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हौसलों की उड़ान ने दी पहचान, साइकिल से बन गई उम्मीद की आशा
लखनऊ: जब से चला हूं मैं नजर मंजिल पे हैं, मेरी आंखों ने मील का पत्थर नहीं देखा। ऐसे ही परों के बजाय हौसलों से उड़कर समाज में एक मुकाम बनाने की कहानी हैं, बाराबंकी के परसुराम पुरवा की उर्मिला देवी की। जिसे एक तरफ खुद को साबित करने के लिए हालात से लड़ना पड़ा तो दूसरी तरफ अपनों से। लेकिन यह उनकी काबिलियत ही थी कि हालात बदल गए और अपने मान भी गए। आज वह एक आशा बहू के रूप में लोगों के लिए उम्मीद की आशा बन गई हैं।
क्या कहती हैं उर्मिला
-संघर्ष करना उनके लिए और भी मुश्किल हो गया क्योंकि इस लड़ाई में हालात ही विपरीत नहीं थे।
-बल्कि उनका परिवार भी उनके खिलाफ था।
-ऐसे में दोहरी लड़ाई थी, लेकिन उनका भाई उनके साथ था।
-इसलिए हौसला मिलता गया और राहें आसान होती गयी।
-आज घर से बीस किलोमीटर दूर लोग साइकिल वाली आशा के रूप में उन्हें जानते हैं।
-परसुराम पुरवा के जोखन राम बताते हैं कि निर्मला की हिम्मत थी।
-जिसने आज उसे इस लायक बनाया है कि वह हम लोगों के लिए घर-घर की डॉक्टरनी बन गयी है।
-जरुरत पड़ने पर हमारे साथ पूरी ताकत के साथ खड़ी रहती हैं.
कैसे शुरू हुआ सफर
-हाई स्कूल पास होने के बाद जब उनकी शादी हुई तो गांव में उनकी पहचान पढ़ी लिखी बहु के रूप में थी।
-इसके अलावा उनकी जेठानी भी आंगनवाडी में काम करती थी।
-जिससे उन्हें भी बाहर काम करने की प्रेरणा मिली।
-साल 2005 में उन्होंने आशा बहु के रूप में काम करने का निश्चय किया।
-इसके लिए वे 7 दिन की ट्रेनिंग में हिस्सा लेना चाहती थी।
-लेकिन एक तरफ ससुराल की मर्जी नहीं तो दूसरी तरफ ट्रेनिंग के लिए गांव से सीएचसी जाटा बरौली की दूरी 18 किलोमीटर थी।
-गांव पशुरामपुरवा से सीएचसी जाटा बरौली के लिए कोई पब्लिक कनवेंस नहीं था।
-जिद के आगे वह दूरी कुछ नहीं थी, उन्होने पैदल ही जाने का निश्चय किया।
-10 दिन की दूसरी ट्रैनिंग शुरू हुई,पर इतनी लम्बी दूरी पैदल तय करने में हिम्मत जवाब देने लगी।
-लेकिन उहोंने हौसला नहीं हारा और दुसरी ट्रेनिंग भी पूरी हो गयी।
को-ऑर्डिनेटर चन्द्र कुमार क्या कहते हैं?
-आज उनके घर से बीस किलोमीटर दूर भी अगर किसी से साइकिल वाली आशा की बात की जाए।
-तो सबकी जुबान पर उनके ही चर्चे हैं।
-सीएचसी का हर आदमी उन्हें जानता हैं।
-उनकी इस जीवटता की तारीफ करता हैं।
भाई ने सिखाई साइकिल
-पैदल जाने के काम में समय लगता देख उन्होंने साइकिल चलाने की सोची।
-जब उन्होंने यह बात ससुर जी को बताई तो उन्होंने साफ मना कर दिया।
-इसके बाद वे मायके चली गयीं और वहीँ पर अपने भाई की साइकिल से साइकिल चलाना सीखने लगी।
-लेकिन कुछ ही दिन में उन्हें ससुराल आना पड़ा।
-ससुराल में उनकी साइकिल चलाने की बात किसी को भी नहीं जमी।
-लेकिन उर्मिला के भाई अजीत ने उनकी ससुराल में रूककर साईकिल चलाना सिखाया।
-परिजनों की नाराजगी के बाद भी उनकी जेठानी अनीता ने उनका साथ दिया।
-साल 2006 में साईकिल चलाना सीखने के बाद उन्होंने एक हजार रुपये में सेकेण्ड हैंड साईकिल खरीदी।
-रोज साइकिल से सीएचसी जाना शुरू कर दिया।
-साइकिल से जाने के बावजूद जहां वे सबसे निष्क्रिय कार्यकर्ता मानी जाती थी।
-आज वे जिले की बढ़िया परफ़ॉर्मर हैं।
दिन रात काम की है चुनौतियां
-उर्मिला देवी बताती हैं की गाँव वालों को घर-घर जाकर समझाना पड़ा।
-पहले तो लोग सुनते ही नहीं थे।
-कभी तो कुत्ता पीछे दौड़ा दिया की दोबारा से हम उन्हें परेशान न करे।
-डिलीवरी के दौरान फौरन प्रसूता के साथ जाना पड़ता हैं।
-कभी-कभी तो प्रसूता के साथ उसका परिवार भी नहीं होता।
-हमे पूरा समय साथ रहना पड़ता हैं।
लोगों का ध्यान रखते रखते खुद हुई बिमार
-ऐसे में निजी जीवन में काफी परेशानी होती है।
-बच्चों और घरवालों के लिए थोड़ा ही समय मिल पाता हैं।
-काम करने का कोई निश्चित समय नहीं हैं।
-कितनी रातें हॉस्पिटल में बितानी पड़ती हैं।
-लोगों का ध्यान रखते-रखते अपनी सेहत खराब हो गयी हैं।
-हम खुद डायबिटीज के मरीज हो गए हैं।