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"महा" संकट : आसान नहीं होगा "असली" शिवसेना पर फैसला
Maharashtra Political Crisis: महाराष्ट्र विधानसभा में अलग ग्रुप बनने के लिए 37 विधायकों के समर्थन की जरूरत होगी। इसके लिए मुख्य चुनाव आयोग के समक्ष एक आवेदन दाखिल करना होगा।
Maharashtra Political Crisis: एक तरफ एकनाथ शिंदे (eknath shindey) और दूसरी तरफ उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray government) चूंकि शिंदे (Eknath Shinde) अपने साथ बहुमत विधायक होने का दावा कर रहे हैं सो अब सवाल हो गया है कि "असली शिव सेना कौन?" लेकिन किसी भी गुट को असली शिव सेना मानना इतना आसान नहीं होगा। ये लंबी और जटिल प्रक्रिया होगी।
यदि शिंदे अपने समर्थक विधायकों की संख्या को बनाए रखने में सक्षम रहते हैं, तो वह सदन में एक अलग ग्रुप की स्थिति की मांग कर सकते हैं। ऐसे में ये तय किया जाना होगा कि क्या यह ग्रुप असली शिवसेना के रूप में पहचाना जाना चाहता है, या एक नया संगठन या किसी अन्य पार्टी के साथ विलय करना चाहता है। लेकिन ऐसा लगता है कि अंततः शिंदे का गुट असली शिव सेना होने का दावा करेगा।
वैसे तो शिंदे खेमे ने दलबदल विरोधी नियमों को दरकिनार करने के लिए आवश्यक संख्या में विधायकों को जुटा लिया है। लेकिन उन्हें असली शिवसेना बनने के रास्ते में कई कानूनी औपचारिकताओं से पार पाना पड़ेगा।
दलबदल विरोधी कानून के तहत एक अलग ग्रुप बनाने के लिए दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है। इस ग्रुप के व्यक्तिगत नेता को राज्य विधानसभा में डिप्टी स्पीकर के सामने अपनी ताकत साबित करनी होगी। ऐसे में शिंदे को महाराष्ट्र विधानसभा में एक अलग ग्रुप बनने के लिए कम से कम 37 विधायकों के समर्थन की आवश्यकता होगी। साथ ही अलग पार्टी बनाने की प्रक्रिया के लिए मुख्य चुनाव आयोग के समक्ष एक आवेदन दाखिल करना होगा। सभी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद ही किसी पार्टी को चुनाव चिह्न आवंटित किया जाएगा। अगर शिंदे मूल शिवसेना के तीर धनुष चिन्ह पर दावा करते हैं, तो उन्हें न केवल विधानसभा में निर्वाचित सदस्यों के भीतर बल्कि पार्टी के पदाधिकारियों के बीच पार्टी का एक लंबवत विभाजन सुनिश्चित करना होगा।
पहली लड़ाई
ठाकरे खेमे ने शिंदे को पहले ही शिवसेना विधायक दल के नेता के पद से हटा दिया है। महाराष्ट्र विधानसभा के उपाध्यक्ष नरहरि जिरवाल ने भी अजय चौधरी को शिंदे की जगह सदन में शिवसेना समूह के नेता के रूप में नियुक्त करने को मंजूरी दे दी है। शिंदे ने ज़िरवाल को लिखे एक पत्र में उनके निष्कासन का विरोध किया था। उन्होंने कहा कि पद से उनका निष्कासन अमान्य था, क्योंकि जिस बैठक में चौधरी को नियुक्त किया गया था, उसमें केवल 15 - 16 सदस्यों ने भाग लिया था। शिंदे ने यह भी लिखा कि वह सुनील प्रभु को भरत गोगावले की जगह शिवसेना विधायक दल का मुख्य सचेतक नियुक्त कर रहे हैं।
प्रतीक चिन्ह पर चुनाव आयोग का आदेश
चुनाव चिन्ह (आरक्षण और आवंटन) आदेश, 1968 के तहत पार्टियों को पहचानने और चुनाव चिन्ह आवंटित करने के लिए चुनाव आयोग को अधिकार दिया गया है। यदि दो गुट किसी पंजीकृत और मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल से संबंधित हैं, तो आदेश के अनुच्छेद 15 में कहा गया है कि चुनाव आयोग या तो गुट के पक्ष में फैसला कर सकता है या दोनों में से किसी के भी पक्ष में नहीं जा सकता है।
इसमें कहा गया है कि - "जब आयोग संतुष्ट हो जाता है कि किसी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल के प्रतिद्वंद्वी वर्ग या समूह हैं, जिनमें से प्रत्येक उस पार्टी होने का दावा करता है, तो आयोग मामले के सभी उपलब्ध तथ्यों और परिस्थितियों और उनके प्रतिनिधियों की सुनवाई को ध्यान में रखते हुए निर्णय कर सकता है।
आयोग का निर्णय ऐसे सभी प्रतिद्वंद्वी वर्गों या समूहों पर बाध्यकारी होगा।"
पहला मामला
1968 के आदेश के तहत तय किया गया पहला मामला राष्ट्रपति चुनाव के लिए इंदिरा गांधी के उम्मीदवार की पसंद पर कांग्रेस में विभाजन का था। सिंडिकेट के नाम से जाने जाने वाले इंदिरा विरोधी गुट ने नीलम संजीव रेड्डी की उम्मीदवारी का प्रस्ताव रखा था, जबकि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पार्टी अध्यक्ष निजलिंगप्पा द्वारा जारी किए गए व्हिप की अवहेलना करते हुए उपराष्ट्रपति वीवी गिरी से निर्दलीय चुनाव लड़ने का आग्रह किया था।
चुनाव में गिरि जीत गए और इंदिरा गांधी को पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। कांग्रेस को निजलिंगप्पा के नेतृत्व वाली कांग्रेस (ओ) और इंदिरा के नेतृत्व वाली कांग्रेस (जे) में विभाजित कर दिया। कांग्रेस (ओ) ने पार्टी के तत्कालीन चिन्ह (हल के साथ दो बैलों की जोड़ी) को बरकरार रखा। जबकि दूसरे गुट को बछड़े के साथ एक गाय का प्रतीक दिया गया था।