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इमरान अपना ही काम तमाम!
जम्मू कश्मीर को लेकर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान जो कुछ कह रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उसकी अनदेखी यह बताती है कि उनकी कोशिशें कितनी निरर्थक हैं। इमरान के पाकिस्तान में जाकर भारत के जम्मू का नागरिक क्यों रहना चाहेगा। जहां सिर्फ भूख है। गरीबी है। कर्ज है। धर्म के सिवाय कुछ नहीं है। धर्म भी वह है जो आतंकी कहते और समझाते हैं। सरकार जनता से ज्यादा आतंकी और सेना की सुनती है। जिंदगी को मतलब नहीं। चीन के रहमोकरम के बिना न तो वहां जिंदगी शुरू होती है और न ही खत्म। पाक अधिकृत कश्मीर और भारत के जम्मू-कश्मीर के हालात अगर इमरान और उनके हमकदम लोग खुली आंखों से देखें तो उन्हें यह समझने में देर नहीं लगेगी कि परशियन शायर फिरदौस ने जमीन के जिस हिस्से को धरती का स्वर्ग कहा है वह पाक अधिकृत कश्मीर नहीं है। वरन जम्मू-कश्मीर को देखकर ही फिरदौस ने कहा था- अगर फिरदौस बर रूये जमीं अस्तध् हमीं अस्तो हमी अस्तो हमीं अस्त (धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यही हैं)। आखिर कोई स्वर्ग से निकलकर नर्क क्यों जाना चाहेगा। पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री रहे जोगेन्द्रनाथ मंडल बटवारे के समय चले तो गये थे पर 1950 में निराश होकर वापस भारत लौट आये। अभी हाल फिलहाल जब इमरान खान जम्मू-कश्मीर से 370 की समाप्ति पर नाहक स्यापा पीट रहे थे। तब उनके यहां के पूर्व विधायक ने भारत में रहने की ख्वाहिश जाहिर कर पाकिस्तान के अंदुरूनी हालात का जो खाका पेश किया वह जम्मू कश्मीर के लोगों के लिए आंख खोलने वाला रहा।
इमरान को यह भी याद रखना चाहिए कि आजादी के बाद जब जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान में रखने के लिए सियासी साजिशें ब्रिटेन की मिलीभगत से चली जा रहीं थीं। पाकिस्तानी सेना के लोग कबाइली ड्रेस में जम्मू कश्मीर में फतह के अभियान चला रहे थे तब भी इस इलाके के लोगों ने पाकिस्तान जाना कुबूल नहीं किया था। हरि सिंह तो भारत में रहने का अनुबंध कर ही चुके थे। लेकिन उनके खिलाफ आंदोलन चलाने वाले शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने पाकिस्तानपरस्ती का कोई संदेश नहीं दिया था। एक हकीकत यह भी है, इमरान को इससे अपनी बंद आंखें खोलने का अवसर मिल सकता है, कि पाकिस्तान के कायदेआजम बने जिन्ना जब पहली बार कश्मीर गये तब उनके ऊपर अंडे और टमाटर फेके गये थे। लेकिन 1 अगस्त 1947 को जब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कश्मीर पहुंचे तब उनके स्वागत के लिए लोगों का इतना बड़ा हुजूम उमड़ा कि झेलम के पुल पर तिल रखने की जगह नहीं थ। महात्मा गांधी की गाड़ी पुल से होकर श्रीनगर में प्रवेश कर ही नहीं सकती थी। उन्हें नदी के रास्ते नाव से शहर में लाया गया। गांधी रावलपिंडी होते हुए कश्मीर पहुंचे थे। उन्होंने अपने कश्मीर जाने का एलान 29 जुलाई 1947 की प्रार्थना सभा में किया था। गांधी को देखकर कश्मीरी लोग यह कह रहे थे कि पीर के दर्शन हो गये हैं। लार्ड माउंट बेटन ने गांधी से कश्मीर जाने का आग्रह किया था। हालांकि उनके मित्रों ने उनसे कहाकि अपनी उम्र के मददेनजर वह इतनी कठिन यात्रा न करें और कश्मीर की समस्या के समाधान के लिए पत्र लिख दें। गांधी का जवाब था-फिर मुझे नोवा खली जाने की क्या जरूरत थी। उस समय कश्मीर के राजा हरि सिंह, राजपुत्र कर्ण सिंह, महारानी तारा देवी तीनों ने गांधी का गर्मजोशी से स्वागत किया था। गांधी जेल में बंद शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की बेगम अकबर जहां अब्दुल्ला से भी मिले थे। बेगम जहां ने उनका नागरिक स्वागत किया।
जिन्ना और महात्मा गांधी के स्वागत के तौर तरीकों से कश्मीर के आवाम की मनरूस्थिति समझी जा सकती है। आज भी अगर पाकिस्तान से आतंकी कश्मीर में आकर आतंकी हरकतों को अंजाम न दें या फिर कश्मीर युवाओं को गुमराह न करें तो घाटी के स्वर्ग होने की बात पर सवाल उठाने का आधार नहीं रह जायेगा। कश्मीर को तबाह करने के काम को पाकिस्तान और उसकी सरपरस्ती में पल रहे आतंकी संगठन लम्बे समय से अंजाम दे रहे हैं। 1881 से साम्राज्यवाद लगातार कश्मीर पर शिंकजे के जाल बुनने लगा था। मान्यता के मुताबिक कश्यप ऋषि के नाम पर कश्मीर का नाम पड़ा। कश्मीर का इतिहास कल्हण रचित राजा तरंणी में है। शंकराचार्य ने भी कश्मीर को अपनी कर्मस्थली के रूप में चुना था। महात्मा गांधी की कश्मीर यात्रा का असर रहा कि शेख अब्दुल्ला की रिहाई हुई। भारत के साथ रहने की उन्होंने घोषणा की। कश्मीरी मुलसमानों में घूम-घूमकर उन्होंने पाकिस्तान से अलग रहने का अभियान चलाया। दुनियाभर को अंहिसा का पाठ पढ़ाने और इसी पर अमल करने वाले महात्मा गांधी ने भी कश्मीर में फौजी अभियान का समर्थन किया था। जब फौजी ताकत के बल पर पाकिस्तान ने कश्मीर को हड़पने की कोशिश शुरू की। भारत सरकार ने उसका फौजी सामना किया। तब गांधी ने इस फौजी अभियान का समर्थन किया था।
जब इमरान खान जम्मू कश्मीर से 370 की समाप्ति का रोना रोते हैं तो कश्मीरी आवाम को यह समझने में तकिन भी देर नहीं लगती है कि इमरान के घडियाली आंसू का सच क्या है। क्योंकि अगर इमरान को मुसलमानों की फिक्र होती तो वह चीन के बीगर मुसलमानों के सवाल को भी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाते। जहां मुसलमान जेल जैसी जगहों पर रहने को मजबूर हैं। जहां मुसलमानों के धार्मिक अधिकार पाबंद है। पर इस सवाल पर इमरान के होंठ सिल जाते हैं, जबकि अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपने 50 मिनट के भाषण में दुनिया को यह समझाने की असफल कोशिश करते हुए दिखते हैं कि कश्मीर में अगर दुनिया ने दखल नहीं दी तो भारत और पाकिस्तान के बीच परमाणु युद्ध हो सकता है। जबकि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 17 मिनट के अपने उसी मंच पर दिये गये भाषण में एक बार भी पाकिस्तान और कश्मीर का जिक्र तक नहीं किया। दरअसल, इमरान की दिक्कत पाकिस्तानी आवाम की दिक्कतों से अलग हो उठी है। इमरान आर्मी और आतंकी संगठनों के हाथ खेल रहे हैं। उन्हीं के बूते पर उन्हें सरकार की सफलता मिली है। इसीलिए जब उन्हें अपने मुल्क के लोगों की जरूरतें पूरी करने और आर्थिक तंगी से निजात दिलाने के साथ-साथ मुल्क की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने की दिशा में काम करना चाहिए तब वह सेना और आतंकियों को खुश करने में जुटे दिख रहे हैं। इमरान को कश्मीर में जिन्ना और गांधी के स्वागत से सबक लेना चाहिए। यही कश्मीर के आवाम का मन है। यही निर्णय है।
इमरान को यह भी याद रखना चाहिए कि आजादी के बाद जब जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान में रखने के लिए सियासी साजिशें ब्रिटेन की मिलीभगत से चली जा रहीं थीं। पाकिस्तानी सेना के लोग कबाइली ड्रेस में जम्मू कश्मीर में फतह के अभियान चला रहे थे तब भी इस इलाके के लोगों ने पाकिस्तान जाना कुबूल नहीं किया था। हरि सिंह तो भारत में रहने का अनुबंध कर ही चुके थे। लेकिन उनके खिलाफ आंदोलन चलाने वाले शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने पाकिस्तानपरस्ती का कोई संदेश नहीं दिया था। एक हकीकत यह भी है, इमरान को इससे अपनी बंद आंखें खोलने का अवसर मिल सकता है, कि पाकिस्तान के कायदेआजम बने जिन्ना जब पहली बार कश्मीर गये तब उनके ऊपर अंडे और टमाटर फेके गये थे। लेकिन 1 अगस्त 1947 को जब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कश्मीर पहुंचे तब उनके स्वागत के लिए लोगों का इतना बड़ा हुजूम उमड़ा कि झेलम के पुल पर तिल रखने की जगह नहीं थ। महात्मा गांधी की गाड़ी पुल से होकर श्रीनगर में प्रवेश कर ही नहीं सकती थी। उन्हें नदी के रास्ते नाव से शहर में लाया गया। गांधी रावलपिंडी होते हुए कश्मीर पहुंचे थे। उन्होंने अपने कश्मीर जाने का एलान 29 जुलाई 1947 की प्रार्थना सभा में किया था। गांधी को देखकर कश्मीरी लोग यह कह रहे थे कि पीर के दर्शन हो गये हैं। लार्ड माउंट बेटन ने गांधी से कश्मीर जाने का आग्रह किया था। हालांकि उनके मित्रों ने उनसे कहाकि अपनी उम्र के मददेनजर वह इतनी कठिन यात्रा न करें और कश्मीर की समस्या के समाधान के लिए पत्र लिख दें। गांधी का जवाब था-फिर मुझे नोवा खली जाने की क्या जरूरत थी। उस समय कश्मीर के राजा हरि सिंह, राजपुत्र कर्ण सिंह, महारानी तारा देवी तीनों ने गांधी का गर्मजोशी से स्वागत किया था। गांधी जेल में बंद शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की बेगम अकबर जहां अब्दुल्ला से भी मिले थे। बेगम जहां ने उनका नागरिक स्वागत किया।
जिन्ना और महात्मा गांधी के स्वागत के तौर तरीकों से कश्मीर के आवाम की मनरूस्थिति समझी जा सकती है। आज भी अगर पाकिस्तान से आतंकी कश्मीर में आकर आतंकी हरकतों को अंजाम न दें या फिर कश्मीर युवाओं को गुमराह न करें तो घाटी के स्वर्ग होने की बात पर सवाल उठाने का आधार नहीं रह जायेगा। कश्मीर को तबाह करने के काम को पाकिस्तान और उसकी सरपरस्ती में पल रहे आतंकी संगठन लम्बे समय से अंजाम दे रहे हैं। 1881 से साम्राज्यवाद लगातार कश्मीर पर शिंकजे के जाल बुनने लगा था। मान्यता के मुताबिक कश्यप ऋषि के नाम पर कश्मीर का नाम पड़ा। कश्मीर का इतिहास कल्हण रचित राजा तरंणी में है। शंकराचार्य ने भी कश्मीर को अपनी कर्मस्थली के रूप में चुना था। महात्मा गांधी की कश्मीर यात्रा का असर रहा कि शेख अब्दुल्ला की रिहाई हुई। भारत के साथ रहने की उन्होंने घोषणा की। कश्मीरी मुलसमानों में घूम-घूमकर उन्होंने पाकिस्तान से अलग रहने का अभियान चलाया। दुनियाभर को अंहिसा का पाठ पढ़ाने और इसी पर अमल करने वाले महात्मा गांधी ने भी कश्मीर में फौजी अभियान का समर्थन किया था। जब फौजी ताकत के बल पर पाकिस्तान ने कश्मीर को हड़पने की कोशिश शुरू की। भारत सरकार ने उसका फौजी सामना किया। तब गांधी ने इस फौजी अभियान का समर्थन किया था।
जब इमरान खान जम्मू कश्मीर से 370 की समाप्ति का रोना रोते हैं तो कश्मीरी आवाम को यह समझने में तकिन भी देर नहीं लगती है कि इमरान के घडियाली आंसू का सच क्या है। क्योंकि अगर इमरान को मुसलमानों की फिक्र होती तो वह चीन के बीगर मुसलमानों के सवाल को भी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाते। जहां मुसलमान जेल जैसी जगहों पर रहने को मजबूर हैं। जहां मुसलमानों के धार्मिक अधिकार पाबंद है। पर इस सवाल पर इमरान के होंठ सिल जाते हैं, जबकि अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपने 50 मिनट के भाषण में दुनिया को यह समझाने की असफल कोशिश करते हुए दिखते हैं कि कश्मीर में अगर दुनिया ने दखल नहीं दी तो भारत और पाकिस्तान के बीच परमाणु युद्ध हो सकता है। जबकि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 17 मिनट के अपने उसी मंच पर दिये गये भाषण में एक बार भी पाकिस्तान और कश्मीर का जिक्र तक नहीं किया। दरअसल, इमरान की दिक्कत पाकिस्तानी आवाम की दिक्कतों से अलग हो उठी है। इमरान आर्मी और आतंकी संगठनों के हाथ खेल रहे हैं। उन्हीं के बूते पर उन्हें सरकार की सफलता मिली है। इसीलिए जब उन्हें अपने मुल्क के लोगों की जरूरतें पूरी करने और आर्थिक तंगी से निजात दिलाने के साथ-साथ मुल्क की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने की दिशा में काम करना चाहिए तब वह सेना और आतंकियों को खुश करने में जुटे दिख रहे हैं। इमरान को कश्मीर में जिन्ना और गांधी के स्वागत से सबक लेना चाहिए। यही कश्मीर के आवाम का मन है। यही निर्णय है।
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