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कीचड़ से कीचड़ धोने का खेल
कर्नाटक में लोकतंत्र खतरे में था। अभी भी खतरे में है। आपको लगेगा कि जब लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गयी पार्टियां मिल कर बहुमत की सरकार बनाने का फैसला कर चुकी हो, सदन में बहुमत का जादुई आंकड़ा इनके पक्ष में हो, भाजपा की सरकार के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा 55 घंटों में विश्वास मत हासिल करने से पहले समर्पण कर चुके हो, तो लोकतंत्र के अभी भी खतरे में होने की बात बेमानी है। पर लोकतंत्र तो खतरे में ही है। वजह यह कि जो जनादेश आया है वह पिछली सत्तारूढ़ रही कांग्रेस के खिलाफ है। जनता दल सेक्युलर ( जेडीएस) अल्पमत में है। उसे सरकार बनाने का जनादेश नहीं मिला है। फिर भी वही सरकार की मुखिया होगी। जनादेश तो भाजपा के पक्ष में भी नहीं है। इन हालातों के मद्देनजर कर्नाटक के चुनावी नतीजों का मूल्यांकन किया जाय तो लोकतंत्र खतरे से बाहर नहीं दिखता। कर्नाटक की जंग में कोई भी जीता हुआ नहीं दिखता।
भाजपा की पराजय तो तभी हो गयी थी जब वह 104 विधायकों के आंकड़ों को बहुमत तक पहुंचाने में कामयाब नहीं हुई। यही नहीं, इससे पहले जब स्पष्ट जनादेश भाजपा के पक्ष में नहीं आया तब भी वह हार गयी थी। इस बार कर्नाटक में भाजपा की सरकार इसलिए भी बनती दिख रही थी क्योंकि बीते 35 सालों में किसी पार्टी का शासन रिपीट नहीं हुआ। इसलिए ‘अबकी बारी, भाजपा भारी‘ लग रही थी। बारी - बारी का क्रम और टोटका भाजपा के पक्ष में नहीं गया। यह उसकी पराजय है। भाजपा की यह भी पराजय रही कि मोदी - शाह की जोड़ी अपराजेय नहीं रह गयी। प्रो-टेम स्पीकर के सवाल पर भी भाजपा की वह जीत नहीं हो पायी जिसकी उसे उम्मीद थी। प्रो-टेम स्पीकर की नीयत पर उठे सवाल 2010 की घटना से इस तरह पुष्ट हो रहे थे कि मानो विपक्ष जो कह रहा है वह सच है। विपक्ष का आरोप था कि प्रो-टेम स्पीकर के पद पर बोपैया की नियुक्ति येदियुरप्पा की नैय्या पार लगाने के लिए की गयी। बोपैया 2009 से 13 तक विधानसभा के अध्यक्ष थे। वर्ष 2010 में येदियुरप्पा को विश्वास मत हासिल कराने के लिए उन्होंने 16 विधायकों को अयोग्य करार दिया था। दक्षिण की तरफ शुरू हुई भाजपा की यात्रा पर विराम लग गया। लिंगायत कार्ड काम नहीं आया। भाजपा ने हर हथकंडे अपनाये। गोवा, मणिपुर, मेघालय दुहरा नहीं सकी। जबकि कर्नाटक में वह सबसे बड़ी पार्टी थी। कर्नाटक के बहाने गोवा, मणिपुर और मेघालय में सरकार बनाने के सवाल जीवित हो उठे। प्लानिंग और मइक्रोप्लानिंग तो चली पर फ्लोर टेस्ट में बीजेपी फेल हो गयी। इस तरह हर मोर्चे पर बीजेपी हारी।
कांग्रेस कुमार स्वामी के साथ सरकार बना कर भी कर्नाटक में हार गयी। क्योंकि वह बड़ा दल होने के बाद भी उसके हाथ मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं आयी। वह भी तब जब कांग्रेस के मुख्यमंत्री सिद्धरमैया की अगुवाई में हुए चुनाव में वोट तकरीबन दो फीसद बढ़े। जेडीएस और कांग्रेस एक दूसरे के दुश्मन थे। कांग्रेस ने प्रचार अभियान में जेडीएस को भाजपा की बी टीम कहा। आरोप मढ़ा कि जेडीएस के साथ लगा हुआ एस सेकुलर नहीं संघ (आरएसएस ) है। 2004 के विस चुनाव के बाद जेडीएस और कांग्रेस ने मिलकर सरकार बनायीं। लेकिन 2006 में कुमारस्वामी ने खेल कर दिया। मुख्यमंत्री बनने के लिए पार्टी तोड़ कर बीजेपी का दामन थामा। दोनों के बीच आधे - आधे कार्यकाल तक मुख्यमंत्री की डील हुई। लेकिन 2007 में कुमारस्वामी अपने वादे से मुकरे। सरकार से समर्थन वापस ले लिया।
मुख्यमंत्री बनाये गए कुमारस्वामी 11वीं लोकसभा में कनकपुरा से पहली बार सांसद चुने गए। वह नौ बार चुनाव लडे़। 6 बार जीते। राजनीति में आने से पहले कुमार स्वामी फिल्म निर्माता और वितरक थे। यही वजह है कि मुख्यमंत्री बनते ही उनकी अभिनेत्री पत्नी राधिका कुमारस्वामी भी सुर्खियों में आ गयी। दोनों का दूसरा विवाह है। 1996 में 10 माह के लिए देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बने तो वह भी अल्पमत के ही प्रधानमंत्री थे। उनके 46 सांसद थे। उन्हें भी कांग्रेस का समर्थन था।
आज जब उनके बेटे कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बन रहे हैं तब भी वह उसी कांग्रेस की बैसाखी पर हैं। उनके 38 विधायक हैं। कर्नाटक के किसी गैर हिंदी भाषी नेता के देशव्यापी समर्थन की उम्मीद बेमानी है पर दूसरी पीढ़ी में जब अखिलेश यादव, उमर अब्दुल्ला, ओमप्रकाश चैटाला अपने बलबूते बहुमत की सरकार बना रहे हो तब कुमारस्वामी की बैसाखी सरकार को उनके लिहाज से हार ही कहा जाना चाहिए। सिद्धरमैया के लिहाज से एक पराजय उनकी सरकार का जाना है। दूसरी, देवेगौड़ा और कुमारस्वामी के साथ काम करना रहा है। पहले सिद्धरमैया, देवेगौड़ा के साथ ही थे।
राजभवन की पराजय विवाद का केंद्र बना रहे हैं। 15 दिन में विश्वास मत हासिल करने के उसके फैसले को सुप्रीम कोर्ट द्वारा पलट कर दो दिन कर देने, येदियुरप्पा का बिना विश्वास हासिल किये भावुक भाषण देकर पारी समाप्ति की घोषणा भी राजभवन की ही पराजय है। राज्यपाल वजू भाई के बारे में यह दौरे जिक्र होना कि वह 118 विधायकों वाली गुजरात बेजीपी सरकार गिराने का हिसाब बराबर कर रहे हैं। जब सरकार गिरी थी तो वजू भाई गुजरात बीजेपी के अध्यक्ष और देवगौड़ा प्रधानमंत्री थे। यह भी पराजय है। कर्नाटक के सन्दर्भ में एस आर बोम्मई प्रकरण, रामेश्वर प्रसाद के मामले में आया फैसला और पंछी आयोग की सिफारिशों का गिनाया जाना भी पराजय है। ये सब दल बदल से सम्बंधित मामले हैं। संविधानिक लोकतंत्र में राजनीतिक दल संसदीय या विधायी मामले को अपने स्तर पर समाधान नहीं कर पाएं तो यह भी पराजय है। जनता की पराजय यह है कि देशभर में एक दशक से स्पष्ट बहुमत का जनादेश सुनाने की जगह त्रिशंकु फैसला दिया। नतीजतन, जिसे खारिज किया वह सरकार चलाएगा। कर्नाटक में निर्वाचन आयोग की पराजय यह है कि धनबल पर नियंत्रण के उसके दावे और 28 लाख रुपये की खर्च सीमा बेमानी हो गयी। आयोग बिजूका साबित हुआ। केपीजेपी के विधायक शंकर ने तो चारित्रिक पतन की पराकष्ठा लिखी। पल-पल दल बदल कर बता दिया कि लोकतंत्र कुर्सी का पर्याय है। पहले कांग्रेस और जेडीएस जिसे खतरा बता रहे थे आज भाजपा वही कह रही है। लोकतंत्र के खतरे के दावे तीनों कर रहे हैं। हकीकत में यह लोकतंत्र है ही नहीं। यह महज कुर्सी है। लोकतंत्र का कुर्सी में निरंतर तब्दील होते जाना हमारे वर्तमान और भविष्य का वह अभिशाप है जिसमें कीचड़ से कीचड़ धोया जा रहा है। यह भी पराजय है।
भाजपा की पराजय तो तभी हो गयी थी जब वह 104 विधायकों के आंकड़ों को बहुमत तक पहुंचाने में कामयाब नहीं हुई। यही नहीं, इससे पहले जब स्पष्ट जनादेश भाजपा के पक्ष में नहीं आया तब भी वह हार गयी थी। इस बार कर्नाटक में भाजपा की सरकार इसलिए भी बनती दिख रही थी क्योंकि बीते 35 सालों में किसी पार्टी का शासन रिपीट नहीं हुआ। इसलिए ‘अबकी बारी, भाजपा भारी‘ लग रही थी। बारी - बारी का क्रम और टोटका भाजपा के पक्ष में नहीं गया। यह उसकी पराजय है। भाजपा की यह भी पराजय रही कि मोदी - शाह की जोड़ी अपराजेय नहीं रह गयी। प्रो-टेम स्पीकर के सवाल पर भी भाजपा की वह जीत नहीं हो पायी जिसकी उसे उम्मीद थी। प्रो-टेम स्पीकर की नीयत पर उठे सवाल 2010 की घटना से इस तरह पुष्ट हो रहे थे कि मानो विपक्ष जो कह रहा है वह सच है। विपक्ष का आरोप था कि प्रो-टेम स्पीकर के पद पर बोपैया की नियुक्ति येदियुरप्पा की नैय्या पार लगाने के लिए की गयी। बोपैया 2009 से 13 तक विधानसभा के अध्यक्ष थे। वर्ष 2010 में येदियुरप्पा को विश्वास मत हासिल कराने के लिए उन्होंने 16 विधायकों को अयोग्य करार दिया था। दक्षिण की तरफ शुरू हुई भाजपा की यात्रा पर विराम लग गया। लिंगायत कार्ड काम नहीं आया। भाजपा ने हर हथकंडे अपनाये। गोवा, मणिपुर, मेघालय दुहरा नहीं सकी। जबकि कर्नाटक में वह सबसे बड़ी पार्टी थी। कर्नाटक के बहाने गोवा, मणिपुर और मेघालय में सरकार बनाने के सवाल जीवित हो उठे। प्लानिंग और मइक्रोप्लानिंग तो चली पर फ्लोर टेस्ट में बीजेपी फेल हो गयी। इस तरह हर मोर्चे पर बीजेपी हारी।
कांग्रेस कुमार स्वामी के साथ सरकार बना कर भी कर्नाटक में हार गयी। क्योंकि वह बड़ा दल होने के बाद भी उसके हाथ मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं आयी। वह भी तब जब कांग्रेस के मुख्यमंत्री सिद्धरमैया की अगुवाई में हुए चुनाव में वोट तकरीबन दो फीसद बढ़े। जेडीएस और कांग्रेस एक दूसरे के दुश्मन थे। कांग्रेस ने प्रचार अभियान में जेडीएस को भाजपा की बी टीम कहा। आरोप मढ़ा कि जेडीएस के साथ लगा हुआ एस सेकुलर नहीं संघ (आरएसएस ) है। 2004 के विस चुनाव के बाद जेडीएस और कांग्रेस ने मिलकर सरकार बनायीं। लेकिन 2006 में कुमारस्वामी ने खेल कर दिया। मुख्यमंत्री बनने के लिए पार्टी तोड़ कर बीजेपी का दामन थामा। दोनों के बीच आधे - आधे कार्यकाल तक मुख्यमंत्री की डील हुई। लेकिन 2007 में कुमारस्वामी अपने वादे से मुकरे। सरकार से समर्थन वापस ले लिया।
मुख्यमंत्री बनाये गए कुमारस्वामी 11वीं लोकसभा में कनकपुरा से पहली बार सांसद चुने गए। वह नौ बार चुनाव लडे़। 6 बार जीते। राजनीति में आने से पहले कुमार स्वामी फिल्म निर्माता और वितरक थे। यही वजह है कि मुख्यमंत्री बनते ही उनकी अभिनेत्री पत्नी राधिका कुमारस्वामी भी सुर्खियों में आ गयी। दोनों का दूसरा विवाह है। 1996 में 10 माह के लिए देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बने तो वह भी अल्पमत के ही प्रधानमंत्री थे। उनके 46 सांसद थे। उन्हें भी कांग्रेस का समर्थन था।
आज जब उनके बेटे कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बन रहे हैं तब भी वह उसी कांग्रेस की बैसाखी पर हैं। उनके 38 विधायक हैं। कर्नाटक के किसी गैर हिंदी भाषी नेता के देशव्यापी समर्थन की उम्मीद बेमानी है पर दूसरी पीढ़ी में जब अखिलेश यादव, उमर अब्दुल्ला, ओमप्रकाश चैटाला अपने बलबूते बहुमत की सरकार बना रहे हो तब कुमारस्वामी की बैसाखी सरकार को उनके लिहाज से हार ही कहा जाना चाहिए। सिद्धरमैया के लिहाज से एक पराजय उनकी सरकार का जाना है। दूसरी, देवेगौड़ा और कुमारस्वामी के साथ काम करना रहा है। पहले सिद्धरमैया, देवेगौड़ा के साथ ही थे।
राजभवन की पराजय विवाद का केंद्र बना रहे हैं। 15 दिन में विश्वास मत हासिल करने के उसके फैसले को सुप्रीम कोर्ट द्वारा पलट कर दो दिन कर देने, येदियुरप्पा का बिना विश्वास हासिल किये भावुक भाषण देकर पारी समाप्ति की घोषणा भी राजभवन की ही पराजय है। राज्यपाल वजू भाई के बारे में यह दौरे जिक्र होना कि वह 118 विधायकों वाली गुजरात बेजीपी सरकार गिराने का हिसाब बराबर कर रहे हैं। जब सरकार गिरी थी तो वजू भाई गुजरात बीजेपी के अध्यक्ष और देवगौड़ा प्रधानमंत्री थे। यह भी पराजय है। कर्नाटक के सन्दर्भ में एस आर बोम्मई प्रकरण, रामेश्वर प्रसाद के मामले में आया फैसला और पंछी आयोग की सिफारिशों का गिनाया जाना भी पराजय है। ये सब दल बदल से सम्बंधित मामले हैं। संविधानिक लोकतंत्र में राजनीतिक दल संसदीय या विधायी मामले को अपने स्तर पर समाधान नहीं कर पाएं तो यह भी पराजय है। जनता की पराजय यह है कि देशभर में एक दशक से स्पष्ट बहुमत का जनादेश सुनाने की जगह त्रिशंकु फैसला दिया। नतीजतन, जिसे खारिज किया वह सरकार चलाएगा। कर्नाटक में निर्वाचन आयोग की पराजय यह है कि धनबल पर नियंत्रण के उसके दावे और 28 लाख रुपये की खर्च सीमा बेमानी हो गयी। आयोग बिजूका साबित हुआ। केपीजेपी के विधायक शंकर ने तो चारित्रिक पतन की पराकष्ठा लिखी। पल-पल दल बदल कर बता दिया कि लोकतंत्र कुर्सी का पर्याय है। पहले कांग्रेस और जेडीएस जिसे खतरा बता रहे थे आज भाजपा वही कह रही है। लोकतंत्र के खतरे के दावे तीनों कर रहे हैं। हकीकत में यह लोकतंत्र है ही नहीं। यह महज कुर्सी है। लोकतंत्र का कुर्सी में निरंतर तब्दील होते जाना हमारे वर्तमान और भविष्य का वह अभिशाप है जिसमें कीचड़ से कीचड़ धोया जा रहा है। यह भी पराजय है।
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