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मुलायम के स्टैंड से तय होगी शिवपाल की जीत या हार
योगेश मिश्र
लखनऊ: कुनबे की कलह से अपमानित समाजवादी नेता शिवपाल सिंह यादव ने भले ही समाजवादी सेक्युलर मोर्चे का ऐलान करके अलग डगर पर चलने का संदेश दे दिया हो, लेकिन सपाई कुनबे की रार में जीत-हार अखिलेश और शिवपाल पर निर्भर नहीं करेगी। सपा के पूर्व अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव का ‘स्टैंड’ यह बताएगा कि इस रार में किसकी जीत और किसकी हार होगी।
2016 में जब अखिलेश यादव ने अपने मंत्रिमंडल से शिवपाल सिंह यादव और उनके समर्थक नारद राय, ओमप्रकाश सिंह और शादाब फातिमा को बाहर किया था तभी यह तय हो गया था कि कुनबे की कलह कोई बड़ा गुल खिलााएगी। हालांकि मुलायम सिंह यादव इस गुल के खिलने में गाहे-बगाहे हस्तक्षेप करते रहे। उनके चलते शिवपाल उपेक्षा और दंश के बाद भी अलग रास्ता नहीं चुन पाए। शिवपाल के इस ऐलान से भले ही पार्टी में उपेक्षित चल रहे कई नेताओं को विकल्प मिल गया हो। सपा, बसपा और कांग्रेस के गठबंधन की चुनौतियों से जूझ रही भाजपा को सुकून मिल गया हो मगर यह सब मुलायम के स्टैंड पर निर्भर करेगा। इसीलिए शिवपाल सिंह यादव नेता जी का सम्मान वापस लाऊंगा की रट लगाए पड़े हैं।
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2017 के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले सपाई कुनबे में कलह के चलते सूबे में चार बार सरकार बनाने वाली पार्टी मात्र 47 सीटों पर सिमट गई। इस बार भी कलह लोकसभा चुनाव से ऐन पहले शुरू हुई है। शिवपाल सिंह यादव का मोर्चा एक पड़ाव है। वह या तो कोई पुरानी पार्टी लेंगे अथवा अपने मोर्चे पर ही चुनाव आयोग से कार चुनाव चिन्ह मांगेंगे। यह महज संयोग नहीं हो सकता है कि एक दिन पहले अमर सिंह प्रेस कांफ्रेंस करके यह ऐलान करें कि राज्यसभा चुनाव के दौरान उन्होंने भाजपा हाईकमान से शिवपाल सिंह के लिए समय लिया था पर वह नहीं आए। ठीक दूसरे दिन बीते 5 मई, 2017 को शिवपाल के समर्थकों द्वारा गठित समाजवादी सेक्युलर मोर्चे का अपने नये मुकाम के रूप में शिवपाल ने ऐलान कर दिया। एक दिन पहले ही भारतीय समाज पार्टी के नेता ओमप्रकाश राजभर से उनकी लंबी गुफ्तगू हुई थी।
मुलायम की असली ताकत रहे हैं शिवपाल
समाजवादी पार्टी का चेहरा भले ही मुलायम सिंह रहे हों पर जमीन पर बिसात बिछाने, पार्टी को बढ़ाने और यहां तक कि तीसरी बार मुलायम सिंह को मुख्यमंत्री बनाने का काम शिवपाल ने ही किया था। मुलायम के तीसरे मुख्यमंत्रित्व काल में शिवपाल छाया मुख्यमंत्री थे। शिवपाल 2012 के विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाए जाने के पक्षधर नहीं थे। यहीं से शिवपाल और अखिलेश के बीच रार का दौर शुरू हुआ। शिवपाल लोकसभा चुनाव तक मुलायम सिंह के मुख्यमंत्री रहने की पैरोकारी कर रहे थे।
शिवपाल ने एक दौर में मुलायम सिंह की सियासत के लिए एक बड़ा फलक भी तैयार कर दिया था। जनता दल यूनाइटेड, राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी में विलय के लिए तैयार हो गये थे। लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने मुलायम सिंह को नेता मानने पर सहमति जता दी थी। बिहार के विधानसभा चुनाव में सपा को कुछ सीटें भी मिलनी थी। पर नोएडा के यादव सिंह प्रकरण की काली छाया इस गठबंधन पर ऐसी पड़ी कि मुलायम सिंह यादव छटक कर किनारे खड़े हो गये। उन्होंने यह अवसर गंवा दिया। सपा अलग लड़ी। हद तो यह हुई कि नीतीश कुमार के शपथ ग्रहण में मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव और शिवपाल को जाने ही नहीं दिया।
सत्ता की धुरी बने रहे मुलायम
अखिलेश सरकार में भी मुलायम सत्ता की एक धुरी रहे। उनकी इच्छा पर ही तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को अपना प्रमुख सचिव रखना पड़ा। सारे मुख्य सचिव-जावेद उस्मानी, आलोक रंजन, दीपक सिंघल, राहुल भटनागर मुलायम की पसंद थे। यह बात दीगर है कि दीपक सिंघल और राहुल भटनागर को मुख्य सचिव बनवाने में आलोक रंजन की भूमिका कम नहीं थी। सत्ताशीर्ष के तमाम पदों पर मुलायम के लोग काबिज थे।
गायत्री प्रजापति के भ्रष्टाचार की तमाम नजीरों के बावजूद अखिलेश यादव मुलायम सिंह के चलते उन्हें बर्दाश्त करते रहे। मुलायम सिंह के चलतेे ही अखिलेश यादव को प्रदेश अध्यक्ष और रामगोपाल यादव को महासचिव के पद से चंद दिनों के लिए बाहर होना पड़ा। हालांकि इसकी प्रतिक्रिया में मुलायम सिंह के हाथ से जनेश्वर मिश्र पार्क में हुई बैठक में राष्ट्रीय अध्यक्ष पद चला गया। शिवपाल के निष्कासन का ऐलान हुआ। कहा तो यह भी जाता है कि साइकिल चुनाव चिन्ह का विवाद भी मुलायम सिंह ने खड़ा किया था। वह अखिलेश के पास रहे, यह भूमिका भी मुलायम सिंह ने ही तैयार की थी।
रास नहीं आया मुलायम को बेदखल करना
2017 के चुनाव में सपा के सबसे खराब प्रदर्शन की वजह मुलायम सिंह के पुराने लोगों के मुताबिक उन्हें पार्टी से बेदखल किया जाना था। पार्टी की रार और कुनबे की कलह की भूमिका उतनी नहीं थी। समाजवादी पार्टी को समझने वालों के मुताबिक पुराने मतदाताओं को मुलायम को पार्टी से बेदखल किया जाना रास नहीं आया। कुनबे की पहली कलह में शिवपाल की पराजय की वजह भी मुलायम सिंह का एक कदम आगे और दो कदम पीछे वाला स्टैंड रहा। वह अपने उस सहोदर शिवपाल को भी बनाया रखना चाहते थे जिसने उनकी सियासी जमीन तैयार करने में खाद-पानी की तरह खुद को खपाया था। समाजवादी पार्टी के नेताओं की बड़ी जमात शिवपाल से मिलकर भी संतुष्ट हो जाती थी।
मुलायम सिंह यादव अपने बेटे अखिलेश यादव, जिसे उन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपकर कुनबे के किसी भी कलह में अजातशत्रु बना दिया था। उसे सबके देते हुए बचाए और बनाए रखना चाहते थे। शायद यही वजह है कि जिन सवालों पर विपक्ष मुख्यमंत्री रहते अखिलेश यादव पर हमलावर होता उस सब पर मुलायम सिंह यादव बोलकर विपक्ष की धार कुंद कर देते थे। सपा के केंद्र में मुलायम सिंह थे। यही वजह है कि आज जब उनके बिना पार्टी अखिलेश यादव के हाथ में है तब उसके भविष्य को लेकर सवाल उठ रहे हैं। हालांकि बसपा के साथ गठबंधन का मार्ग खोलकर अखिलेश यादव ने एक परिपक्व राजनेता की तरह अपनी पार्टी को संजीवनी थमा दी।
महागठबंधन को होगा नुकसान
आज जब सूबे की सियासत द्विध्रुवीय हो रही है तब शिवपाल के नये मोर्चे का एलान, छोटे दलों के साथ बातचीत, मुलायम सिंह को सम्मान दिलाने की घोषणा यह बताती है कि तीसरी धारा के लिए जो भी जगह बनेगी वह महागठबंधन का नुकसान करेगी। भाजपा को उससे संजीवनी मिलेगी। शिवपाल और उनका मोर्चा इस द्विध्रुवीय राजनीति में भाजपा के एक और सहयोगी दल के रूप में जुडक़र मुलायम लैंड-एटा, इटावा, मैनपुरी, फिरोजाबाद, बंदायू, कन्नौज, आजमगढ़, जौनपुर में सपा का खेल खराब करेगा। मैनपुरी को छोडक़र शिवपाल हर जगह अखिलेश की जमीन खिसकाने का काम करेंगे। मैनपुरी में मुलायम सिंह यादव उम्मीदवार होंगे और उनकी मदद करेंगे। शिवपाल की नजर कन्नौज और फिरोजाबाद पर है।
भाजपा जब पिछले लोकसभा चुनाव में अपना दल से हाथ मिला सकती है तो शिवपाल के बैनर तले इक्क_े होने की संभावना वाले महान दल, सोने लाल पटेल की पत्नी वाले गुट, भारतीय समाज पार्टी, निषाद पार्टी, पीस पार्टी के साथ होने पर हाथ मिलाना अनिवार्य हो जाएगा। लेकिन शिवपाल का भविष्य और उनकी सियासत फिर उनके अग्रज मुलायम के स्टैंड पर आकर टिकी है। अगर मुलायम सिंह का हाथ उनके साथ रहा तो यादव मददाताओं में सेंध लगाने में वह बड़ी कामयाबी हासिल कर दिखाएंगे। पर मुलायम ने साथ छोड़ा तो शिवपाल के लिए उम्मीद केवल भाजपा रह जाएगी जहां वह सपा हराओ अभियान के अगुवा होंगे। राजनीति में हराओ अभियान भी जिताओ का रास्ता खोलता है। शिवपाल यही रास्ता खोलते हुए नजर आएंगे।
हालांकि यह उम्मीद की जा रही है कि मुलायम, शिवपाल का हाथ नहीं छोड़ेंगे। शिवपाल के अलग मुकाम के बाद गठबंधन में अखिलेश की हैसियत कमजोर होगी। भले ही वह यह कहें कि जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आएगा, तमाम चीजें देखने को मिलेंगी। फिर भी सपा की साइकिल बढ़ती जाएगी। सपा और यादवी कुनबे की हैसियत का केंद्र सिर्फ मुलायम थे। यादव मतदाता सिर्फ उनकी हां और ना समझता है। अखिलेश और शिवपाल के सियासत का भविष्य मुलायम सिंह के इसी हां और ना पर टिका है। वह जिसके लिए मुंह खोलेंगे, बोलेंगे वही रार में जीतेगा। इसलिए इस पूरे जंग में मुलायम के मुंह खोलने का इंतजार किया जाना चाहिए।