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सिर्फ बोली नहीं पूर्ण भाषा है भोजपुरी: डॉ राजेन्द्रप्रसाद सिंह
डॉ राजेन्द्रप्रसाद सिंह भोजपुरी और हिंदी के प्रमुख भाषा वैज्ञानिक एवं आलोचक हैं। पूर्वोत्तर भारत की भाषाओं पर सम्पूर्ण रूप से काम करनवाले वे हिंदी के पहले भाषा वैज्ञानिक हैं। उन्होंने एक साथ पंचानवे भाषाओं का शब्दकोश संपादित किया है। वे ऐसे पहले आलोचक हैं जिन्होंने हिंदी साहित्य में सबाल्टर्न अध्ययन का सूत्रपात किया। भोजपुरी में दलित चेतना को रेखांकित करने वाले भी वे पहले आलोचक हैं। साथ ही भोजपुरी का पहला त्रिभाषी कोश का संपादन करने का श्रेय भी उन्हें प्राप्त है। भोजपुरी भाषा के अस्तित्व और इसकी प्रासंगिकता को लेकर साहित्यकार एवं कवि डॉ. संतोष पटेल ने ‘अपना भारत’ और ‘न्यूजट्रैक’ के लिए अंतरराष्ट्रीयख्यात भाषा वैज्ञानिक डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह से लम्बी बातचीत की, प्रस्तुत हैं उसी बातचीत के प्रमुख अंश -
सवालः आप मानते रहे हैं कि भोजपुरी कई मायने में हिंदी से अलग है। मेरी जानकारी में तो यह सिर्फ हिंदी की लोकबोली है।
भारतीय भाषाविज्ञान भी यही बतलाता है कि भोजपुरी बोली है। पहले हिंदी की 17 बोलियां मानी जाती थीं, उसके पहले सिर्फ 8 मानी जाती रही हैं। अब हिंदी की बोलियां 48 हैं। ऐसा क्यों? जाहिर है कि भारत में भाषाई अस्मिता की पहचान ने कई बोलियों को स्वतंत्र किया है। नागपुरी एक समय में भोजपुरी की उपबोली थी, पर आज यह स्वतंत्र हो चुकी है। वह अब भोजपुरी की उपबोली नहीं रही। ऐसे ही पूर्वी मगही की प्रमुख उपबोलियों में कुरमाली, पंचपरगनिया और खोरठा की गिनती होती रही है। पर अब सभी मगही से स्वतंत्र हो चुकी हैं। कुरमाली, पंचपरगनिया और खोरठा आदि का भी अब स्वतंत्र पहचान बन चुकी हैं। समय बदल रहा है। इसलिए भाषाविज्ञान की पुरानी परंपराएं भी बदल रही हैं। किशोरीदास वाजपेयी ने तो यहां तक कह डाला है कि हिंदी की बोलियां वस्तुत: स्वतंत्र भाषाएं हैं। यदि आप भोजपुरी को हिंदी की बोली मानते हैं तो बंगला, गुजराती आदि को भी मानिए।
सवालः ऐसा कहा जाता है कि हिंदी के शब्दों और उसके ढांचे को भोजपुरीकरण कर दिया जाए तो वह भोजपुरी हो जाएगी। फिर हिंदी और भोजपुरी में फर्क कैसा?
यह बात तो उर्दू पर भी लागू है। यदि हिंदी वाक्यों से संस्कृत आदि की शब्दावली को बाहर करके अरबी-फारसी की शब्दावली को रख दिया जाएं तो हिंदी भी उर्दू हो जाएगी। फिर क्या यह माना जाए कि उर्दू नाम की कोई स्वतंत्र भाषा नहीं है? भोजपुरी तो कई मायने में हिंदी से अलग है, कहीं वह उर्दू से भी ज्यादा अलग है। भोजपुरी की सिर्फ शब्दावली ही नहीं बल्कि उसके परसर्ग, उपसर्ग, वाक्य-विन्यास आदि भी हिंदी से अलग हैं। हिंदी की जो सर्वाधिक बड़ी विशेषता ध्यान आकृष्ट करती है, वह है कर्ता के ‘‘ने’’ चिह्न का प्रयोग तथा उसकी सहायक क्रियाएं, यथा ‘‘हैं’’, ‘‘था’’, ‘‘गा’’ आदि। पर भोजपुरी के वाक्य-विन्यास में कर्ता परसर्ग ‘‘ने’’ का प्रयोग ही नहीं होता है। ऐसे ही हिंदी की सहायक क्रियाएं ‘‘हैं’’, ‘‘था’’, ‘‘गा’’ आदि भोजपुरी में सिरे से गायब हैं। भोजपुरी की सहायक क्रियाएं यथा बा, बाट, ताड़, बू आदि हिंदी की सहायक क्रियाओं से नितांत अलग हैं। फिर यह कैसे मान लिया जाए कि हिंदी का भोजपुरीकरण करने से वह भोजपुरी हो जाएगी।
सवालः आपने अभी परसर्गों की बात की है। आप यह बतावें कि भोजपुरी के उपसर्ग हिंदी से भिन्न कैसे हैं?
भोजपुरी के व्याकरण गण प्राय: हिंदी के उपसर्गों और प्रत्ययों को ही भोजपुरी का भी बतला दिया करते हैं जो भ्रामक हैं। भोजपुरी में कई ऐसे उपसर्गों का प्रचलन है जो हिंदी में सिरे से गायब हैं। मिसाल के तौर पर, ‘‘खेदल’’ से भोजपुरी में एक उपसर्ग ‘‘ल’’ जोडक़र ‘‘लखेदल’’ शब्द बनता है। हिंदी में ‘‘ल’’ उपसर्ग तो इस रूप में नहीं है। ऐसे ही भोजपुरी में ‘‘दोना’’ से ‘‘खदोना’’ बनता है। क्या हिंदी में ‘‘ख’’ उपसर्ग है। ऐसे में दावे के साथ कहा जा सकता है कि भोजपुरी के कुछ उपसर्ग हिंदी से अलग हैं।
सवालः भोजपुरी में संधि को लेकर विवाद है। कुछ लोग मानते हैं कि भोजपुरी में संधि-प्रकरण भी है। आप क्या मानते हैं?
देखिए। संस्कृत में तीन संधियां थीं-स्वर संधि, व्यंजन संधि और विसर्ग संधि। पर हिंदी में विसर्ग संधि की कोई अवधारणा नहीं है। स्वर और व्यंजन संधि हिंदी में प्रचलित हैं। पर भोजपुरी में कोई संधि नहीं है। भोजपुरी समास-प्रकरण में विश्वास करती है। इसमें समास द्वारा शब्दों का निर्माण होता है। यदि कहीं आपको लगे कि ‘‘विश्वामित्र’’ अथवा ‘‘बखीर’’ जैसे शब्द भोजपुरी में क्या हैं- संधि अथवा समास, तो आप दावे के साथ कह सकते हैं कि ये दोनों शब्द समास के उदाहरण हैं। संधि न तो ‘‘विश्वामित्र’’ में है और न ‘‘बखीर’’ में। विश्वामित्र का संधि-विच्छेद तो ‘‘विश्व+अमित्र’’ होगा। भला एक पिता विश्व का अमित्र (दुश्मन) नाम अपने पुत्र का क्यों रखेगा? इसलिए इसमें समास है अर्थात् विश्व का मित्र हो जो वह विश्वामित्र। ऐसे ही बकरी के दूध का बना हुआ ‘‘खीर’’ भोजपुरी में ‘‘बखीर’’ है। समास में दो पद आकर जुड़ते हैं। इसमें संधि की भांति ध्वनियों का मेल नहीं होता है। पर क्या हिंदी में ‘‘बखीर’’ जैसे समासिक पदों की अवधारणा है? नहीं है। इसलिए मैं कह रहा हूं कि भोजपुरी कई मायने में हिंदी से अलग है। हिंदी में एक उपसर्ग है और दूसरा प्रत्यय है। एक शब्दों के पहले लगता है और दूसरा शब्दों के बाद में जोड़ा जाता है। पर भोजपुरी के कुछेक शब्दों में मध्यसर्ग की भी अवधारणा है। ‘‘खान’’ को भोजपुरी में ‘‘खादान’’ भी कहा जाता है। यहां ‘‘दा’’ तो शब्द के मध्य में आया है। यह हिंदी की भांति न पहले है और न बाद में है।
सवालः भोजपुरी के शब्द-भंडार पर आपकी क्या राय है और यह बतावें कि यह हिंदी के शब्द-भंडार से अलग कैसे है?
हिंदी शब्द-भंडार का मूल स्रोत संस्कृत है तथा उसकी बोलियां हैं। पर उसकी बोलियों के शब्द-भंडार का मूल स्रोत हिंदी नहीं है। भोजपुरी आदि बोलियों में हिंदी से शब्द नहीं आए हैं बल्कि इधर से ही शब्द हिंदी में गए हैं। हिंदी का निर्माण हुआ है, पर भोजपुरी आदि का निर्माण नहीं हुआ है। बोलियां जनमानस के बीच युगों-युगों से स्वत: विकसित हुई हैं। यदि बोलियां नदी हैं तो हिंदी नहर है। नहर का निर्माण होता है, पर नदियां स्वत: बन जाती हैं। भोजपुरी के शब्द-भंडार में अनेक स्रोतों के शब्द हैं। नेग्रिटो, मुंडा, द्रविड़, आर्य-सभी के शब्दों से भोजपुरी के शब्द-भंडार भरे पड़े हैं। ‘‘बादुर’’ (चमगादड़) नेग्रिटो का शब्द है, ‘‘चोन्हाइल’’ (इतराना) मुंडा भाषा का शब्द है, ‘‘केवाड़ी’’ (दरवाजा) मंगोलॉयड शब्द है तथा ‘‘कनखी’’ (आंख की मुद्रा) द्रविड़ है। जाहिर है कि भोजपुरी के शब्द-भंडार अत्यंत फैला हुआ है और इसकी जड़ें इतिहास में गहरे पैठी हुई हैं।
सवालः मैथिली आठवीं अनुसूची में शामिल हो चुकी है। क्या मैथिली अब भी हिंदी की बोली है?
जाहिर है कि मैथिली हिंदी की अब बोली नहीं है। आठवीं अनुसूची में शामिल होकर वह भाषा का दर्जा प्राप्त कर चुकी है। अब वह मराठी, गुजराती आदि की भांति आठवीं अनुसूची की भाषा है। स्पष्ट है कि भोजपुरी भी जब आठवीं अनुसूची में शामिल होगी, तब रातों-रात वह भी ‘‘बोली’’ से ‘‘भाषा’’ हो जाएगी। आज भोजपुरी को आप हिंदी की बोली बता रहे हैं और कल आठवीं अनुसूची में शामिल होने के बाद आप उसे भाषा कहने लगिएगा। इसका मतलब यह है कि बोली को भाषा बनाने की क्षमता और अधिकार सरकार में है। पर मेरी राय यह है कि भोजपुरी आठवीं अनुसूची में शामिल हो या न हो, वह आठवीं अनुसूची में शामिल कई भाषाओं से अधिक समृद्ध है।