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योगी सरकार के छह महीने: बीती ताहिं बिसार दे, आगे की सुध लेय...

aman
By aman
Published on: 19 Sep 2017 7:52 AM GMT
योगी सरकार के छह महीने: बीती ताहिं बिसार दे, आगे की सुध लेय...
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Sanjay Bhatnagar

लखनऊ: उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले योगी आदित्यनाथ ने चुनावी रैली और मीडिया इंटरव्यू में कई बार एक ही बात कही थी। उन्होंने ऐलानिया बयान दिया था कि उनके पास वो सभी योग्यताएं हैं जो सूबे के सीएम के पास होनी चाहिए। शायद अपना सपना साकार होने के छह महीने बीतते-बीतते उन्हें इस पर नए सिरे से सोचना होगा। दरअसल, 180 दिन की चुनौतियों ने इस बयान को एक बार जेरे-बहस खड़ा कर दिया है।

राजनीति विज्ञान के जानकार और राजनीति के पंडित बिस्मार्क भी इस बात से सहमत होंगे, कि राजनीति आदर्श प्राप्त करने का खेल नहीं है, बल्कि संभव प्राप्त करने का खेल है। ये बात 21 करोड़ की आबादी वाले सूबे में सूत दर सूत खरी उतरती है। ऐसे यूपी में जहां आबादी के अलावा, विविधता, धरातल, आयाम और विरोधाभास इतने हैं, कि किसी भी देश को मात दे दें।

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अब आई असली लड़ाई की बारी

जाति, पंथ मजहब से बंटे इस राज्य की 403 सीटों में 325 सीट जीतकर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने असंभव सरीखा करिश्मा तो कर दिया, पर असली लड़ाई तो सरकार बनने के बाद शुरू हुई। प्रचंड बहुमत के बाद आई अखंड आशाओं को पूरा करने की लड़ाई। जिस जंगलराज की दुहाई देकर सत्ता में आए उसे खत्म करने की लड़ाई। भ्रष्टाचार की दीमक के जरिए तंत्र को खोखला करने के दावे और बदलाव के बाद की लड़ाई।

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'हनीमून पीरियड' रही हड़बड़ाहट भरी

किसी भी सरकार को सत्ता हासिल करने के बाद एक 'ग्रेस पीरियड' मिलता है। हनीमून पीरियड। अब छह महीने बीत चुके हैं। यह समय कालातीत हो चुका है। योगी आदित्यनाथ के शुरुआती फैसले अकसर चश्मे से देखे जाते हैं। अवैध स्लाटर हाउस को बंद करने का हो, एंटी रोमियो दस्ता हो या फिर जातीय संघर्ष और कानून व्यवस्था की तेज गिरावट हो। कई फैसलों में एक के बाद कई विरोधाभासी या फिर सुधारात्मक आदेश, नौकरशाही को अति उत्साही ना होने के आदेश देने से योगी सरकार की छवि हड़बड़ाहट की दिखी। ये बात और है कि हर फैसले को जनता और राजनैतिक पंडितों ने सरकार के बदलाव की आहट के तौर पर स्वीकार कर लिया।

आगे की स्लाइडस में पढ़ें योगी सरकार के छह महीने पूरे होने पर संजय भटनागर की विवेचना ...

नीयत साफ, पर स्पीड ब्रेकर भी दिखे

बतौर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की नीयत को लेकर तो कोई शक नहीं था, पर फैसलों लेने की रफ्तार में सुस्ती, नौकरशाही के शुरुआती दिनों में हावी होते दिखने, अफसरों की मठाधीशी ने सरकार की तेजी में कुछ स्पीड ब्रेकर जरूर खड़े कर दिए।

शुरुआती छह महीने बैकफुट पर ही रहे

लालकृष्ण आडवाणी ने भारतीय राजनीति को एक जुमला दिया है, 'फीलगुड फैक्टर'। आजकल हर सरकार चाहे बीजेपी की हो, या किसी अन्य दल की। इस जुमले के इर्द-गिर्द ही काम करती दिखती है। लोगों की राय, लोगों की सहूलियत और लोगों की अवधारणा। यह तथ्यों पर भी आधारित हो सकती है और मान्यताओं पर भी। मान्यताएं सही और गलत दोनों हो सकती है। वैसे भी इस सोशल मीडिया के युग में हर फैसले पर जनता जनार्दन की राय की अहमियत को नकारा नहीं जा सकता। लोगों की पसंद नापसंद को राजनैतिक सिद्धांतों के लिए नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है। योगी सरकार के पहले छह महीने इस पिच पर बैकफुट के ही कहे जाएंगे।

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वक्त छोटा या उम्मीदें बड़ी

उत्तर प्रदेश की सरकारों के बारे में यह सामान्य अवधारणा है, कि यूपी में डिलिवरी सिस्टम बहुत खराब है, लालफीता शाही में घिरा यह तंत्र हर राजनेता हर दल को बिगाड़ देता है। योगी की तेजतर्रार छवि और कुछ करने की नीयत के बाद भी यह छवि उतारकर फेंक नहीं सकी है बीजेपी सरकार। छह महीने का वक्त छोटा है या फिर अपेक्षाएं बहुत बड़ी हैं। इन दो कारकों को भी नाकारा नहीं जा सकता है। पर इन्हीं अपेक्षाओं और बदलाव की आस के पंख पर सवार होकर बीजेपी ने सियासत का किला फतह किया है। 2014 में भी और 2017 में भी।

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योगीराज में 'राज' योगी का नहीं

दरअसल, मान्यताओं के खरे-खोटे होने की बहस के बीच एक सच्चाई को हर नेता और दल मानता है कि आस्थाओं के इस देश में इन्हें नकारा नहीं जा सकता है। एक मान्यता है योगीराज में 'राज' योगी आदित्यनाथ का नहीं है। इस मान्यता को खारिज कर भ्रम को दूर करना अब वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है। इसके अलावा कुछ मान्यताएं जैसे वरिष्ठ नौकरशाही को मुख्यमंत्री पसंद नहीं करते, नौकरशाह सहयोगी की भी भूमिका नहीं निभाते, इनके भी टूटने में ज्यादा समय नहीं लगना चाहिए।

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सबक तो सीखे ही होंगे सीएम

मुख्यमंत्री की योग्यता का होना और उनका जमीनी धरातल पर उतरना दो अलग बातें हैं। छह महीनों ने यह सबक तो मुख्यमंत्री जी को दे ही दिया होगा। वह भी उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जहां हर बात में विविधता है। किसी भी काम के एक से अधिक कारक हैं, जिसकी हर राजनीति का असर देश की सियासी नब्ज पर होता है।

जो भी हो, आगे के लिए शुभकामनाएं

टेकऑफ धीमा होना रफ्तार न होने की आशंका नहीं पैदा करता, पर इतना जरूर है कि जब चुनौती 2019 के पहाड़ चढ़ने की हो तो रफ्तार का कम होना हानिकारक होता है। खुद के लिए, राजनीति के लिए और पार्टी के लिए भी। बहरहाल, आशांकाओं को विराम देकर आज के दिन हम आपको बेहतरीन यात्रा की शुभकामना देते हैं। और अच्छी बात यह कि कुछ-कुछ संकेत इस दिशा में दिखने भी लगे हैं।

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अमन कुमार - बिहार से हूं। दिल्ली में पत्रकारिता की पढ़ाई और आकशवाणी से शुरू हुआ सफर जारी है। राजनीति, अर्थव्यवस्था और कोर्ट की ख़बरों में बेहद रुचि। दिल्ली के रास्ते लखनऊ में कदम आज भी बढ़ रहे। बिहार, यूपी, दिल्ली, हरियाणा सहित कई राज्यों के लिए डेस्क का अनुभव। प्रिंट, रेडियो, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया चारों प्लेटफॉर्म पर काम। फिल्म और फीचर लेखन के साथ फोटोग्राफी का शौक।

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