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खारिज करने से पहले जानिए

Dr. Yogesh mishr
Published on: 8 Jan 2019 12:34 PM IST
राफेल का सच या झूठ अभी तक एक पोशीदा राज है। लेकिन राफेल खरीद में जो सवाल उठाए जा रहे हैं उन सवालों का कोई कागजी दस्तावेज राफेल में गोलमाल की बात करने वालों के पास भी नहीें है। कभी कांग्रेस से अलग होकर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जब राजीव गांधी पर बोफोर्स में लेन देन के आरोप मढ़े थे तब उनके पॉकेट में मुड़ा हुआ कागज जरूर होता था। यह बात दीगर है कि उस कागज को विश्वनाथ प्रताप सिंह के अलावा किसी ने कभी नहीं देखा। बोफोर्स के समय सोशल मीडिया नहीं था। इसलिए बात आई और गई हो गयी। आज सोशल मीडिया है। प्रोएक्टिव है। नतीजतन राफेल को लेकर सोशल मीडिया पर जो कुछ चल रहा है वह बेहद दुख देने वाला है। हद तो यह है कि राफेल गांधी के नाम से एकांउट भी बन गये हैं। ट्विटर पर बने इस एकांउट में राहुल की संसद में आंख मारने वाली फोटो डीपी में लगी है। हालांकि इस एकाउंट में लिखा है कि इसका कोई रिश्ता राहुल गांधी से नहीं हैं। ३ लाख ३७ हजार लोग इस एकाउंट के फॉलोवर हैं जबकि यह एकाउंटधारक ४३७ लोगों को फॉलो करता है। फरवरी २०१० में खोले गये इस एकाउंट पर पॉश की एक कविता भी लगी हुई है।
बीते ५ जनवरी, २०१९ को इस एकांउट से एक ट्विट किया गया है कि हमें किसी भी आदमी को जानने से पहले उसकी आलोचना नहीं करनी चाहिए। हमारे एक दोस्त ने पं. दीनदयाल उपाध्याय के भारत मेें योगदान को लेकर एक रुचिकर किताब भेजी है। एंड्रायड फोन से किये गये ट्विट में किताब के जितने भी पन्ने खुलते हैं उसके हर पन्ने पर कुछ भी लिखा हुआ नहीं है। हर सादे पन्ने पर बड़ा सा प्रश्रवाचक चिन्ह अंकित है। समझ में नहीं आता है कि किसी को जाने बिना उसकी आलोचना नहीं करने की इबारत कहना क्या चाहती है? अपने इस कहे से ट्विटर एकांउटधारक बताना क्या चाहते हैं। पं. दीनदयाल उपाध्याय हमारे महापुरुष हैं। दक्षिण पंथ को वामपंथ खारिज करने का हक नहीं है। वामपंथ को दक्षिणपंथ खारिज करने का हक नहीं है। ये अलग-अलग विचारधाराएं हैं। इन विचारधाराओं से अलग-अलग समय पर लोगों की सहमति और असहमति बनती बिगड़ती रहती है। विचारधाराएं अलग-अलग समय पर प्रासंगिक होती है और अपनी प्रासंगिकता भी खोती हैं क्योंकि कोई भी विचार समाज से मिलकर बनता है। समाज के विचार प्रवाहमान होते रहते हैं, उसकी पृष्ठभूमि जरूरत व परिस्थिति से निर्मित होती है।
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने अन्त्योदय और और एकात्म मानववाद का दर्शन दिया। इसमें अन्त्योदय तो उनकी शैली में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से आया। जो समाजवाद से इस मामले में इतर है कि जरूरतमंद तक उसकी जरूरत की चीजें पहुंचाने के लिए अन्त्योदय अंतिम आदमी से शुरूआत की बात करता है। वह आदमी की जरूरतें पूरी करने का फॉर्मूला देता है। अन्त्योदय के संदर्भ में दीनदयाल उपाध्याय को खारिज करना राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी खारिज करना है। गांधी के सर्वोदय की दार्शनिक अवधारणा इसके मूल में है। वे एकात्म मानववाद में मनुष्य की सभी पेे्ररणाओं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, मनुष्य की सभी परिपूर्णताओं के मूल आधार-शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा, तथा पिंड से लेकर ब्रह्मांड तक - व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि और परमेष्टि सभी उनके दार्शनिक विचारधाराओं से परस्पर गुथे हुए हैं। वह प्रवृति से चिंतक और विचारक थे पर उन्हें भूमिका राजनेता की मिली थी।
राज्य की उत्पत्ति, धर्मराज्य, प्रजातंत्र, लोक कल्याणकारी राज्य, राष्ट्रवाद पर उन्होंने निर्भीक और निष्पक्ष दृष्टि रखी है। सिर्फ दार्शनिक आवधारणाओं तक खुद को बांध कर नहीं रखा है, बल्कि आर्थिक, सामाजिक क्षेत्र की समस्याओं के निवारण के भी सूत्र दिये हैं। एकात्म मानववाद में एक ओर जहां पाश्चात्य जीवनदर्शन है, वहीं दूसरी ओर भारतीय संस्कृति का पक्ष भी है। वह पश्चिम के अंधानुकरण के विरोधी हैं। सिद्धांतों की दृष्टि से डॉ. लोहिया और दीनदयाल एक-दूसरे पूरक थे। डॉ. लोहिया समाजवादी मंच से राष्ट्रवाद के प्रवक्ता थे और पं. दीनदयाल राष्ट्रवादी मंच से समाजवादी विचारक थे। इन दोनों की अगुवाई में गैर कांग्रेसवाद का एक सिद्धांतवादी राजनैतिक दर्शन उत्पन्न हुआ। अटल-आडवाणी वाली भाजपा के दौर में इस पार्टी के बैनर और पोस्टर से दीनदयाल गायब हो गये थे। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी वाली भाजपा में बैनर और पोस्टर पर दीनदयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी जगह पाने में कामयाब रहे।
वह भारतीय समस्याओं का हल घरेलू नुस्खों से खोजने के हिमायती थे। पश्चिम से भारत की समस्याएं हल नहीं होंगी। इस पर उनका पक्का यकीन था। जिस आदमी की विचारधारा पर खड़ी हुई पार्टी ६२ साल तक जीवित रही। ६२वें साल में अपनेे बूते पर स्पष्ट बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब रही। यही नहीें, आजादी के बाद पहली बार सचमुच राष्ट्रीय पार्टी के रूप में स्थापित हुई। कई बार गिरने के बाद अपनी जड़ें जमाने में कामयाब हुई। अगर कामयाबी को ही सफलता का नुस्खा मान लिया जाये तब भी दीनदयाल उपाध्याय को खारिज नहीं किया जा सकता । अगर सिद्धांत और नैतिकता को नुस्खा माना जाये तो भी उन्हें स्वीकार करना पड़ेगा।
किसी भी पूर्वज को, महापुरूष को खारिज करना ठीक नहीं है। यह न तो भारत की संस्कृति है और न ही सभ्यता।

किसी आदमी को अन्त्योदय और एकात्म मानववाद समझ में नहीं आ रहा है तो वह प्रश्नवाचक चिन्ह अपने ऊपर खड़ा कर सकता है। जब भी हम एक उंगली किसी की तरफ उठाते हैं तो तीन उंगलियां हमारी तरफ होती हैं। यह बात दीगर है कि अंगूठा इन तीन उंगलियों को दबाये रहता है। पर यह तो समझ में आता ही है कि तीन उंगलियां हमारी ओर हैं। किसी भी दार्शनिक की विचारधारा से सहमति-असहमति को उसके अबूझ होने का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए। यह धारणा यह चुगली करती है कि अबूझ साबित करने वाला मंदबुद्धि है या परले दर्जे की प्रतिबद्धता है। बच्चों के लिए जानलेवा बने ब्लू व्हेल गेम को बनाने वाले ने अपने बचाव में यह कहा था कि जो बच्चे इस गेम के चलते अपनी जान गंवा रहे हैं, वे जैविक कचरा हैं। यह बात बच्चों पर सही नहीं थी। लेकिन इस तरह के ट्विट करने वाले लोगों पर जरूर सच है। किसी की आलोचना करने से पहले उसे कई बार पढिघ्ए, दस बार जानिए क्योंकि जब आप किसी को खारिज करते हैं तो तवारिख में दर्ज उसके काम आपको आईना दिखाते हुए आपके सामने खड़े रहते हैं।

Dr. Yogesh mishr

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