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UP Election 2022: किस करवट बैठ रहा है यूपी चुनावों का ऊँट
Up Election 2022 : पारिवारिक कलह से जूझती सपा का बेड़ा क्या अखिलेश यादव (akhilesh yadav) पार लगा पायेंगे? इस तरह के तमाम सवाल चुनाव के पहले सियासी ही नहीं आम गलियारों में भी जेर-ए-बहस थे।
Up Election 2022 : अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) भाजपा (Bjp) के तिलस्म को तोड़ पायेंगे? भाजपा के भारी भरकम देशव्यापी तंत्र (Bjp mantra) व नेताओं की फ़ौज का सामना कर पायेंगे? मुलायम सिंह (Mulayam Singh yadav) को चुनावी मैदान से बाहर रखकर अखिलेश समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) की ज़मीन को दोबारा हासिल कर पायेंगे? पारिवारिक कलह से जूझती सपा का बेड़ा क्या अखिलेश यादव (akhilesh yadav) पार लगा पायेंगे? इस तरह के तमाम सवाल चुनाव के पहले सियासी ही नहीं आम गलियारों में भी जेर-ए-बहस थे।
अभी से क़रीब सौ दिन पहले तक इन सवालों का जवाब किसी से पूछा जाता तो वह साफ़ कहता-नहीं। पर आज लोगों को लगने लगा है कि अपने उत्तर पर फिर से विचार करना ज़रूरी होगा। जो लोग विचार करने को तैयार नहीं हैं, उन्हें भी यह कहना पड़ रहा है कि इन सवालों का जवाब आगामी दस तारीख़ को ईवीएम से निकलेगा। यानी साफ़ है कि सवालों के जवाब को लेकर आश्वस्त लोगों के आश्वस्ति के भाव को बीते सौ दिन की अखिलेश यादव की रणनीति ने बदलने को मजबूर कर दिया है। भाजपा गठबंधन और सपा गठबंधन के नेताओं और कार्यकर्ताओं को छोड़ दिया जाये तो जैसे जैसे चुनाव संपन्न होते जा रहे हैं , वैसे वैसे लोग त्रिशंकु विधानसभा की बात करने लगे हैं। बिहार के चुनावी नतीजे उत्तर प्रदेश में दोहराये जायेंगें यह कहने लगे हैं।
सियासी गलियारों में काँटे की टक्कर की बात चल निकली हैं। राजनीतिक पंडित चरणवार व्याख्या कर रहे हैं। फलादेशी पंडित योगी व अखिलेश की कुंडली के आधार पर कुछ भी कह पाने की स्थिति में खुद को नही पा रहे हैं। उन्हें अब उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के नतीजों का फलादेश बताने के लिए नरेंद्र मोदी की कुंडली की भी ज़रूरत पड़ने लगी है। फिर भी जितने मुँह ,उतनी बातें। ऐसे में सवाल उठता है कि सौ दिन के भीतर के बदलाव की परतें खोलीं जायें।
शिवपाल को भी एक ही सीट पर संतोष करके बैठना पड़ा
किसकी सरकार बन रही है, इसका एक पैमाना यह भी होता है कि किस पार्टी को ज्वाइन करने वाले लोग अधिक हैं। इस पैमाने पर तो अखिलेश यादव ने बाज़ी मार रखी है। सबसे ज़्यादा नेताओं की पसंद इस बार सपा बनी है। अखिलेश यादव ने पारिवारिक विवाद को इस तरह थामा है कि चाचा शिवपाल को भी एक ही सीट पर संतोष करके बैठना पड़ा। परिवार के किसी सदस्य को मैदान में जगह नहीं दी। माना जा रहा था कि सोशल मीडिया पर अपराजेय मानी जाने वाली भाजपा से कैसे निपटेंगे? लेकिन अगर भाजपा उत्तर प्रदेश व सपा के ट्विटर अकाउंट पर नज़र डाली जाये तो दोनों के बीच 0.2 मिलियन का ही अंतर है। 3.2 मिलियन फ़ॉलोवर उत्तर प्रदेश भाजपा के हैं , तो 3 मिलियन फ़ॉलोवर समाजवादी पार्टी के ठहरते हैं। यदि योगी व अखिलेश यादव के व्यक्तिगत ट्विटर हैंडल की तुलना की जाये तो अखिलेश के 15.9 मिलियन फ़ॉलोवर हैं, जबकि योगी के फ़ॉलोवर की संख्या 17.7 मिलियन बैठती है।
योगी आदित्यनाथ के ट्वीट को मिले इतने लाइक
योगी ने बीते रविवार को 5.53 सुबह मतदान के लिए ट्विट किया है, उनके इस ट्विट पर 26.4 हज़ार लाइक हैं । रीट्वीट 5054 हैं। जबकि 192 लोगों ने कमेंट किया है। अखिलेश यादव ने 11.36 दिन में मतदान की अपील अपने ट्विट में की है। इस पर 44.9 हज़ार लाइक हैं, इसे 6966 लोगों ने रिट्विट किया है। जबकि 415 लोगों के कमेंट्स हैं। दोनों नेताओं के मतदान करने की अपील वाले ट्विट ही हमने छाँटे हैं।
बीते सौ दिनों में अखिलेश यादव की स्थिति में सुधार को समझने से पहले वर्ष 2017 व 2012 के विधानसभा व लोकसभा के 2014 के परिणाम को समझना बहुत ज़रूरी है। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव के समय पूरे प्रदेश में मुख्य मुक़ाबला सपा व बसपा में था। भाजपा व कांग्रेस वोट कटवा की भूमिका में नज़र आ रहे थे। हालाँकि ये दोनों दल कहीं बसपा व कहीं सपा को जिताने में सहायक रहे। प्रदेश में 2012 में सपा को 29 फ़ीसद मत मिले। वह सबसे बड़ी पार्टी बनी। इस कारण भाजपा व कांग्रेस के कटे हुए मतों का सर्वाधिक लाभ 2012 के चुनाव में सपा व बसपा को हुआ।सपा को 29.13 व बसपा को 25.8 तथा भाजपा को 15 फ़ीसद व कांग्रेस को 11.65 फ़ीसद वोट हासिल हुए । सपा बसपा से केवल 4.5 फ़ीसदी मत पाकर 220 विधायकों के साथ सरकार बनाने में कामयाब हो गयी।
पीएम मोदी ने 2014 में लोकसभा चुनाव जीता
वर्ष 2012 से 2014 के काल खंड का अध्ययन किया जाये तो साफ़ होता है कि लोगों के मन में सबसे ज़्यादा ग़ुस्सा भ्रष्टाचार को लेकर था। ऐसा ग़ुस्सा वर्ष 1989 में भी नहीं था। जब एक अदद नारे से विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार बनाने में कामयाब हो गये थे। दूसरी तरफ़ भाजपा को छोड़कर ज़्यादातर पार्टियाँ एक अलग किंतु विचित्र सेकुलर वाद में उलझ गयीं। कांग्रेस ने इस सेकुलरवाद का अगुवा होना स्वीकार किया । परिणामतः बहुसंख्यक मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में गोलबंद करने में कामयाबी मिली।
भारत युवाओं का देश है। सोशल मीडिया के क्रांति का युग है। वर्ष 2012 में युवाओं को लगा कि देश में जो भ्रष्टाचार हो रहा है, उससे उनके अवसर में कटौती होगी। समानांतर तौर पर भाजपा ने बड़ी चतुराई के साथ सोशल मीडिया पर युवाओं को कांग्रेस सरकार के प्रति नाराज़ करने में अग्रणी भूमिका निभाई। भाजपा की कमान नरेंद्र मोदी के हाथ आ चुकी थी। मोदी ने 2014 के अपने लोकसभा चुनाव जीतने के बाद ही अपने ज़्यादातर भाषणों में वाइब्रेंट गुजरात की बात करने के साथ ही साथ प्रदेशों के अनुसार पिंक रिव्यूलेशन व व्हाइट रिव्यूलेशन की बात की। अपने भाषणों में स्थानीय समस्याओं के निराकरण की बात ज़ोरदार ढंग से उठाते थे। जैसे फ़र्रूख़ाबाद में फ़ूड प्रोसेसिंग कारख़ाना लगाने की बात या फ़िरोज़ाबाद में चूड़ी एक्सपोर्ट हब बनाने की बात ।बार-बार अपने भाषणों में कहना कि आज़ादी के बाद देश के पश्चिमी क्षेत्र ने तो तरक़्क़ी की। पर पूर्वी क्षेत्र तरक़्क़ी में पिछड़ गया।
भाजपा 42.30 फ़ीसद मतों के साथ 71 सीटें जीतने में कामयाब रही
मतलब पूर्वी क्षेत्र उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल का हिस्सा- बिहार,पश्चिम बंगाल , पूरा नार्थ ईस्ट यह बात सत्य थी। इसी कारण यह बात भी लोगों के मन को छू गयी। इन क्षेत्रों से 170 से ज़्यादा लोकसभा सीटें आती हैं।उन्होंने भाजपा के पक्ष में ज़बर्दस्त वायुमंडल तैयार कर दिया। वर्ष 2014 में भाजपा 42.30 फ़ीसद मतों के साथ 71 सीटें जीतने में कामयाब रही। जबकि 2009 के आम चुनाव में भाजपा को लगभग 14-15 फ़ीसदी वोट और 9 सीटें मिल पायीं। पर 2014 में बसपा को 19.60 प्रतिशत मत मिला। पर एक भी सीट हाथ नहीं लगी।
2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 41.40 फ़ीसदी मत मिले। ग़ौरतलब है कि 29 फ़ीसदी वोट पाकर 2012 में सपा की सरकार बन गयी थी। लेकिन 2017 में सपा व कांग्रेस के गठजोड़ को 28 फ़ीसदी वोट मिला। पर सपा को 47 सीट व कांग्रेस को 8 सीटों पर संतोष करना पड़ा। इस चुनाव में बसपा को 22.2, भाजपा को 39.7, अपना दल को एक फीसदी, सपा को 21.8 प्रतिशत,कांग्रेस को 6.2 फीसदी , लोकदल को 1.8 फ़ीसदी, निषाद पार्टी को 0.7 प्रतिशत वोट मिले।
2014 में मोदी जी ने जिस ढंग से ग़रीबी को भुनाया और यह संदेश देने में कामयाब हो गये कि ग़रीबों के बीच का व्यक्ति प्रधानमंत्री है। यह समाज के अगडी बिरादरी के ग़रीबों की समझ में आ गयी। । मोदी ने खुद के पिछड़े समाज का होने को भी ठीक से भुनाया।
हमारे समाज में हर स्तर पर ईर्ष्या भी काम करती है। देश में दिस तरह गरीब, निम्न मध्यम वर्ग और अमीरों के बीच खाई है।उसी तरह नोट बंदी में भी ग़रीब व निम्न मध्य वर्ग को लगा कि एक चाय बेचने वाला यानी हमारे बीच के एक व्यक्ति ने अमीरों को औक़ात में ला दिया। लिहाज़ा कह सकते हैं कि नोटबंदी का भाजपा को तात्कालिक लाभ हुआ। 2017 के चुनाव के पहले भाजपा ने पूरे प्रदेश में धम्म चेतना यात्रा चलाकर दलित व अति पिछड़े समाज के जो लोग भगवान बुद्ध से प्रभावित थे,उन्हें अपनी ओर मोड़ने की कोशिश में अच्छी सफलता पाई। यह चुनाव त्रिकोणीय था। इसलिए सपा व बसपा को जो वोट मिले उससे भाजपा की जीत आसान होती गयी। कहीं भाजपा को सपा की वजह से लाभ हुआ तो कहीं बसपा की वजह से। इन दोनों पार्टियों को विधानसभा चुनाव में 20 फ़ीसदी से ज़्यादा मत मिल रहे थे। ऐसी बहुत कम सीटें रहीं जहां भाजपा अकेले दम पर कुल पड़े मतों का 50 प्रतिशत से ज़्यादा ले गयी हो।
रामपुर मनिहारिन सीट को देखें तो यहाँ भाजपा को 34.94 बसपा को 34.67 व सपा व कांग्रेस गठबंधन को 28.24 फ़ीसदी वोट मिले। यहां पर मुक़ाबला त्रिकोणीय नहीं होता तो प्रबल लहर में भी भाजपा इस सीट को जीत नहीं पाती। यहाँ 65.06 लोगों ने भाजपा के खिलाफ वोट डाला था। सुरक्षित विधानसभा सीटों पर नज़र डालें तो यह तथ्य हाथ लगता है कि 17 सुरक्षित विधानसभाओं में पचास फ़ीसदी से ज़्यादा मत मिले। ये हैं-खुर्जा, ख़ैर, इगलास,हाथरस,पुरनपुर, पोतयाना,श्रीनगर,मोहान,मेहरौली, राठ, खाना, बाबागंज, कोरोन, बलहा,महराजगंज, रामकोला । अकेली राठ सीट पर भाजपा को 60 फ़ीसदी से ज़्यादा वोट मिले। जबकि प्रदेश की जो 318 विधानसभा की सीटें सामान्य हैं , उनमें लगभग 101 सीटों पर भाजपा के खिलाफ ६५ फ़ीसदी लोगों ने मतदान किया।
केंद्र की मनमोहन सरकार का कालखंड 2008-2014 के मध्य जिस तरह का रहा उससे आम जनता को मनमोहन सरकार से नफ़रत सी हो गयी थी। यही 2011 और 2012 में अन्ना आंदोलन के सफलता का कारण बना। जिसका संवैधानिक लाभ मोदी को मिला।मोदी सरकार सत्ता में आ गयी। समाज में हो रहे घटनाओं , आंदोलनों,परिवर्तनों का परिणाम उन घटनाओं के बाद जो चुनाव होते हैं, उसमें आसानी से देखा जा सकता है। देश के लोगों में मोदी ने विश्वास पैदा कर दिया है कि इस देश को ईमानदारी से आगे बढ़ाने की क्षमता उनके अंदर है। मोदी अपने भाषणों के माध्यम से नौजवानों के सपने जगाने में कामयाब रहे। उन्होंने लोगों को समझाया कि मैं ग़रीब हूँ, ग़रीबी का दर्द जानता हूँ। यह बात सभी लोगों के समझ में आयी। पिछड़ा कभी कांग्रेस के साथ नहीं रहा। मोदी ने अपने पिछड़े होने को भी अच्छी तरह पिछड़ों को समझाया।
उत्तर प्रदेश में भाजपा के पक्ष में हवा का सबसे बड़ा कारण सामाजिक स्तर पर बहुत बड़ा बदलाव रहा। 1993 के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा का वोट बैंक लगातार गिरता गया। 2012 के आने के बाद उत्तर प्रदेश के भाजपा की पहचान अगडी जाति के पार्टी से होने लगी थी। 2014 में मोदी को प्रधानमंत्री बनाने में पिछड़ा वोटर भाजपा को जिस तरह से समर्थन दिया, उसने भाजपा के लिए जीत आसान कर दी। 2017 आते आते पिछड़ा इस तरह लामबंद हुआ कि यादव को छोड़ ज़्यादातर पिछड़े भगवामय हो गये। अति पिछड़ी जाति का प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाना भी भाजपा के लिए लाभप्रद रहा। स्वामी प्रसाद मौर्य को भाजपा में जाना, दारा सिंह चौहान, फागू चौहान और हरि नारायण राजभर को सांसद बनाना भी भाजपा को लाभ दे गया। ओम प्रकाश राजभर से समझौता करना भी लाभदायक रहा। चुनाव के पहले मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा न करने ने भी भाजपा को फ़ायदे में डाला राजभर, कोयरी, बिंद, बारी, चौहान, मौर्य, मदेशिया, पाल आदि व अगडा व अति पिछड़ा मिलाकर भाजपा 40 फ़ीसदी वोट के क़रीब पहुँच गयी। जिसके चलते सपा व कांग्रेस के गठबंधन का 28 फ़ीसदी वोट व बसपा 22 फ़ीसदी वोट पाकर भी धराशायी हो गये।
भाजपा ने अखिलेश सरकार के समय की दिलाई याद
पर अब अखिलेश यादव ने ग़ैर यादव पिछड़ा गठबंधन की भाजपा की रणनीति में बड़ी सेंध लगा दी है। भाजपा सरकार की अपनी ग़लतियों से अगडों की जो एकता बनी थी, वह टूट गयी। यही कारण है कि इस चुनाव में ब्राह्मणों के आगे गाजर लटकाये हुए हर दल फिर रहा था। ब्राह्मण व ठाकुरों ने इस बार एक साथ वोट डालने से परहेज़ किया है। इसका फ़ायदा सबसे ज़्यादा अखिलेश यादव उठाने में कामयाब हुए हैं। ग़ौरतलब है कि राज्य में बारह फ़ीसद ब्राह्मण व छह सात फ़ीसद ठाकुर हैं। राज्य में सात आठ फ़ीसदी सत्ता विरोधी रुझान के वोट बीते विधानसभा चुनावों में देखे गये हैं। इस बार सत्ता विरोधी रुझान का केंद्र अकेले अखिलेश यादव ही हैं। यह उम्मीद जताई जा रही थी कि अल्पसंख्यक मतदाता अखिलेश के उभार के साथ ही साथ एग्रेसिव होंगे।इस क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होगी। पर अल्पसंख्यक मतदाताओं की समझ कहें या अखिलेश यादव की सफल रणनीति की उनने रोज़ा इफ़्तार व दुपल्ली टोपी से दूरी बनाये रखा।
नरेंद्र मोदी की राशन , आवास, उज्जवला, घर घर नल, हर घर बिजली व किसानों को छह हज़ार का सालाना डायरेक्ट बेनफिट व आयुष्मान कार्ड सरीखी योजनाओं ने अखिलेश के उभरते रथ की गति इतनी धीमी कर रखी है कि इवीएम के बाद ही वह देखी जा सकेगी। इन योजनाओं के बाद भी जनता ने यदि अखिलेश यादव के रथ को थाम कर रोका नहीं है तो इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि वह जानती है मोदी के लिए नहीं, योगी के लिए चुनाव है। भाजपा ने अपने प्रचार में इन दिनों अखिलेश सरकार के समय की क़ानून व्यवस्था , परिवारवाद व जातिवाद की याद दिलाना शुरू किया । पर भाजपाई नेता व रणनीतिकार यह भूल कर बैठे हैं कि एक शीतल पेय का बड़ा लोकप्रिय विज्ञापन-"डर के आगे जीत है।"