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Kumbh 2025: प्रयाग और आदि शंकराचार्य
Kumbh 2025: नौवीं शताब्दी के महान दार्शनिक शंकराचार्य ने अपने अद्भुत व्यक्तित्व से हिंदू धर्म को संगठित करने का प्रयास किया। इन्होंने बहुचर्चित चार मठों की स्थापना की।
Kumbh 2025: आठवीं -नवीं शताब्दी ईसवी में भारत से बौद्ध धर्म और जैन धर्म का पतन हो गया। और शंकराचार्य के योगदान से सनातन धर्म का पुनरुत्थान हुआ।
शंकराचार्य का जन्म केरल प्रान्त के अलवर नदी (मालाबार तट) के उत्तरी किनारे पर स्थित कलादी नामक ग्राम में 788 ई. के लगभग हुआ। इनके पिता शिव गुरु नम्बुदिरि ब्राह्मण थे तथा उनकी माता का नाम आर्यम्बा था।
जब शंकराचार्य मात्र 03 वर्ष के थे, तभी उन्होंने अपनी मातृभाषा मलयालम का ज्ञान भली भाँति प्राप्त कर लिया था। 5 वर्ष की आयु में उनका उपनयन संस्कार हुआ। उनको शिक्षा के लिए गुरुकुल भेजा गया। 2 वर्षों में ही उन्होंने सम्पूर्ण वेदों तथा शास्त्रों का अध्ययन कर लिया। 8 वर्ष की आयु मेंअपनी माता की आज्ञा लेकर उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया। गृहत्याग के पश्चात सर्वप्रथम शंकराचार्य नर्मदा नदी के तट पर आये जहां गौडपाद के शिष्य गोविन्द योगी को उन्होंने अपना प्रथम गुरु बनाया।। दीक्षा के उपरान्त गुरु ने इन्हें परमहंस की उपाधि प्रदान की।
अपने ज्ञान के प्रचार हेतु सर्वप्रथम शंकराचार्य काशी गये
अपने गुरु गोविन्द योगी से आज्ञा लेकर अपने ज्ञान के प्रचार हेतु सर्वप्रथम शंकराचार्य काशी गये। उनकी ख्याति चतुर्दिक फैल गयी। शंकराचार्य ने कश्मीर से कन्याकुमारी तक के विभिन्न तीर्थस्थलों का व्यापक भ्रमण किया। बौद्ध, जैन, कापालिक, स्मार्त तथा अन्य अनेक सम्प्रदायों के आचार्यों के साथ उनका शास्त्रार्थ हुआ। नर्मदा नदी के तट पर महिष्मती में मंडन मिश्र तथा उनकी पत्नी के साथ शास्त्रार्थ हुआ इन दोनों ने अपनी पराजय स्वीकार की।
एक मत के अनुसार प्रयाग में प्रख्यात दार्शनिक कुमारिल से भीशंकराचार्य का शास्त्रार्थ हुआ था। शंकराचार्य के जीवनीकार आनन्द गिरि ने लगभग 50 सम्प्रदायों के आचार्यों का उल्लेख किया है, जिनसे उनका शास्त्रार्थ हुआ था। सभी को शंकराचार्य ने पराजित कर अपनी आध्यात्मिक दिग्विजय का लक्ष्य पूरा किया।
उपनिषदों से ही वेदों का अंत
शंकराचार्य वेदान्त के सर्वाधिक प्रभावशाली प्रतिपादक थे। वेदान्त का उनका संस्करण अद्वैतवाद कहलाता है। उपनिषदों से ही वेदों का अंत होता है। इसलिए उन्हें तथा उन पर आधारित दर्शन को वेदान्त कहा जाता है। जिसे उत्तर मीमांसा भी कहा जाता है। उपनिषदों पर आधारित वेदान्त दर्शन की चर्चा की गयी, जिसमें बादरायण का ब्रह्मसूत्र तथा भगवद् गीता भी शामिल हैं। अद्वैत वेदान्त की व्याख्या औपचारिक रूप से सर्वप्रथम सातवीं-आठवीं शताब्दी में गौडपाद के माण्डूक्यकारिका में मिलती है जोमाण्डूक्योपनिषद पर लिखी गयी एक पद्यात्मक टीका है। गौडपाद, माध्यमिक तथा विज्ञानवाद, बौद्धधर्म से प्रभावित मालूम पड़ते हैं। उनका मानना था कि संसार की घटनाएं एक स्वप्न के समान हैं। सत्य एक है(अद्वैत) तथा अनेकत्व का बोध, माया (भ्रम) से उत्पन्न होता है।
गौडपाद के विचारों ने शंकर में पूर्ण अभिव्यक्ति प्राप्त की जिन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि उपनिषदों और ब्रह्मसूत्रों का दर्शन व्यवस्थित एवं एकीकृत है। शंकर के अनुसार वैदिक यज्ञों को सम्पन्न करना उनके लिए आवश्यक था, जिन्हें भौतिक एवं सांसारिक वस्तुओं की चाह थी, जबकि उपनिषदों में परमज्ञान का मार्ग निहित है।
उनके अद्वैतवादी सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्म ही अन्तिम सत्य है, जो निर्गुण है, वह शुद्ध चेतना है, शाश्वत और अपरिवर्तनशील है। सभी परिवर्तन औरअनेकत्व केवल बाह्य तौर पर दृश्य हैं। शंकर ने सत्य के केवल दो स्तरों को रेखांकित किया पारंपरिक यथार्थ तथा परम सत्य। इस विचार की व्याख्या करते हुए एक व्यक्ति द्वारा पड़ी हुई रस्सी को साँप समझने के भ्रम का उदाहरण दिया। यद्यपि रस्सी साँप के समान दिखायी पड़ती है पर वह है नहीं। इस पारम्परिक सत्य को पूर्ण सत्य समझने की भूल अविद्या के कारण होती है। अद्वैत वेदान्त का उद्देश्य जीवन चक्र से मुक्ति है, जब आत्मा का ब्रह्म से एकाकार हो जाता है। शंकर के अद्वैत वेदान्त केअनुसार ब्रह्म केवल एक है और वही सत्य है।
शंकराचार्य ने किया बहुचर्चित चार मठों की स्थापना
नौवीं शताब्दी के महान दार्शनिक शंकराचार्य ने अपने अद्भुत व्यक्तित्व से हिंदू धर्म को संगठित करने का प्रयास किया। इन्होंने बहुचर्चित चार मठों की स्थापना की। उत्तर में ज्योर्तिमठ, दक्षिण में श्रृंगेरीमठ, पूर्व में गोवर्धनमठ और पश्चिम में शारदामठ। अद्वैतवाद को बढ़ावा देने हेतु इन केन्द्रों को दशनामी के अन्तर्गत विभाजित किया । जैसे सरस्वती, पुरी, वाण, तीर्थ, गिरी, पर्वत, भारती, अरण्य, आश्रम और सागर। प्रत्येक केन्द्र के लिए उन्होंने एक को नामित किया जिसके मार्गदर्शन में साधु कार्य करेंगे। ये साधु दो उद्देश्यों के लिए नियमित रूप से कुम्भ मेला में एकत्रित होंगे-पहला उद्देश्य भिन्न मतों के साधुओं से सम्पर्क बनाएंगे, दूसरा-आध्यात्म की इच्छा रखने वाले साधुओं को एकत्रित करेंगे। इन लोगों ने बहुत उत्साहजनक प्रतिक्रिया दी, क्योंकि इन्हें दो अवसर प्रदान किया गया था। पहला, साधुओं के माध्यम से प्रेरणा प्राप्त करना दूसरा, मोक्ष प्राप्ति हेतु पवित्र नदियों मे स्नान करना।
कामा मैकलीन के अनुसार "विभिन्न भागों के पवित्र लोगों को मिलवाने / एकत्रित करने के उद्देश्य से अखाड़ों का कुम्भ मेला प्रयाग में प्रारम्भ आदिशंकराचार्य द्वारा आठवीं शताब्दी में किया गया।" जबकि विद्वानों का इस संबंध में मतभेद है। यह माना जाता है कि शंकराचार्य ने दशनामी संप्रदाय चार/पांच मठों के लिए की। यद्यपि यह स्पष्ट है कि आदिशंकराचार्य की शिक्षाओं को संरक्षित करने और प्रचारित करने के उद्देश्यसे बनाया गया। बहुत सारे इतिहासकारों का इस सम्बन्ध में मत-विभेद है कि मठों की स्थापना (श्रृंगेरी और कांची) अनेक शताब्दियों के बाद की गयी। उदाहरण के लिए श्रृंगेरीमठ की स्थापना 14वीं शताब्दी में विजयनगर साम्राज्य के काल में की गयी थी।
( उत्तर प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘ कुंभ-2019’ से साभार।)