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Kiss Day 2022 : होंठ और चुंबन के इस इक्वेशन के बारे में शायद ही कोई जानकारी हो, जाने इस सच्चाई के बारे में
इस महीने पूरा विश्व वैलेंटाइन वीक यानी कि प्रेम का जश्न मना रहा है। प्रेम अर्थात आत्मा का वह पवित्र भाव जिसकी मादकता को सिर्फ महसूस किया जा सकता है।
Kiss Day 2022 : अमूमन प्रेम प्रारंभ आकर्षण के फलस्वरुप होता है। यह आकर्षण रंग, रुप, किसी के गुण विशेष के प्रति हो सकता है, किसी के आत्मीय भाव के प्रति हो सकता है या किसी के कृतज्ञता भाव के प्रति भी हो सकता है। प्रेम की अनुभूति में स्पर्श का एक ख़ास अनुभव है। हालांकि प्रेम को दैहिक सीमाओं की परिभाषा से जोड़ कर देखना प्रेम के अक्ष और देशांतर को सीमाबद्ध करने जैसा है। हिंदी कवियों ने बेहद खूबसूरती से स्पर्श के भाव की व्याख्या अपनी कविताओं में की है। आइए पढ़ते हैं उन कविताओं को।
अशोक वाजपेयी दैहिक प्रेम की व्याख्या अपनी कविता 'पहला चुंबन' में किया है। जो कि कुछ इस प्रकार है-
एक जीवित पत्थर की दो पत्तियाँ
रक्ताभ, उत्सुक
काँपकर जुड़ गई
मैंने देखा
मैं फूल खिला सकता हूँ।
धर्मवीर भारती का उपन्यास 'गुनाह' काफी लोकप्रिय है। इस उपन्यास में उन्होंने लिखा,
अगर मैंने किसी के होठ के पाटल कभी चूमे
अगर मैंने किसी के नैन के बादल कभी चूमे
महज इससे किसी का प्यार मुझको पाप कैसे हो?
महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो?
तुम्हारा मन अगर सींचूं
गुलाबी तन अगर सींचूं, तरल मलयज झकोरों से!
तुम्हारा चित्र खींचूं प्यास के रंगीन डोरों से
कली-सा तन, किरन-सा मन, शिथिल सतरंगिया आंचल
उसी में खिल पड़ें यदि भूल से कुछ होठ के पाटल
किसी के होठ पर झुक जाएं कच्चे नैन के बादल
महज इससे किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो?
महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो?
मैथिलीशरण गुप्त ने दैहिक प्रेम की व्याख्या कुछ इस प्रकार से की है-
मदिराधर चुंबन, प्रसन्न मन,
मेरा यही भजन औ पूजन!
प्रकृति वधू से पूछा मैंने
प्रेयसि, तुझको दूँ क्या स्त्री-धन?
बोली, प्रिय, तेरा प्रसन्न मन
मेरा यौतुक, मेरा स्त्री धन!
विश्व प्रसिद्ध कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपनी रचना में प्रेम की व्याख्या कुछ इस प्रकार से की है-
मेरा प्यार पास नहीं है
पर उसके स्पर्श मेरे केशों पर हैं
और उसकी आवाज़ अप्रैल के
सुहावने मैदानों से फुसफुसाती आ रही है ।
उसकी एकटक निगाह यहाँ के
आसमानों से मुझे देख रही है
पर उसकी आँखें कहाँ हैं
उसके चुंबन हवाओं में हैं
पर उसके होंठ कहाँ हैं ...
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने प्रेम की व्याख्या निम्नलिखित शब्दों में की -
लहर रही शशिकिरण चूम निर्मल यमुनाजल,
चूम सरित की सलिल राशि खिल रहे कुमुद दल
कुमुदों के स्मिति-मन्द खुले वे अधर चूमकर,
बही वायु स्वच्छंद, सकल पथ घूम-घूमकर
है चूम रही इस रात को वही तुम्हारे मधु अधर
जिनमें हैं भाव भरे हुए सकल-शोक-सन्तापहर!