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राम के भरोसे भाजपा: निर्णायक मोड़ पर अयोध्या विवाद  

raghvendra
Published on: 26 Oct 2018 12:58 PM IST
राम के भरोसे भाजपा: निर्णायक मोड़ पर अयोध्या विवाद  
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योगेश मिश्र/रामकृष्ण वाजपेयी

लखनऊ: 2019 के आम चुनाव में भले भाजपा या मोदी सरकार रामभरोसे न हो। लेकिन मिल रहे संकेतों से यह तो स्पष्ट है कि भरोसा तो राम का ही है। विजयादशमी पर्व पर संघ प्रमुख मोहन भागवत की केंद्र को मंदिर निर्माण की नसीहत, भाजपा सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी का मंदिर निर्माण शुरू होने का ट्वीट। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का सुर में सुर मिलाते हुए अयोध्या में राममंदिर बनाने की तैयारी में जुटने का आह्वान। संतों का राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से मुलाकात कर अनुरोध करना कि सरकार मंदिर के लिए अध्यादेश लाए। विहिप का इस वर्ष के अंत तक संसद में अध्यादेश लाए जाने की समय सीमा तय करना। श्रीकांत शर्मा का अध्यादेश लाने के विकल्प की बात कहना। उमा भारती का धैर्य छोडऩे की चेतावनी देते हुए साहसपूर्ण फैसले की पैरवी करना। गिरिराज सिंह का मुसलमानों से मंदिर के लिए समर्थन मांगना। शिवसेना का 21 नवंबर को अयोध्या कूच का एलान करना। ये सब कुछ ऐसी बातें हैं जिससे यह संकेत मिलने लगे हैं कि अयोध्या मामले में कुछ निर्णायक होने जा रहा है। वह राम मंदिर निर्माण का पथ प्रशस्त करना भी हो सकता है।

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भाजपा का कभी यह लोकप्रिय नारा था-‘‘रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे।’’ इसी नारे के कठघरे में भाजपा बीते 26 सालों से लगातार खड़ी की जाती रही है। लेकिन बीते विजयादशमी के अवसर पर अपने 84 मिनट के संबोधन में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि सरकार कानून बनाकर मंदिर बनाए। साधु स्वाध्याय संगम में भी मोहन भागवत ने राम मंदिर के मुद्दे को फिर से उठाने की अपील की। यही नहीं, विजयादशमी के दिन संघ प्रमुख ने यहां तक कह दिया कि हमारे संत जो कदम उठाएंगे, हम उनके साथ हैं। बीते 4 अक्टूबर को संतों-महंतों ने राष्ट्रपति से मिलकर मंदिर निर्माण के लिए अध्यादेश लाने की अपील की थी। संघ प्रमुख और संत-महंत ही नहीं, मंदिर आंदोलन से जुड़े रामविलास वेदांती, महंत नृत्यगोपाल दास, साक्षी महाराज, विनय कटियार, भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी, उमा भारती तथा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, सब लोग मंदिर बनाने को लेकर जो भी बयान दे रहे हैं, उनमें सिर्फ पुनरावृत्ति नहीं है बल्कि आश्वस्ति भाव भी है। इसमें मंदिर निर्माण का पक्ष दिखता है।

खुदाई से मंदिर होने की बात प्रमाणित

पुरातत्व विभाग द्वारा करायी गई खुदाई में मिले अवशेषों ने यह तो साबित कर ही दिया है कि रामजन्मभूमि पर निर्मित मंदिर को तोडक़र मस्जिद तामीर कराई गई थी। अब तक के प्रमाणों के आधार पर एएसआई ने विवादित स्थल के नीचे के उत्खनन की 574 पन्ने की जो रिपोर्ट अदालत में दी है, उसमें कहा गया है कि पुरातात्विक साक्ष्य बताते हैं कि तोड़े गए ढांचे के नीचे 11वीं सदी के हिन्दुओं के धार्मिक स्थल से जुड़े प्रमाण बड़ी संख्या में मौजूद हैं। न्यायालय में भगवान शंकर की मूर्ति को सबूत के तौर पर भी पेश किया गया। परिसर का राडार सर्वेक्षण भी कराया गया जिसमें यह तय हुआ कि ढांचे के नीचे एक और ढांचा है। 27 दीवारें मिलीं। दीवारों में नक्काशीदार पत्थर लगे हैं। एक छोटे से मंदिर की रचना मिली जिसे पुरातत्ववेत्ताओं ने 12वीं शताब्दी का हिंदू मंदिर लिखा है। उत्खनन की रिपोर्ट बताती है कि जो वस्तुएं मिलीं वे सभी उत्तर भारतीय हिन्दू मंदिर की वस्तुएं हैं।

हाईकोर्ट ने बांट दिया था विवादित स्थल

इन्हीं साक्ष्यों के आधार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ के तीनों न्यायमूर्तियों ने माना कि विवादित स्थल का केन्द्रीय स्थल रामजन्मभूमि है। उन्होंने 30 सितंबर, 2010 को अपने आदेश में अयोध्या के विवादित स्थल को 2:1 के अनुपात में हिन्दू और मुस्लिम पक्षकारों के बीच विभाजित कर दिया। न्यायालय ने गुम्बदक्षेत्र को जहां अस्थायी ढांचे में रामलला विराजमान है, हिन्दू पक्ष को आवंटित किया। ध्वस्त ढांचे के निकट का राम चबूतरा और सीता रसोई का हिस्सा निर्मोही अखाड़े को दिया। सुन्नी वक्फ बोर्ड को विवादित जमीन का बाहरी एक तिहाई हिस्सा मिला। बीते दिनों सर्वोच्च अदालत ने अपने एक फैसले में यह साफ कर दिया है कि मस्जिद नमाज का अभिन्न हिस्सा नहीं, यानी विवादित स्थल पर नमाज नहीं पढ़ी जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से हिन्दू पक्ष मंदिर बनने की उम्मीद का पाठ पढ़ सकता है।

अयोध्या ही उम्मीद की किरण

सर्वोच्च अदालत में मंदिर की विवादित जमीन के मालिकाना हक को लेकर रोजाना सुनवाई होने जा रही है। फिर भी संघ प्रमुख और मंदिर आंदोलन से जुड़े लोगों का मंदिर बनना शुरू किये जाने का बयान और लोकसभा चुनाव में उतरने की भाजपा की तैयारी के बीच यह समझना आसान हो जाता है कि भाजपा के शक्ति केन्द्र अयोध्या, मथुरा, काशी से ही उसे संजीवनी मिलने की उम्मीदनजर आने लगी है।हालांकि मथुरा और काशी भाजपा के एजेंडे में नेपथ्य में हैं। हाल फिलहाल अयोध्या ही उम्मीद की किरण है क्योंकि राहुल गांधी भी साफ्ट हिंदुत्व की राह पकड़ बैठे हैं। यह कहा जाने लगा है कि एससी-एसटी एक्ट के लिए सरकार अध्यादेश ला सकती है पर 2014 के चुनावी घोषणापत्र के 41वें पेज पर मंदिर बनाने के संकल्प को पूरा करती नहीं दिख रही है।

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मराठा, पटेल, जाट असंतोष के साथ ही एससी-एसटी एक्ट के चलते सवर्णों की नाराजगी, पदोन्नति में आरक्षण के चलते सरकारी कर्मचारियों का गुस्सा, पेट्रोल की बढ़ती कीमतें, अर्थव्यवस्था की अनपेक्षित स्थिति 2014 में चुनाव के समय भाजपा ने जो कुछ कहा था उसके पूरा न होने के हालात यह चुगली करते हैं कि मोदी के नाम और काम के अलावा केंद्र सरकार की उपलब्धियों को भाजपा शासित राज्य सरकारों की अनुपलब्धियां पलीता लगाने के लिए काफी हैं। मोदी दो कदम आगे बढ़ेंगे तो उनकी राज्य सरकारों के कारनामे उन्हें चार कदम पीछे खींच लेंगे। जनता के लिए राज्य और केंद्र सरकार के कामकाज को अलग-अलग देखना और उसका मूल्यांकन करना आसान नहीं है। यही नहीं शिवसेना भी मंदिर निर्माण के मसले को लेकर उत्तर प्रदेश कूच करने की तैयारी में है ताकि वह भाजपा को मंदिर निर्माण न किए जाने के लिए आईना दिखा सके।

राम के नाम पर मिली कामयाबी

जहां तक भाजपा का सवाल है तो यह कहा जाता है कि उसकी पूरी राजनीति राम के नाम पर टिकी है। 1980 में अपने गठन के बाद काफी समय तक जनसंघ के सिद्धांतों को लेकर चली भाजपा को उतनी सफलता नहीं मिली थी जितनी 1984 में भाजपा का अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी को बनाए जाने के बाद विहिप राम जन्मभूमि आंदोलन का समर्थन करने के बाद मिली। 1984 के लोकसभा चुनाव में जहां पार्टी को मात्र दो सीटों पर सफलता मिली थी और इसको 7.74 फीसदी मत मिले थे वहीं 1989 में 11.36 फीसदी वोट मिले सीटें बढक़र 85 हो गईं। 1990 के दशक में जब राम मंदिर आंदोलन परवान चढ़ा तो भाजपा को 1991 में 20.94 फीसदी वोट मिले और सीटों की संख्या बढक़र 120 हो गई। लेकिन विवादित ढांचा ढहने के बाद 1996 के आम चुनाव में वोट प्रतिशत में कुछ कमी आई। उसे 20.29 फीसदी वोट मिले लेकिन सीटों की संख्या बढक़र 161 हो गई।

1998 के आम चुनाव में एक बार फिर यह बढक़र 25.59 फीसदी हुआ और सीटों की संख्या 182 हो गई। एक साल के अंतराल पर ही पुन: चुनाव होने पर एक बार फिर वोट प्रतिशत गिरा जो कि 23.75 पर रुका पर सीटों की संख्या में एक का इजाफा होते हुए यह संख्या183 हो गई।

लोग यह मानकर चल रहे थे किअटल जी नीत भाजपा सरकार राममंदिर के लिए कुछ न कुछ करेगी, लेकिन जब पूरे पांच साल में गठबंधन धर्म की मर्यादा के नाम पर कुछ नहीं हुआ तो जनता के रुझान में फिर परिवर्तन आया और 2004 के आम चुनाव में वोट प्रतिशत एक बार फिर गिरकर 22.16 हो गया और विकास का नारा शाइन इंडिया देने के बावजूद भाजपा पिछडक़र केवल 138 सीटें हासिल कर सकी। इस बात की ओर हाल ही में पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने भी इशारा करते हुए कहा कि राम को छोडक़र केवल विकास के नाम पर वोट नहीं मांगे जा सकते हैं। इसके बाद अगले चुनाव में भी वोट प्रतिशत में और गिरावट आयी 2009 में भाजपा को सिर्फ 18.80 प्रतिशत वोट मिले और उसे 116 सीटें मिलीं। 2014 के चुनाव में गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेन्द्र मोदी का चेहरा भावी प्रधानमंत्री के रूप में आगे कर भाजपा चुनाव लड़ी और मोदी की कट्टर हिन्दूवादी छवि का भाजपा को भरपूर लाभ मिला। इस चुनाव में पार्टी को 31.3 फीसद वोट मिले और 282 सीटें पर अभूतपूर्व कामयाबी हासिल हुई।

यूपी चुनाव में भी राम नाम का असर

बात उत्तर प्रदेश की करें तो इस प्रदेश में 1985 में 16 सीटों से खाता खोलने वाली भाजपा को रामलला आंदोलन से जुडऩे पर पहली कामयाबी 1989 में मिली जब उसे 57 सीटों पर सफलता मिली। 1990 में जबकि आंदोलन अपने चरम पर पहुंचा था और कारसेवकों पर गोली चल चुकी थी। लोगों में रामजन्मभूमि आंदोलन को लेकर अद्भुत उत्साह था उस समय 1991 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को 31.45 फीसदी वोट मिले और 221 सीटों पर कामयाबी मिली। प्रदेश में कल्याण सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी और 6 दिसंबर 1992 को बाबरी ढांचा ध्वंस के समय पूरी सरकार राम के नाम पर समर्पित हो गई। इसके चलते केन्द्र की नरसिंह राव सरकार ने कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर दिया। मंदिर आंदोलन की सफलता के बाद 1993 के चुनाव में भाजपा का वोट प्रतिशत बढक़र 33.3 फीसदी हो गया, लेकिन मतों के ध्रुवीकरण के चलते सीटों की संख्या घटकर 177 हो गई। राम के नाम पर पार्टी को वोट दे रहे लोगों की निराशा के चलते इस पार्टी को 1996 के विधानसभा चुनाव में फिर धक्का लगा और वोट प्रतिशत गिरकर 32.52 रह गया और पार्टी को 174 सीटों पर कामयाबी मिली।

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इसके बाद 2002 के चुनाव में वोट प्रतिशत गिरकर 20.08 फीसदी पर आ गया और पार्टी को सिर्फ 88 सीटों पर कामयाबी मिली। हिन्दू वोटों की राजनीति पर केन्द्रित यह पार्टी जातीय आधार पर बंट रहे हिन्दू वोटों का विभाजन नहीं रोक पायी और 2007 के चुनाव में पार्टी का वोट प्रतिशत गिरकर 16.97 पर आ गया और उसे सिर्फ 51 सीटों पर सफलता मिली। 2012 में इसमें और कमी आई और मात्र 15 फीसदी वोट मिले, 47 सीटों पर कामयाबी मिली। लेकिन 2017 के चुनाव में मोदी के भाजपा का चेहरा बनने का असर यह हुआ कि पार्टी को न भूतो न भविष्यति के अंदाज में 40 फीसदी वोट मिले और 312 सीटों पर कामयाबी मिली। जनभावना को समझते हुए ही पार्टी ने योगी आदित्यनाथ की तेजतर्रार हिन्दुत्ववादी छवि को महत्व देते हुए उन्हें उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया। 2019 के चुनाव में पार्टी यह स्पष्ट रूप से समझ रही है कि जनभावना को नजरंदाज कर चुनाव की वैतरणी पार करना असंभव नहीं तो दुरूह अवश्य होगा।

अब मंदिर निर्माण ही सहारा

भाजपा जातीय राजनीति कर रही है। ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा देकर ओबीसी को दो से अधिक भागों में बांटने के लिए गठित रोहिणी कमीशन के कार्यकाल को बढ़ाने और 2021 की जनगणना में ओबीसी की गिनती कराने को मान बैठी है। उससे सवर्ण का मोहभंग होना लाजिमी है। हालांकि माना जा रहा है कि भाजपा जल्द ही सवर्ण आयोग भी गठित करेगी। लेकिन इन सबके बावजूद अगर मंदिर निर्माण नहीं शुरू होता है तो बहुसंख्यकों में विभाजन को रोक पाना भाजपा के लिए मुश्किल होगा। इकलौता मंदिर निर्माण ऐसा मुद्दा है जो एक बार फिर बहुसंख्यकों द्वारा बहुमत की सरकार बनाने के मोदी के फार्मूले को दोहरा सकता है। संघ प्रमुख, विहिप, साधु-संत और भाजपा के मंदिर आंदोलन से जुड़े नेता मोदी सरकार को यही बता और चेता रहे हैं।

इतिहास के आईने में रामजन्मभूमि मुक्ति आंदोलन

1528: अयोध्या में एक ऐसे स्थल पर मस्जिद का निर्माण किया गया जिसे हिंदू भगवान राम का जन्म स्थान मानते हैं। मुग़ल सम्राट बाबर के सेनापति ने ये मस्जिद बनवाई थी जिस कारण इसे बाबरी मस्जिद के नाम से जाना जाता था।

1859: ब्रिटिश सरकार ने तारों की एक बाड़ खड़ी करके विवादित भूमि के आंतरिक और बाहरी परिसर में मुस्लिमों और हिदुओं को अलग-अलग प्रार्थनाओं की इजाजत दे दी।

1885: मामला पहली बार अदालत में पहुंचा। महंत रघुबर दास ने फैजाबाद अदालत में बाबरी मस्जिद से लगे एक राम मंदिर के निर्माण की इजाजत के लिए अपील दायर की।

23 दिसंबर, 1949: करीब 50 हिंदुओं ने मस्जिद के केंद्रीय स्थल पर कथित तौर पर भगवान राम की मूर्ति रख दी। इसके बाद उस स्थान पर हिंदू नियमित रूप से पूजा करने लगे। मुसलमानों ने नमाज पढऩा बंद कर दिया।

16 जनवरी, 1950: गोपाल सिंह विशारद ने फैजाबाद अदालत में एक अपील दायर कर रामलला की पूजा-अर्चना की विशेष इजाजत मांगी। उन्होंने वहां से मूर्ति हटाने पर न्यायिक रोक की भी मांग की।

5 दिसंबर, 1950: महंत परमहंस रामचंद्र दास ने हिंदू प्रार्थनाएं जारी रखने और बाबरी मस्जिद में राममूर्ति को रखने के लिए मुकदमा दायर किया। मस्जिद को ‘ढांचा’ नाम दिया गया।

17 दिसंबर, 1959: निर्मोही अखाड़ा ने विवादित स्थल हस्तांतरित करने के लिए मुकदमा दायर किया।

18 दिसंबर, 1961: उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड ने बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक के लिए मुकदमा दायर किया।

1984: विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) ने बाबरी मस्जिद के ताले खोलने और राम जन्मस्थान को स्वतंत्र कराने व एक विशाल मंदिर के निर्माण के लिए अभियान शुरू किया। एक समिति का गठन किया गया।

1 फरवरी, 1986: फैजाबाद जिला न्यायाधीश ने विवादित स्थल पर हिदुओं को पूजा की इजाजत दी। ताले दोबारा खोले गए। नाराज मुस्लिमों ने विरोध में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन किया।

जून 1989: भारतीय जनता पार्टी ने वीएचपी को औपचारिक समर्थन देना शुरू करके मंदिर आंदोलन को नया जीवन दे दिया।

1 जुलाई, 1989: भगवान रामलला विराजमान नाम से पांचवां मुकदमा दाखिल किया गया।

9 नवंबर, 1989: तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार ने मस्जिद के नजदीक शिलान्यास की इजाजत दी।

25 सितंबर, 1990: बीजेपी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ से उत्तर प्रदेश के अयोध्या तक रथ यात्रा निकाली, जिसके बाद साम्प्रदायिक दंगे हुए।

नवंबर 1990: आडवाणी को बिहार के समस्तीपुर में गिरफ्तार कर लिया गया। बीजेपी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया।सिंह ने वामदलों और बीजेपी के समर्थन से सरकार बनाई थी। बाद में उन्होंने इस्तीफा दे दिया।

अक्टूबर 1991: उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह सरकार ने बाबरी मस्जिद के आसपास की 2.77 एकड़ भूमि को अपने अधिकार में ले लिया।

6 दिसंबर, 1992: हजारों कारसेवकों ने अयोध्या पहुंचकर बाबरी मस्जिद ढहा दी, जिसके बाद सांप्रदायिक दंगे हुए। जल्दबाजी में एकअस्थायी राममंदिर बनाया गया। प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने मस्जिद के पुनर्निर्माण का वादा किया।

16 दिसंबर, 1992: मस्जिद की तोडफ़ोड़ की जिम्मेदार स्थितियों की जांच के लिए एमएस लिब्रहान आयोग का गठन हुआ।

जनवरी 2002: प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने कार्यालय में एक अयोध्या विभाग शुरू किया, जिसका काम विवाद को सुलझाने के लिए हिंदुओं और मुसलमानों से बातचीत करना था।

अप्रैल 2002: अयोध्या के विवादित स्थल पर मालिकाना हक को लेकर उच्च न्यायालय के तीन जजों की पीठ ने सुनवाई शुरू की।

मार्च-अगस्त 2003: इलाहबाद उच्च न्यायालय के निर्देशों पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने अयोध्या में खुदाई की। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का दावा था कि मस्जिद के नीचे मंदिर के अवशेष होने के प्रमाण मिले हैं।

सितंबर 2003: एक अदालत ने फैसला दिया कि मस्जिद के विध्वंस को उकसाने वाले सात हिंदू नेताओं को सुनवाई के लिए बुलाया जाए।

अक्टूबर 2004: आडवाणी ने अयोध्या में मंदिर निर्माण की बीजेपी की प्रतिबद्धता दोहराई।

जुलाई 2009: लिब्रहान आयोग ने गठन के 17 साल बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अपनी रिपोर्ट सौंपी।

28 सितंबर 2010: सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय को विवादित मामले में फैसला देने से रोकने वाली याचिका खारिज करते हुए फैसले का मार्ग प्रशस्त किया।

30 सितंबर 2010: इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया।

21 मार्च 2017: राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता की पेशकश की। चीफ जस्टिस जे एस खेहर ने कहा कि अगर दोनों पक्ष राजी हो तो वो कोर्ट के बाहर मध्यस्थता करने को तैयार हैं।

30 सितंबर 2018: सुप्रीम कोर्ट का फैसला नमाज अदा करने के लिए मस्जिद जरूरी नहीं।



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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