जा रहीं धुनों को फिल्म रिलीज तक बाहर किसी को नहीं सुनाया जाएगा। लेकिन एक दिन राज कपूर ने देखा कि राम गांगुली 'बरसात' के लिए तैयार धुन कहीं दूसरी निर्माता की फ़िल्म में भी प्रयोग कर रहें हैं। राजकपूर अपने गुस्से को काबू नहीं रख सके और तुरंत उन्हें बाहर कर दिया। जिसके बाद राजकपूर अपनी फिल्म 'बरसात' के लिए किसी युवा संगीतकार को खोज रहे थे। इत्तेफाक से राज कपूर के मित्र विश्व मेहरा ने उऩ्हें शंकर जयकिशन के बारे में बताया कि ये नयी जोड़ी काफी मेहनती और हुनरमंद है और अच्छा काम कर सकती है।

राज कपूर ने शंकर जयकिशन के सामने 'बरसात' का संगीत बनाने का प्रस्ताव रखा। शंकर जयकिशन को इसी तरह के एक शानदार अवसर की तलाश थी। इस जोड़ी ने दिन रात जागकर 'बरसात' फिल्म में बेहतरीन संगीत देने के लिए अथक मेहनत की। जिसका परिणाम उतना ही फलदाई रहा, 'बरसात' के संगीत ने हिंदी सिनेमा संगीत की इस जोड़ी दुनिया के सामने लाकर खड़ा कर दिया। इस फिल्म के हर गाने सुपरहिट हुए। इसी 'बरसात' में पहली बार हसरत जयपुरी, शैलेंद्र, मुकेश, लता मंगेशकर और नरगिस इन सभी ऊंची हस्तियों की कैरियर की शुरुवात थी। कहना गलत न होगा की राजकपूर की बरसात फिल्म इन सभी के लिए पारस पत्थर साबित हुई। इस सुपर हिट फिल्म के बाद शंकर जयकिशन की जोड़ी ने लंबे समय तक एक साथ काम करते हुए एक के बाद एक तमाम हिट फिल्में इस रुपहली दुनियां को सौगात के तौर पर दी। 'बरसात' से बतौर संगीतकार सफर शुरु करने के बाद शंकर जयकिशन बिना रुके बुलंदियों के शिखर चढ़ते गए।
साल 1971 तक इस जोड़ी ने सैकड़ों सुपरहिट गाने दिये।

कुछ यूं बना था ये गीत ...मुड़ मुड़ के न देख

फुरसत के पलों में राज कपूर हसरत जयपुरी, शैलेंद्र, मुकेश, शंकर, जयकिशन को लेकर चर्चगेट स्टेशन के करीब स्थित एक रेस्तरां में बैठते थे, जहां बैठकर ये टोली केसी कॉलेज जाने वाली लड़कियों पर फिकरे कसते हुए खूब मस्ती करती थी। ऐसे ही एक दिन वहां से गुजरती एक लड़की पर टीम से किसी ने कुछ तंज कसा, इस पर लड़की ने गुस्से में पलट कर देखा। उस लड़की का मुड़ कर देखने का अंदाज़ सदा सदा के लिए एक नायाब संगीत में तब्दील हो गया। हुआ यूं कि उस लड़की को देखते ही वहां बैठे जयकिशन ने कहा -मुड़ मुड़ के न देख पीछे... राज कपूर ये सब देख सुन रहे थे उन्हें जयकिशन की ये लाइन इतना ज्यादा भा गई कि उसे अपनी फिल्म में यूज कर लिया। उन दिनों वे फिल्म '420' बना रहे थे। हसरत जयपुरी ने आगे बताया था कि उसी रात ढाई बजे राज कपूर ने अपनी टीम को आरके स्टूडियो बुलाया। उसी रात इस एक लाइन को धुन के साथ एक गीत का रूप दे दिया गया। जिसे हम सबने न जाने कितनी बार सुना होगा।

जब आ गई थी दोनों की दोस्ती के बीच दरार

. किसी भी फिल्म में इस जोड़ी का होना फिल्म की सफलता की गारंटी मानी जाती थी। शंकर जयकिशन के बीच बेहद गहरी मित्रता थी लेकिन एक दिन एक गलतफहमी में दोनों की दोस्ती के बीच दरार आ गई। मामला असल में ये था कि शंकर जयकिशन दोनों ने अपने काम के साथ इस बात का भी करार किया था कि चूंकि दोनों मिलकर साथ साथ काम कर रहें हैं हैं तो कोई भी एक अपने काम का क्रेडिट अकेले लेने की कोशिश नहीं करेगा मतलब दोनों किसी से भी इस बात का जिक्र बिलकुल नहीं करेंगे इस गीत की धुन किसने बनाई थी। भूलवश एक दिन जयकिशन ने एक इंटरव्यू में बता दिया कि फिल्म 'संगम' का 'ये मेरा प्रेम पत्र.. की धुन उन्होंने बनाई थी। शंकरजी को यह बात बेहद नगवांर लगी। वो जयकिशन से बेहद खफा हो गए। लंबे समय तक नाराजगी के बाद लोगों को लगने लगा कि अब यह जोड़ी टूट चुकी है। इस जोड़ी के साथ लंबे समय से काम रहे गीतकार मो. रफी ने दोनों के बीच सारे गिलेशिकवों को खत्म कर दोबारा से इस जोड़ी को मुकम्मल कर दिया।

एक बार हमेशा के लिए टूट गई ये जोड़ी

शंकर जयकिशन दोनों साथ मिलकर अपने सांगीतिक सफर को आगे बढ़ा ही रहे थे की 1971 में जयकिशन और 1973 में शैलेंद्र की मौत के बाद शंकर बिलकुल खोखले और अकेले पड़ गए। जिसके बाद अपने काम के प्रति उनका आत्मविश्वास और उनका उत्साह सब फीका पड़ गया। जिसके बाद वो धीरे धीरे बेहद चिड़चिड़े हो गए। उनके इस व्यवहार के चलते उनके पास अब लोगों ने धीरे धीरे आना कम कर दिया। फिल्म निर्माताओं ने भी उनसे दूरी बना ली। कहा जाता है की दुनियां किसी के लिए थमती नहीं है, चलते रहने का नाम ही जिंदगी है। जिसके बाद लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने अपनी जगह तलाशना शुरू की और आरके कैम्प में उनकी जगह ‘बॉबी’ में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को रख लिया गया। 26 अप्रैल 1987 को शंकर जी ने भी इस दुनियां को अपने अनमोल संगीतों की विरासत को सौप कर हमेशा के लिए अलविदा कह दिया। शंकर की मौत की खबर उनके साथ रहकर जाने कितना नाम काम और शौहरत कमा चुके उनके मित्रों और रिश्तेदारों को अगले दिन छपे अखबार के जरिए हुई थी।

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