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लखनऊ से हुई भारतीय राजनीतिक क्षितिज पर गांधी युग की शुरुआत

राम केवी
Published on: 2 Oct 2018 11:33 AM IST
लखनऊ से हुई भारतीय राजनीतिक क्षितिज पर गांधी युग की शुरुआत
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रामकृष्ण वाजपेयी

आज राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्मदिन है। इस नाम के साथ डेढ़ सौ साल का इतिहास है। जिसे हम वर्ष भर बापू की 150वीं जयंती के रूप में मनाएंगे। गांधी एक ऐसा नाम है जो किसी परिचय का मोहताज नहीं है जिसे सब जानते हैं। लेकिन गांधी के इस विराट व्यक्तित्व के साथ एक दूसरे बड़े नाम पंडित जवाहर लाल नेहरू की जोड़ी कैसे बनी कैसे गांधी नेहरू युग की शुरुआत हुई। आज जब हम इस पर एक नजर डालते हैं तो हमें लखनऊवासी होने पर गर्व होने लगता है। क्योंकि यही वह सरजमीं है जिसने गांधी और नेहरू जैसी दो विराट शख्सियत इस देश को दीं। जी हां यहीं गांधी नेहरू युग की नींव पड़ी।

आज से 98 साल पहले 1916 में वह 26 दिसंबर का दिन था जब 27 साल का एक जवान लड़का इलाहाबाद से ट्रेन से लखनऊ आकर उतरता है और उसकी मुलाकात 47 के दूसरी शख्स से लखनऊ के चारबाग स्टेशन के सामने होती है। दोनो शख्सियतें एक दूसरे के रूबरू होती हैं दोनों में बात होती है। दोनों एक दूसरे को समझते हैं और दोनो के बीच देश को आजाद कराने की लड़ाई मिलकर लड़ने की सहमति बनती है।

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आप समझ गए होंगे ये जवान लड़का पं. जवाहरलाल नेहरू और दूसरे शख्स थे मोहनदास करमचंद गांधी। नवाबों की नगरी में दोनो पहली बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सालाना बैठक के अवसर मिले थे। नेहरू जी की उसी साल कमला नेहरू से शादी हुई थी।

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पं. नेहरू बाद में देश के प्रधानमंत्री बने और गांधीजी राष्ट्रपिता के रूप में जाने गए। कांग्रेस की बैठक के दौरान, नेहरू ने अफ्रीका, कैरीबियाई द्वीप और फिजी जैसे अन्य देशों में असाइनमेंट के लिए भारतीय मजदूरों की भर्ती का जोरदार विरोध किया। उन्होंने कांग्रेस के सामने बिल प्रस्तुत किया जिसे गांधीजी का समर्थन मिला।

नेहरूजी ने अपनी आत्मकथा में गांधी जी के साथ अपनी पहली बैठक के बारे में लिखा है, हम सभी दक्षिण अफ्रीका में बहादुरीपूर्वक किये गए संघर्ष की लिए गांधीजी की सराहना करते हैं, लेकिन उस समय के युवाओं को वह उस समय उनसे बहुत दूर, अलग-थलग और गैर-राजनीतिक लगे थे जब उन्होंने कांग्रेस या राष्ट्रीय राजनीति में भाग लेने से इंकार कर करते हुए खुद को दक्षिण अफ़्रीकी भारतीय प्रश्न तक सीमित कर दिया था।

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वैसे मोहनदास के गांधी बनने की यात्रा में चंपारण आंदोलन मील का पत्थर माना जाता है। 1917 में चंपारण सत्याग्रह इतिहास की एक ऐसी घटना है, जिसने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को खुली चुनौती दी थी। गांधी दस अप्रैल, 1917 को जब बिहार आए तो उनका एक मात्र मकसद चंपारण के किसानों की समस्याओं को समझना, उसका निदान और नील के धब्बों को मिटाना था।

चंपारण आंदोलन की भूमिका भी लखनऊ में लिखी गई

चंपारण के एक पीड़ित किसान राजकुमार शुक्ल कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन (1916) में आए और अंग्रेजों द्वारा जबरन नील की खेती कराए जाने की शिकायत की। शुक्ल का आग्रह था कि गांधीजी इस आंदोलन का नेतृत्व करें। गांधीजी ने इस समस्या को न सिर्फ गंभीरतापूर्वक समझा, बल्कि आगे बढ़कर इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। जबकि बाहर से आए गांधी को उस समय चंपारण के बारे कुछ भी पता नहीं था। उन्हें यह भी नहीं पता था यह कहां है।

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गांधी ने 15 अप्रैल, 1917 को मोतिहारी पहुंचकर 2900 गांवों के तेरह हजार किसानों की स्थिति का जायजा लिया। 1916 में लगभग 21,900 एकड़ जमीन पर आसामीवार, जिरात, तीनकठिया आदि प्रथा लागू थी। चंपारण के किसानों से मड़वन, फगुआही, दषहरी, सट्टा, सिंगराहट, धोड़ावन, लटियावन, शरहवेशी, दस्तूरी, तवान, खुश्की समेत करीब छियालीस प्रकार के ‘अवैध कर’ वसूले जाते थे। कर वसूली की विधि भी बर्बर और अमानवीय थी। नील की खेती से भूमि बंजर होने का एक अलग भय था।

निलहों के विरुद्ध राजकुमार शुक्ल 1914 से ही आंदोलन चला रहे थे। लेकिन 1917 में गांधीजी के सशक्त हस्तक्षेप ने इसे व्यापक जन आंदोलन बनाया। आंदोलन की अनूठी प्रवृत्ति के कारण इसे राष्ट्रीय बनाने में गांधीजी सफल रहे। 1867 में पंडौल का नील आंदोलन क्षेत्रीय था, जबकि 1908 का आंदोलन राज्य स्तरीय। गांधी के संगठित नेतृत्व ने चंपारण के किसानों के भीतर जबर्दस्त आत्मविश्वास भर दिया। ब्रिटिश सरकार ने गांधी के इस पहल को विफल बनाने के लिए धारा-144 के तहत सार्वजनिक शांति भंग करने का नोटिस भी भेजा। उनके चंपारण प्रवेश पर रोक लगाई लेकिन गांधीजी ने इस रोक को मानने से इनकार कर दिया। गांधीजी इससे तनिक भी विचलित नहीं हुए बल्कि उन्होंने इसे अपनी आंदोलन की रणनीति का हिस्सा बना लिया। गांधीजी का आंदोलन नित व्यापक रूप लेता गया। निलहे बौखला उठे। गांधीजी को फंसाने के लिए तुरकौलिया के ओल्हा फैक्टरी में आग लगा दी गई। लेकिन गांधीजी इससे प्रभावित नहीं हुए।

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बाध्यता के कारण बिहार के तत्कालीन डिप्टी गर्वनर एडवर्ड गेट ने गांधीजी को वार्ता के लिए बुलाया। किसानों की समस्याओं की जांच के लिए ‘चंपारण एग्रेरियन कमेटी’ बनाई गई। सरकार ने गांधीजी को भी इस समिति का सदस्य बनाया। इस समिति की अनुशंसाओं के आधार पर तीनकठिया व्यवस्था की समाप्ति कर दी गई। किसानों के लगान में कमी लाई गई और उन्हें क्षतिपूर्ति का धन भी मिला। हालांकि, किसानों की समस्याओं के निवारण के लिए ये उपाय काफी न थे। फिर भी पहली बार शांतिपूर्ण जनविरोध के माध्यम से सरकार को सीमित मांगों को स्वीकार करने पर सहमत कर लेना एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी।

सत्याग्रह का भारत के राष्ट्रीय स्तर पर यह पहला प्रयोग इस लिहाज से काफी सफल रहा। इसके बाद नील की खेती जमींदारों के लिए लाभदायक नहीं रही और शीघ्र ही चंपारण से नील कोठियों के मालिकों का पलायन प्रारंभ हो गया।

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इस आंदोलन का दूरगामी लाभ यह हुआ कि इस क्षेत्र में विकास की प्रारंभिक पहल हुई, जिसके तहत कई पाठशाला, चिकित्सालय, खादी संस्था और आश्रम स्थापित किए गए। इस आंदोलन का एक अन्य लाभ यह भी हुआ कि चंपारण से ही मोहनदास करमचंद गांधी का ‘महात्मा’ बनने का मार्ग प्रशस्त हुआ आमजनों को अपना अधिकार प्राप्त करने के लिए सहज हथियार (सत्याग्रह) मिला। गांधी की चंपारण में सफलता से कांग्रेस में भी उत्साह की लहर दौड़ गई और उसे भी सत्याग्रह स्वीकार्य हुआ।

चारबाग स्टेशन के सामने का वह स्थान जहां गांधी और नेहरू पहली बार मिले थे सालों तक किसी ने भी जगह की पवित्रता की परवाह नहीं की। कोई भी उस स्थान को याद नहीं करता जहां ये दो महान पुरुष पहले मिले और इतिहास बनाया गया। काफी समय बाद वहां एक पार्क बना दिया गया। लेकिन यहां पर शाम होते ही अराजक तत्वों और नशेड़ियों का जमघट लग जाता है। स्वतंत्रता दिवस और दूसरे अक्टूबर को इस स्थान पर मोमबत्तियां जलाई जाती हैं। कम से कम यही वह है जो हम उन लोगों के लिए कर सकते हैं जिन्होंने हमें आजादी दिलायी।



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