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Maharashtra Political Crisis: समय के साथ अपने को बदल नहीं पा रही शिवसेना, इतिहास तो यही बताता है
Maharashtra Political Crisis: बाला साहब ठाकरे की शिवसेना ने अपने अस्तित्व के 50 से अधिक वर्षों में तमाम विद्रोहों का सामना किया है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पार्टी खुद इन स्थितियों के लिए जिम्मेदार है।
Maharashtra Political Crisis: बाला साहब ठाकरे की शिवसेना (Shiv Sena of Balasaheb Thackeray) ने अपने अस्तित्व के 50 से अधिक वर्षों में तमाम विद्रोहों का सामना किया है। असंतोष और विद्रोह झेलने की वजहों के बारे में राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पार्टी खुद इन स्थितियों के लिए जिम्मेदार है।
हिंदुत्व के उदय के बाद ही शिवसेना को राजनीतिक सफलता का हुआ आभास
शिवसेना का गठन 1966 में "धरती पुत्रों" के मुद्दों का समर्थन करने और मराठी मानुषों को सार्वजनिक उपक्रमों और बैंकों में पर्याप्त नौकरी दिलाने में मदद करने के लिए किया गया था। इसके संस्थापक स्वर्गीय बालासाहेब ठाकरे (Balasaheb Thackeray) के लिए इस सीमित लक्ष्य के साथ, संगठन को चलाना आसान था। आगे चल कर हिंदुत्व के उदय के बाद ही शिवसेना (Shivsena) को राजनीतिक सफलता का आभास हुआ। इसके लिए उसने अपने क्षेत्रीय आकर्षण में धर्म का एक अंश जोड़ दिया जिससे सेना का दबदबा तो बढ़ा ही, साथ साथ उसका राजनीतिक विस्तार हुआ।
विश्लेषकों का कहना है कि शिवसेना (Shivsena) की सबसे बड़ी दिक्कत पार्टी में दूसरे नेताओं की उपेक्षा रही है। पार्टी ने निर्णय लेने की प्रक्रिया को कुछ ही हाथों में सीमित रखा। आधुनिक राजनीतिक दल कम से कम एक ऐसी व्यवस्था बनाते हैं जिसमें अपने नेताओं से परामर्श करके निर्णय लिए जाएं। ऐसे सिस्टम में हर किसी को महत्वपूर्ण मुद्दों पर परामर्श लेने पर गर्व महसूस होता है, भले ही उनकी राय पर अंतिम निर्णय में विचार न किया गया हो।यह वही चीज है जिसमें शिवसेना लगातार विफल रही है। इसके विद्रोहों का इतिहास इस बात को रेखांकित करता है। शिवसेना खुद को एक छोटे और स्थानीय संगठन से एक परिपक्व राजनीतिक दल में बदलने में लगातार विफल रही है।
छगन भुजबल (Chhagan Bhujbal)
शिवसेना (Shivsena) को पहला झटका 1991 में लगा जब छगन भुजबल (Chhagan Bhujbal) ने कांग्रेस (Congress) में शामिल होने के लिए शरद पवार से हाथ मिलाया। यह मंडल के बाद की सामाजिक-राजनीतिक वास्तविकता पर ध्यान देने और पार्टी संगठन में आवश्यक परिवर्तन करने के लिए शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे (Shiv Sena supremo Bal Thackeray) की अनिच्छा की पृष्ठभूमि के खिलाफ हुआ। बाल ठाकरे जाति की राजनीति में कभी विश्वास नहीं करते थे, और ओबीसी नेता भुजबल द्वारा उठाए गए मुद्दों को उन्होंने खारिज कर दिया था।
नारायण राणे (Former Chief Minister Narayan Rane)
शिवसेना (Shivsena) में अगला बड़ा विभाजन जुलाई 2005 में हुआ जब पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे (Former Chief Minister Narayan Rane) ने पार्टी छोड़ने का फैसला किया। भुजबल की तरह, राणे ने भी किसी पद या पोर्टफोलियो के अभाव में पार्टी नहीं छोड़ी थी। उनकी शिकायत यह भी थी कि निर्णय लेने में उनकी उपेक्षा की जा रही थी।
राज ठाकरे
राणे द्वारा पार्टी छोड़ने के कुछ महीने बाद, शिवसेना (Shivsena) में एक और हाई-प्रोफाइल विद्रोह हुआ। इस बार युवा फायरब्रांड नेता राज ठाकरे (Young Firebrand Leader Raj Thackeray) ने उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) के नेतृत्व वाली शिवसेना (Shivsena) में खुद को अलग-थलग महसूस किया और उन्होंने अपना संगठन, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) बनाने का फैसला किया। 2009 में अपने पहले चुनाव में मनसे की शानदार सफलता रही जिसमें उसने 288 सदस्यीय राज्य विधानमंडल में 13 सदस्यों को भेजा। लेकिन इसके बाद राज ठाकरे को अपनी पार्टी से नेताओं के पलायन का सामना करना पड़ा।
उद्धव की तरह राज ठाकरे (Raj Thackeray) ने एक ही पुरानी गलती दोहराई - वे अपने संगठन को एक व्यवस्थित राजनीतिक दल में बदलने में नाकामयाब रहे। अब एकनाथ शिंदे प्रकरण में शिव सेना अपना पुराना इतिहास दोहरा रही है। अगर पार्टी इस नए संकट से बच भी जाती है, तो शिवसेना का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि वह खुद को कितनी जल्दी बदल लेती है।