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Lok Sabha Election: तेलंगाना में इस बार केसीआर के लिए वजूद बचाने की लड़ाई, साथियों के लगातार इस्तीफों ने बढ़ाई मुसीबत
Lok Sabha Election 2024: इस बार के लोकसभा चुनाव में केसीआर के खिलाफ कांग्रेस और भाजपा ने मजबूत घेरेबंदी कर रखी है।
Lok Sabha Election 2024: तेलंगाना के लोकसभा चुनाव में इस बार पूर्व मुख्यमंत्री और बीआरएस के मुखिया के.चंद्रशेखर राव (केसीआर) अपना वजूद बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। तेलंगाना में लगातार दस साल तक राज करने के बाद पिछले विधानसभा चुनाव में उन्हें करारा झटका लगा था और कांग्रेस राज्य की सत्ता पर काबिज हो गई थी। अब लोकसभा चुनाव में भी उनकी मुश्किलें कम होती हुई नहीं दिख रही हैं। बीआरएस के गठन के समय से ही उनके साथ मजबूती से डटे रहने वाले कई साथियों के लगातार इस्तीफों ने उनकी मुसीबत बढ़ा रखी है।
इस बार के लोकसभा चुनाव में केसीआर के खिलाफ कांग्रेस और भाजपा ने मजबूत घेरेबंदी कर रखी है। पिछले लोकसभा चुनाव में बीआरएस ने राज्य की 17 में से नौ लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की थी मगर इस बार केसीआर के लिए इन सीटों को बचाना मुश्किल माना जा रहा है। भ्रष्टाचार के आरोपों ने केसीआर की सियासी राह मुश्किल कर दी है।
विधानसभा चुनाव में हार के बाद लगातार इस्तीफे
तेलंगाना के पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान केसीआर ने पूरी ताकत लगाई थी मगर इसके बावजूद उनके वोट प्रतिशत में 10 फ़ीसदी की भारी गिरावट दर्ज की गई थी। दूसरी ओर कांग्रेस ने अपने वोट प्रतिशत में बढ़ोतरी करते हुए उन्हें सत्ता से बेदखल कर दिया था। विधानसभा चुनाव में लगे इस भारी झटके के बाद बीआरएस से कई मजबूत नेताओं का इस्तीफा हो चुका है।
पार्टी के चार मौजूदा सांसदों में समेत कई विधायक और पूर्व विधायक अभी तक पार्टी से इस्तीफा देकर दूसरे दलों का दामन थाम चुके हैं। बीआरएस में मची इस भगदड़ के पीछे माना जा रहा है कि अब पार्टी नेताओं को भी इस बात का एहसास हो गया है कि केसीआर अब पहले की तरह सियासी रूप से ज्यादा मजबूत नहीं रह गए हैं।
भाजपा और कांग्रेस पर केसीआर के तीखे हमले
23 साल पहले 27 अप्रैल को बीआरएस का गठन हुआ था। केसीआर ने 2009 में आंध्र प्रदेश से अलग तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर करीब 11 दिनों तक का आमरण अनशन किया था जिसके बाद उस समय की यूपीए सरकार उनकी मांग करने को मजबूर हो गई थी। इस बार केसीआर ने राज्य की 17 लोकसभा सीटों पर 17 दिनों के अपने अभियान की शुरुआत कर दी है। महबूबनगर को केसीआर का गढ़ माना जाता है और उन्होंने अपने अभियान की शुरुआत यहीं से की है।
अपनी चुनावी बस यात्रा के दौरान वे भाजपा और कांग्रेस पर तीखा हमला करने में जुटे हुए हैं। वे मोदी सरकार की ओर से शुरू की गई योजनाओं पर भी निशाना साध रहे हैं। इसके साथ ही वे कांग्रेस की ओर से महिलाओं को पेंशन और किसानों की कर्जमाफी की योजना का भी मखौल उड़ा रहे हैं। उनका कहना है कि कांग्रेस सरकार की ये योजनाएं कभी पूरी होने वाली नहीं है।
भ्रष्टाचार के मामलों से सियासी राह मुश्किल
तेलंगाना में केसीआर को मजबूत सियासी पकड़ वाला नेता माना जाता रहा है। यहां के सियासी जानकारों का मानना है कि केसीआर में फिर खड़े होने की ताकत जरूर है मगर उनके राज में हुए भ्रष्टाचार के मामलों ने उनकी सियासी राह मुश्किल कर रखी है। केसीआर के राज में हुए भ्रष्टाचार की गूंज राज्य में हर जगह सुनी जा रही है और ऐसी स्थिति में केसीआर के लिए सियासी ताकत दिखाना मुश्किल हो गया है।
बीआरएस की दुर्गति के लिए कई स्थानीय जानकार केसीआर के रवैए को ही जिम्मेदार बता रहे हैं। उनका कहना है कि केसीआर ने पार्टी नेताओं और कैडर को दरकिनार करते हुए मनमाने तरीके से फैसले लिए और उनकी यह नीति पार्टी के लिए भारी पड़ गई। उनके कई करीबी प्रमुख नेता उनके साथ छोड़ चुके हैं और ऐसे में केसीआर के लिए अपना सियासी वजूद बचाना आसान साबित नहीं होगा।
बेटी की गिरफ्तारी पर केसीआर की चुप्पी
मजे की बात यह है कि भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण केसीआर भी घबराए हुए दिखते हैं। दिल्ली के शराब घोटाले में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ ही केसीआर की बेटी के कविता की भी गर्दन फंसी हुई है। उन्हें भी इस मामले में जेल जाना पड़ा है।
जहां आम आदमी पार्टी ने अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी को बड़ा मुद्दा बना रखा है और दिल्ली के चुनाव प्रचार में सभी पोस्टरों पर केजरीवाल छाए हुए हैं, वैसी स्थिति तेलंगाना में नहीं दिख रही है। केसीआर अपनी चुनावी सभाओं में भी अपनी बेटी की गिरफ्तारी के मुद्दे को नहीं उठा रहे हैं। इसके पीछे भ्रष्टाचार के मामलों से दूरी बनाने की उनकी रणनीति को बड़ा कारण माना जा रहा है।
इस बार केसीआर की तगड़ी घेरेबंदी
यदि पिछले लोकसभा चुनाव की बात की जाए तो केसीआर की अगुवाई में बीआरएस ने सबसे ज्यादा 9 सीटों पर जीत हासिल की थी। दूसरी ओर भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों ने तीन-तीन सीटों पर विजय पाई थी। एआईएमआईएम के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी ने हैदराबाद लोकसभा सीट पर जीत हासिल की थी। इस बार भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों ने अपनी सीटों की संख्या बढ़ाने के लिए जोरदार अभियान छेड़ रखा है। दोनों दलों ने हैदराबाद लोकसभा क्षेत्र में ओवैसी की भी मजबूत घेरेबंदी की है।
भाजपा ने दक्षिण भारत में अपनी सीटों की संख्या बढ़ाने के लिए इस बार काफी मेहनत की है। दूसरी ओर केसीआर के लिए पिछली लोकसभा चुनाव जैसी कामयाबी को दोहरा पाना मुश्किल माना जा रहा है। हालांकि पिछले विधानसभा चुनाव में लगे झटके के बाद वे पूरी ताकत लगा रहे हैं मगर उनका यह अभियान कितना असरकारक साबित होगा, यह 4 जून को चुनाव नतीजे की घोषणा से ही पता लग सकेगा।