केरल की तबाही के बाद अब गोवा की बारी!

raghvendra
Published on: 24 Aug 2018 7:39 AM GMT
केरल की तबाही के बाद अब गोवा की बारी!
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नीलमणि लाल

लखनऊ: केरल की तबाही के बाद अब गोवा की बारी। पर इसके लिए सिर्फ हमारी जिम्मेदारी। तबाही का यह मंजर गोवा में भी थमने वाला नहीं होगा। इसका असर वेस्टर्न घाट के छह राज्यों (केरल, गोवा, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और गुजरात) पर पड़ेगा। इस तबाही से इन राज्यों की तकरीबन एक लाख साठ हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल की जमीन प्रभावित होगी। यह बात सात साल पहले ही सरकार से कही जा चुकी है। पर सरकारें इस पर कान देने को तैयार नहीं हैं। वह अपनी मनवाना चाहती हैं तभी तो केरल समेत वेस्टर्न घाट के छह राज्यों की तबाही की आशंका जताने वाले प्रख्यात पारिस्थितिकविद् माधव गाडगिल की चेतावनी को दाखिल दफ्तर कर दिया जाता है। हद तो यह है कि इसे नजरंदाज करने के लिए गाडगिल समिति की आशंकाओं को निर्मूल बताने के लिए एक नई सुपर कमेटी गठित कर दी जाती है। यह कमेटी सरकार की भाषा बोलने लगती है और तबाही का मंजर केरल में पसर जाता है। जल प्रलय हो जाता है। इसके लिए अवैध खनन, बेलगाम निर्माण और बेहिसाब बड़े उद्योगों का लगाया जाना है।

2005 में मुंबई, 2013 में उत्तराखंड, 2015 में चेन्नई, 2018 में केरल, ये तबाही के चंद उदाहरण हैं। भूस्खलन, बाढ़ और जल भराव से हुई इस तबाही को इंसानों ने ही न्योता है। पर्यावरण की अनदेखी करके व्यावसायिक और लाभ कमाने के उद्देश्य से की जाने वाली गतिविधियों में जबरदस्त तेजी तबाही का सबब है। माधव गाडगिल ने 2010 में पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गठित कमेटी की अध्यक्षता करते हुए जो रिपोर्ट दी थी उसमें स्थिति की नाजुकता का बयान किया गया था। आज गाडगिल कहते हैं कि जो हालत इस साल केरल की हुई है वह गोवा की भी होगी। गाडगिल के जिम्मे पश्चिमी घाट की इकोलॉजी की स्थिति के अध्ययन की जिम्मेदारी थी।

उन्होंने पश्चिमी घाट की इकोलॉजी की रक्षा के लिए कई उपाय सुझाये थे। लेकिन सरकार कहां मानने वाली थी। गाडगिल कमेटी की सख्त सिफारिशों के खिलाफ खड़े होने का उसने मन बनाया। नतीजतन, अंतरिक्ष विज्ञानी कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में एक सुपर कमेटी बना दी गई। वजह साफ थी कि अगर गाडगिल की सिफारिशें लागू होती तो अवैध खनन, बड़े उद्योगों, बेलगाम निर्माण पर रोक लग जाती। इन धंधों से पैदा होने वाले बेशुमार पैसे पर लगाम लग जाती।

मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में गाडगिल कमेटी ने अपने गठन के ठीक एक साल बाद 2011 में अपनी रिपोर्ट दे दी थी। पर उस समय की केंद्र सरकार ने उस रिपोर्ट की सिफारिशों को ‘डायलूट’ करने के लिए बनाई गई ‘सुपर कमेटी‘ की सिफारिशें मान ली। इस कमेटी ने केंद्र और राज्य सरकार की मनचाही सिफारिशें की।

सरकार को रास नहीं आयीं कमेटी की सख्त सिफारिशें

फरवरी २०१० में तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने तमिलनाडु में एक आम सभा में शिरकत की। ये सभा ‘सेव दि वेस्टर्न घाट्स’ ग्रुप से जुड़े लोगों व संगठनों ने आयोजित की थी। इस बैठक में वक्ताओं ने पश्चिमी घाट की नाजुक स्थिति पर चिंता व्यक्त की। सभा के बाद जयराम रमेश ने डॉ. गाडगिल की अध्यक्षता में ‘वेस्टर्न घाट इकोलॉजी एक्सपर्ट कमेटी’ का गठन कर दिया जिसका काम अरब सागर की ओर १५०० किमी में फैले पश्चिमी घाट की स्थिति का अध्ययन करके उपाय सुझाने थे।

गाडगिल की अध्यक्षता में गठित कमेटी ने २०११ में केंद्र सरकार को रिपोर्ट सौंपी थी। गाडगिल कमेटी ने पश्चिमी घाट की नाजुक इकोलॉजी के नैसर्गिक पर्यावरण की रक्षा के लिए कई उपाय सुझाए थे। रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि छह राज्यों में फैले पश्चिमी घाट को इकोलॉजिकली सेंसेटिव घोषित कर दिया जाए। रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि घाट के भीतर स्थित क्षेत्रों में इकोलॉजिकली सेंसेटिविटी के तीन लेवल (इकोलॉजिकली सेंसेटिव एरिया या ईएसए-१,२,३) बनाए जाए।

कमेटी ने इस बात पर बेहद जोर दिया था कि इस क्षेत्र में नयी औद्योगिक व खनन गतिविधियों को बैन कर दिया जाए और तमाम अन्य विकास कार्यों के लिए सख्त नियम बनाए जाएं। ये नियम भी स्थानीय समुदायों और ग्राम पंचायतों से सलाह मशविरे से बनाए जाएं। कमेटी के सुझावों में पूरे घाट एरिया में जेनेटिकली मोडिफाइड फसलों की खेती पर प्रतिबंध, रासायनिक कीटनाशकों, प्लास्टिक बैग्स पर प्रतिबंध, नयी रेलवे लाइनों-सडक़ों, ताप बिजली घरों, नए बांध, खनन आदि पर प्रतिबंध शामिल थे।

जिन छह राज्यों में पश्चिमी घाट फैला हुआ है उन सभी राज्यों की सरकारों को कमेटी की रिपोर्ट रास नहीं आयी और इसका सख्त विरोध किया गया। इसके बाद अगस्त २०१२ में तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने अंतरिक्ष विज्ञानी के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में एक अन्य कमेटी बनाई और उसे गाडगिल कमेटी की रिपोर्ट की ‘समग्र और बहुविषयक’ आधार पर ‘जांच’ करने का काम सौंपा गया। कस्तूरीरंगन कमेटी से कहा गया कि वो राज्य सरकारों द्वारा उठाई गई आपत्तियों तथा अन्य पक्षों के जवाबों को ध्यान में रख कर ‘जांच’ करे।

कस्तूरीरंगन कमेटी ने २०१३ में अपनी रिपोर्ट सौंपी जिसमें गाडगिल कमेटी की अनुशंसाओं को बेहद कमजोर कर दिया गया था। कस्तूरीरंगन कमेटी का सुझाव था कि पश्चिमी घाट के सिर्फ एक तिहाई हिस्से को ही इकोलॉजिकली सेंसिटिव माना जाए। इस कमेटी ने कहा कि पश्चिमी घाट का सिर्फ ३७ फीसदी या ६० हजार वर्ग किमी क्षेत्र ही वानस्पतिक रूप से समृद्ध है और इस इलाके को ही ईएसए माना चाहिए। कमेटी की सिफारिश थी कि ईएसए में खनन पर प्रतिबंध लगा दिया जाए, नए ताप बिजली घर की इजाजत नहीं दी जाए, प्रदूषण फैलाने वाले नए उद्योग न लगाए जाए तथा नयी टाउनशिप प्रतिबंधित हो लेकिन २० हजार वर्ग मीटर में निर्माण किया जा सके।

राज्य सरकारों के संग लंबे सलाह मशविरे के बाद पर्यावरण मंत्रालय ने २०१७ में पश्चिमी घाट के मात्र ५७ हजार वर्ग किमी इलाके को इकोलॉजिकली सेंसिटिव नोटीफाई कर दिया। बता दें कि पश्चिमी घाट का कुल एरिया १ लाख ६० हजार वर्ग किमी का है। पर्यावरण मंत्रालय ने जिस ५७ हजार वर्ग किमी एरिया को नोटीफाई किया उसमें सभी तरह की खनन गतिविधियां, बड़े कंस्ट्रक्शन, थर्मल पावर प्लांट और अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को बैन कर दिया गया।

केंद्र ने अंतत: जितने इलाके को नोटीफाई किया उसमें सिर्फ ९९९३.७ वर्ग किलोमीटर इलाका केरल का है जबकि कस्तूरीरंगन कमेटी ने इस राज्य के १३१०८ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को इकोलॉजिकली सेंसिटिव माना था।

सरकार ही कानून के खिलाफ

डॉ. माधव गाडगिल (७३) साफ कहते हैं कि मसला ये नहीं कि रिपोर्ट स्वीकार नहीं की गयी या अनुशंसाओं को नजरअंदाज किया गया बल्कि ये है कि अगर सरकारों ने सिर्फ कानून का ही पालन किया होता और अगर गुड गवर्नेंस जैसी कोई चीज होती तो इतने बड़े पैमाने की त्रासदी को टाला जा सकता था।

गाडगिल का कहना है कि, ‘दुर्भाग्य से हमारी राज्य सरकारें या तो निहित स्वार्थ वाले तत्वों के शिकंजे में हैं या उनसे मिली हुई हैं। ये तत्व नहीं चाहते कि पर्यावरण कानून लागू हों और स्थानीय समुदायों का सशक्तीकरण हो।

गाडगिल ने कहा कि सरकारें पर्यावरणीय नियमों को लागू करने में सुस्त और ढीली हैं। केंद्र सरकार तो उल्टी तरफ घूम कर ये सुनिश्चित कर रही है कि नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल ठीक ढंग से काम न कर सके। गाडगिल साफ कहते हैं कि कानून का पालन करने वाले किसी भी समाज जो सुशासन में विश्वास करता हो उसमें हमारी सिफारिशें मान ली गयीं होतीं लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहां एक बिना कानून वाला समाज है और हमारे यहां अत्यधिक खराब गवर्नेंस है। केरल की हालत पर गाडगिल का कहना है कि पश्चिमी घाट में पर्यावरण के फ्रंट पर तमाम तरह की समस्याएं अब सामने आने लगी हैं। हालांकि गोवा में पश्चिमी घाट की उंचाई केरल जैसी नहीं है लेकिन फिर भी ये पक्का है कि गोवा को भी सभी तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ेगा।

गाडगिल का कहना है कि पर्यावरणीय सावधानी के कोई भी उपाय न करने के पीछे सिर्फ एक ही वजह है - असीमित मुनाफे का लालच। यही गोवा में हो रहा है। केंद्र सरकार द्वारा गठित जस्टिस एम.बी.शाह आयोग का ही आंकलन है कि गैरकानूनी खनन से होने वाला गैरकानूनी मुनाफा ३५ हजार करोड़ रुपए का है। इस जबर्दस्त मुनाफे के लालच को जानबूझकर बढऩे दिया गया है जिससे समाज में आर्थिक असमानता को वाकई में बदतर हो गयी है। ऐसे कामों से पैसा बनाने वाले लोग अब इस स्थिति में हैं कि सरकार से बेलगाम गैरकानूनी व्यवहार को होने देने की इजाजत दिलाते रहें।

गाडगिल ने २०११ में गोवा के पर्यावरण का व्यापक अध्ययन किया था जो लौह अयस्क खनन कंपनियों द्वारा दिये आंकड़ों और उनकी पर्यावरण प्रभाव आंकलन (इम्पैक्ट असेसमेंट) रिपोर्ट पर आधारित था। गाडगिल का कहना है कि माइनिंग कंपनियों ने अपनी रिपोर्ट्स में झूठी सूचना दी थी। हर इम्पैक्ट असेसमेंट रिपोर्ट में खनन के हाइड्रोलॉजिकल (जल परिस्थितिक) प्रभाव के बारे में तथ्यों को छिपाया गया था। वास्तविकता है कि गोवा के मैदानी इलाकों में ढेरों जल धाराएं हैं जो भूगर्भ से निकली हुई हैं लेकिन किसी भी कंपनी की इम्पैक्ट असेसमेंट रिपोर्ट में इन जल धाराओं का उल्लेख नहीं था।

हालत केरल की

केरल के बारे में डॉ. गाडगिल खास तौर पर पत्थर खदान और व्यापक कंस्ट्रक्शन का जिक्र करते हैं। इस राज्य में अवैध पत्थर खदानों का व्यापक प्रसार है। २०१३ में जब गाडगिल कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सौंपी तो राज्य में पत्थर खदानों के खिलाफ कई प्रदर्शन हुए। ‘कोझीकोड में ऐसे ही एक प्रदर्शन के दौरान प्रदर्शनकारियों पर पथराव किया गया और हक लडक़े की मौत हो गयी। लेकिन न कोई पकड़ा गया न किसी को सजा हुयी। जनता समझ गयी कि उनकी आवाज दबा दी जाएगी सो विरोध शांत हो गया। राज्य में पत्थर खदानों का काम बढ़ता ही चला गया और बीते कुछ वर्षों में इसने सभी सीमाएं पार कर दी हैं।’ गाडगिल कमेटी की रिपोर्ट का खासतौर पर कुछ ईसाई संगठनों ने सख्त विरोध किया था। वजह ये कि पहाड़ी क्षेत्रों में अधिकांश किसान ईसाई हैं। इनका कहना था कि गाडगिल कमेटी जरूरत से ज्यादा पर्यावरण प्रेमी है और वो जमीनी हकीकत से परे है।

डॉ. गाडगिल के अनुसार बेलगाम अवैध निर्माण और हर तरफ मकान-बिल्डिंग बनाने के मामले में केरल और उत्तराखंड में काफी समानता है। ये सब प्राकृतिक स्थितियां कतई नहीं हैं। ये प्राकृतिक प्रक्रिया में इनसानों का अनुचित हस्तक्षेप है जिसे रोकना ही होगा।

लालच का नतीजा

केरल की हालत को ध्यान से देखें तो पता चलता है कि जहां सबसे ज्यादा भूस्खलन हुए हैं वो ऐसी जगहें हैं जो इकोलॉजिकली सेंसेटिव हैं। इनमें मुन्नार सबसे आगे हैं। इस सुरम्य इलाके में सभी नियम-कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए निर्माण कार्य हुए हैं और आज रिजार्ट, होटलों, बिल्डिंगों की भरमार है। पहाड़ों की चोटियों पर रिजार्ट बनाए गए हैं, नदियों और झीलों के किनारों पर अट्टïालिकाएं खड़ीं हैं। यहीं सबसे ज्यादा तबाही है। जो शहर बाढ़ से डूब गए हैं वे खेतों के समतल करके बनाए गए थे या इनका विस्तार हुआ था। यहां निर्माण करके समस्त सामान्य जलमार्गों के बलॉक कर दिया गया। इस बार मिसाल के तौर पर कलादी शहर को देखें तो यहां वो सब बिल्डिंगें डूब गयीं जो खेतों को बराबर करके बनायीं गयीं थीं।

सदी की सबसे भीषण बाढ़

केरल में १९२४ के बाद इस साल इतनी भीषण बाढ़ आयी है। १९२४ में लगातार तीन हफ्तों तक कुल ३३६८ मिलीमीटर बारिश हुयी थी और राज्य का अधिकांश हिस्सा डूब गया था। लेकिन इस साल वैसे बारिश तो नहीं हुयी लेकिन थ्रिसूर, एरनाकुलम, इदुक्की, कोट्टïायम और अलपुझा का वही हश्र हुआ है जो सन १९२४ में हुआ था।

मौसम विभाग के अनुसार २०१८ में १ जून से १५ अगस्त के बीच केरल में कुल २०८७.६७ मिलीमीटर बारिश हुयी। केरल में सामान्य बारिश १६०६.०५ मिलीमीटर की होती है। यानी इस बार कोई ३० फीसदी ज्यादा बारिश हुयी है।

केरल के इतिहास में पहली बार यहां के इदुक्की बांध के सभी पांचों शटर खोलने पड़े क्योंकि लगातार हो रही बारिश से पानी का लेवल बेहद ऊपर चला गया था। बांध के शटर खोलने से प्रति सेकेंड ८ लाख लीटर पानी बांध से निकला जिसने डाउनस्ट्रीम में तमाम जगहों को डुबो दिया।

कानूनों की ऐसी तैसी

केरल में २०११ में तत्कालीन मुख्यमंत्री वी.एस. अच्युतानंदन ने मुन्नार स्पेशल ट्राइब्यूनल बनाया था जिसका काम मुन्नार में भूमि विवादों और अतिक्रण के मामलों को निपटाना था। इस ट्राइब्यूनल को इस साल जुलाई में सरकार ने भंग कर दिया। अब लोगों को आशंका है कि ट्राइब्यूनल न रहने से जमीन कब्जाने वालों को खुली छूट मिल जाएगी।

इसी तरह सरकार ने धान खेत एवं आद्रभूमि एक्ट २००८ में संशोधन करके इसे कमजोर कर दिया है। नए संशोधन के अनुसार अगर कोई व्यक्ति धान के खेत में मकान बनाना चाहता है तो उसे आसानी से अनुमति नहीं मिलेगी लेकिन अगर कोई कार्पोरेट प्रोजेक्ट है तो काम बहुत आसानी से हो जाएगा। यानी अब बड़े पैमाने पर जलीय भूमि को पाट कर प्रोजेक्ट खड़ा करने को बढ़ावा दिया जा रहा है।

लौह अयस्क न बन जाए गोवा का काल

गोवा में आयरन ओर या लौह अयस्क प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। एक आंकलन के अनुसार गोवा की जमीन में इतना लौह अयस्क है कि अगले साठ साल तक उसका खनन किया जा सकता है। हालत ये है कि इस काले सोने को जमीन से निकालने के लिए गोवा के हरेभरे जंगलों का सत्यानाश हो रहा है। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, वन्य जीवों का संहार ये सब आम बातें हो गयी हैं। राज्य में जितना वैध खनन होता है उसका हजारों गुना ज्यादा अवैध खनन किया जाता है। २०१० में गोवा के सोशल एक्टिविस्ट ग्रुपों ने अवैध खनन की वजह से हुयी बर्बादी और विनाश का बड़े पैमाने पर पर्दाफाश किया तो राज्य सरकार ने स्थिति की पड़ताल करने के लिए जस्टिस एम.बी. शाह आयोग का गठन किया। आयोग ने पाया कि खनन माफिया की करतूतों से जंगलों का व्यापक विनाश किया गया है, वन्यजीवों का सफाया हो गया है और प्रदूषण का लेवल हैरतअंगेज स्थिति में है।

आयोग की रिपोर्ट और उसके बाद हुए हो-हल्ले के कारण सरकार ने सितम्बर २०१२ में गोवा में समस्त खनन पर रोक लगा दी। मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया और २१ अप्रैल २०१४ को शीर्ष अदालत ने गोवा में खनन पर लगी रोक को हटाने का आदेश दे दिया। बस, अदालत ने खनन की मात्रा पर अस्थाई सीमा बांध दी। पहले जहां सालाना ४० मिलियन टन लौह अयस्क खनन की लिमिट थी उसे कोर्ट ने २० मिलियन टन कर दिया।

इंडियन ब्यूरो ऑफ माइन्स के अनुसार गोवा में लौह अयस्क का भंडार १२०० मिलियन टन का है। अगर हर साल २० मिलियन टन का भी खनन किया गया तो अगले ६० साल तक खनन होता रहेगा। इन ६० साल में गोवा की स्थिति क्या होगी, ये आसानी से समझा जा सकता है।

मुम्बई 2005

२६ और २७ जुलाई 2005 को मुंबई में बारिश ने कहर बरपाया था। महज 24 घटों में शहर में 37.17 इंच बारिश हुई थी। इस आफत की बारिश में जो जहां थे वहीं फंसे रह गए थे। लोगों को सडक़ों और ट्रेनों में रात गुजारनी पड़ी थी। इसमें 409 लोगों की मौत हो गयी और 550 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था। मुंबई का बंदरगाह और हवाई अड्डा कई दिन तक बंद रहे। इस दौरान मुंबई का हाल बहुत डरावना था। कई दिनों तक लाशें पानी में तैरती रहीं। 13 लोग अपनी गाडियों में ही डूब कर मर गए थे। हजारों घरों में पानी पहली मंजिल तक घुस आया था। इस भयानक तबाही की वजह ये रही कि मुम्बई में जहां वेटलैडं्स थे वहां अब व्यापक निर्माण हैं, अतिक्रमण के कारण मीठी नदी का अस्तित्व ही खत्म है, जल निकासी का सिस्टम ध्वस्त है। यानी इनसानों की करतूत का नतीजा है इस तबाही के रूप में सामने आया।

उत्तराखंड 2013

उत्तराखंड में 16-17 जून 2013 में बादल फटने से अचानक आई बाढ़ में पांच हजार से ज्यादा लोगों ने अपनी जान गवां दी थी। इस भीषण तबाही में लाखों परिवार प्रभावित हुए थे। समूचा केदार क्षेत्र मलबे में तब्दील हो गया था। यही नहीं, उत्तराखंड का एक बड़ा हिस्सा तहस-नहस हो गया था। हिमालय में ऐसी तबाही कभी किसी ने पहले नहीं देखी। पहाड़ ढह-ढह कर गिरते रहे और नदियों ने अपने पूरे वेग से बहकर इमारतों को मलबों में तब्दील कर दिया। वर्ष 2000 में उत्तराखंड राज्य के गठन के बाद से राज्य खनन, सडक़ निर्माण, बड़ी संख्या में पनबिजली परियोजनाओं, इमारतों और पर्यटन आदि सहित विभिन्न परियोजनाओं के संदर्भ में तेजी से आगे बढ़ रहा है। लेकिन इसके प्रभाव की वास्तविकताओं को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया।

सडक़ों का निर्माण और विस्तार किया जा रहा है। इसके लिए भूवैज्ञानिक फॉल्ट लाइन, भूस्खलन के जोखिम को नजरअंदाज किया जा रहा है और विस्फोट के इस्तेमाल, वनों की कटाई, विभिन्न सुरक्षा नियमों की अनदेखी की जा रही है। कोर्ट का स्पष्ट निर्देश हैं कि नदी के दोनों तरफ कम से कम सौ मीटर के दायरे में कोई निर्माण कार्य नहीं किया जा सकता लेकिन उत्तराखंड में इसे लागू करने के लिए कोई नहीं है। नदी के मुहाने पर सैंकड़ों भवन बनाए गए इसके अलावा कई जगहों पर 100 मीटर की दूरी तक की जगह पर कजा किया गया है।

चेन्नई 2015

चेन्नई में 11 से 18 नवंबर २०१५ के बीच 449.9 मिलीमीटर बारिश हुई, जो सामान्य बारिश 104 मिलीमीटर से 329 फीसदी अधिक है। जब तक सरकार बाढ़ के हालात को काबू में करती, तब तक 79 लोगों की जान जा चुकी थी। चेन्नई शहर का जो हाल हुआ वो पहले कभी नहीं देखा गया था। तमाम इलाके पानी में डूब गए। कई बिल्डिंगें ध्वस्त हो गयीं। कहने को तो ये सब अतिवृष्टि से हुआ लेकिन असलियत ये है कि चेन्नई में ड्रेनेज सिस्टम ध्वस्त है, झीलें सिकुड़ गयीं हैं। 19 झीलों को क्षेत्रफल, जो 1980 के दशक में 1,130 हेक्टेयर था, वह 2000 के दशक में घट कर 645 हेक्टेयर हो गया। नालों पर भी अवैध कब्जा हो गया है। यहां वर्षा जल संग्रहण के बड़े स्रोत पर बड़े घर और सडक़ें बन गयी हैं। पिछली सदी में शहर की आबादी आठ गुना अधिक हो गयी है और इतनी बड़ी आबादी के लिए शहर में ड्रेनेज सिस्टम नहीं है।

यहां का नया एयरपोर्ट अड्यार नदी के जलभराव क्षेत्र का अतिक्रमण करके बना है। एक विशाल बस टर्मिनल कोयम्बेडू में बनाया गया है जो पहले से ही बाढ़ संवेदनशील क्षेत्र माना जाता है। लोकल रेल के लिए बने मास रैपिड ट्रांजिट सिस्टम से तो बकिंघम नहर और पल्लीकरनाई क्षेत्र (दलदली भूमि) का एक बड़ा हिस्सा ढक दिया गया है। आईटी कॉरीडोर और नॉलेज का निर्माण उन इलाकों में किया गया है जो कभी जलभराव क्षेत्र हुआ करते थे। ऑटोमोबाइल और टेलीकॉम सेज और कई आवासीय कॉलोनियां जहां बनी हैं वो जलभराव क्षेत्र हैं।

कोलकाता : तबाही की ओर

कोलकाता ने २०१७ में भीषण बाढ़ का सामना किया। वैसे, इस महानगर पर अब पहले से कहीं ज्यादा भीषण तूफानों और बाढ़ का प्रकोप हो रहा है। ऑर्गेनाइजेशन फॉर को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट के मुताबिक ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन अगर इसी तरह जारी रहा, तो 2070 तक समुद्रतटीय बाढ़ से मरने वाले दुनिया के सर्वाधिक लोग कोलकाता में होंगे।

कोलकाता के पश्चिम में गंगा है, पूर्व में पानी से भरे इलाके हैं-दोनों ही दिशाओं का पानी सुन्दरवन के दलदली भू-क्षेत्र में गिरता है। कोलकाता के तालाबों और झीलों में वर्षाजल के संचय की व्यवस्था है। यहाँ की नरम मिट्टी में भूमिगत जल को थामे रखने की क्षमता है।

लेकिन अब अनेक तालाबों और नहरों को कूड़े से पाट दिया गया है या उन्हें पाटकर निर्माण कार्य कर लिये गए हैं। जिस निचले इलाके में कभी पानी भरा रहता था, वह अब बहुमंजिली इमारतों से अटा उपनगर है, जिसे न्यू कोलकाता कहते हैं। गंगा की सहायक नदी आदिगंगा गाद से भर गई है। कोलकाता में बाढ़ का खतरा इसलिये भी बढ़ गया है, क्योंकि अब यहाँ पहले की तुलना में बहुत अधिक वर्षा होती है।

हिमाचल में खनन की भरमार

हिमाचल प्रदेश की खनिज संपदा राज्य सरकार की कमाई का एक बड़ा साधन बन गयी है। राज्य में पिछली सरकार द्वारा माइनिंग पालिसी बनाए जाने के बाद यहां खनिज संपदा का दोहन बढ़ रहा है। अनुमान है कि प्रदेश में खनन से इस साल सरकार 300 करोड़ रुपए कमाएगी। पिछले साल 200 करोड़ रुपए की कमाई हुई थी। प्रदेश में ऊना, हमीरपुर, कांगड़ा, कुल्लू, मंडी जिलों में उद्योग विभाग ने कई माइनिंग साइट्स को नीलाम किया है। अभी कई और साइट्स नीलामी की जानी हैं।

लेकिन प्रदेश में अधिकांश जगहों पर अवैध रूप से खनन किया जा रहा है। सरकार इस पर लगाम कसने में या तो रुचि नहीं रख रही या कोई सख्ती कर नहीं पा रही है। इस साल अभी तक अवैध खनन के करीब 400 मामले सामने आ चुके हैं। प्रदेश के अधिकांश स्थानों पर वन क्षेत्र इन माइनिंग साइट्स से जुड़ा हुआ है। बहरहाल, खनन की भी वजह से प्रदेश में व्यापक भूस्खलन और बाढ़ का असर हो रहा है। इसी साल प्रदेश में भीषण बारिश से जितनी तबाही हुई है उतनी पहले नहीं देखी गयी।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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