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जनता का जनता को दे दो
ये ऊंचे महल अटारी, सब जनता का है। जनता का जनता को दे दो, हक जनता का है। बीते दिनों सर्वोच्च अदालत ने बसपा सुप्रीमो मायावती द्वारा अपनी मूर्तियों और पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी को तामीर कराये जाने पर यही संदेश उन्हें सुनाने की बात उनके वकीलों से कही है। हालांकि इस मामले में फैसला आने में अभी समय है। लेकिन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने जो कहा, उसका संदेश यही है। इन दिनों मायावती के साथ गठबंधन करके मोदी रोको अभियान चला रहे अखिलेश यादव ने भी मायावती के हाथी बनाने पर तंज कसते हुए कहा था कि उनके हाथी जाने कब से खड़े हैं, चलते ही नहीं है। 2015 में अखिलेश सरकार ने एक हलफनामा दायर कर सर्वोच्च अदालत में कहा था कि मायावती के कार्यकाल में स्मारकों और पार्कों के निर्माण में लोकायुक्त ने जांच में अनियमितता और भ्रष्टाचार पाया है। जिसकी सतर्कता का जांच चल रही है। वकील रविकान्त और सुकुमार ने 2009 में मायावती की मूर्तियों और स्मारक बनाये जाने पर सवाल उठाये थे।
लोकायुक्त ने मायावती की नोयडा और लखनऊ में पसरी स्वप्निल परियोजनाओं की जांच की थी, तो यह पाया था कि इसमें 1400 करोड़ रुपये इधर-उधर हुए हैं। लोकायुक्त ने एसआईटी गठित कर घोटाले की विस्तृत जांच समेत 12 सिफारिशें की थीं। मायावती के कबीना मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी और बाबू सिंह कुशवाहा के खिलाफ मामला दर्ज कर कार्रवाई करने को कहा था। लेकिन अखिलेश यादव में अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में लोकायुक्त की शिकायतों की अनदेखी की। हद तो यह हुई कि अमित जानी समेत कुछ सिरफिरों ने अखिलेश की सरकार आते ही मायावती की एक मूर्ति खंडित कर दी। तो अखिलेश यादव ने आनन-फानन में मायावती की नई मूर्ति उस जगह खड़ी कराई। जब मायावती की मूर्ति की तलाशी जा रही थी, तो संगीत नाटक अकादमी के परिसर में मायावती की बहुत सी ऐसी मूर्तियां निकली जो तामीर नहीं करायी जा सकी थी।
[caption id=attachment_4518 align=aligncenter width=719] जनता का जनता को दे दो[/caption]
मायावती ने 1995 के अपने पहले कार्यकाल में ही लखनऊ के गोमती नगर में अम्बेडकर स्मारक बनाने का निर्णय लिया। हालांकि इस पर काम 1997 में शुरू हो पाया। 2002 में तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद काम पूरा हुआ। इस परियोजना पर मायावती ने 4188 करोड़ रुपये खर्च किये। कार्यदायी संस्था सीएनडीएस ने ही इन स्मारकों को मायावती के हर कार्यकाल में बनाया। मायावती की मूर्तियों पर 3.49 करोड़ रुपये और 60 हाथियों पर 52.02 करोड़ रुपये खर्च हुए। दिलचस्प है कि एक हाथी की कीमत 4.25 लाख रुपये है। जबकि फिनिशिंग और ढुलाई का खर्च 3.75 लाख रुपये बैठा है।
मायावती की इस परियोजना के मरम्मत पर औसतन 30 करोड़ रुपये खर्च होते हैं। सुरक्षा तथा रख-रखाव पर 180 करोड़ रुपये खर्च होते हैं। इसके लिए 5788 कर्मचारी तैनात हैं। योगी सरकार ने अभी इस बजट में मेहरबानी दिखाते हुए इन कर्मचारियों को सातवां वेतन आयोग दे दिया है। भारतीय जनता पार्टी ने भले ही तीन बार मायावती की उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई हो पर उनके इस परियोजना के खिलाफ रही है। कांग्रेस के राहुल गांधी भी कह चुके हैं कि हाथी दिल्ली का पैसा खा जाता है। 2012 के चुनाव के दौरान शिकायत पर चुनाव आयोग को मायावती के इन हाथियों को पॉलीथिन से ढकवाना पड़ा था, हालांकि चुनाव आयोग के सामने बसपा के लोगों का तर्क था कि मायावती की पार्टी के चुनाव चिन्ह वाले हाथी की सूड़ नीचे हैं, जबकि पार्कों में जो हाथी खड़े या बैठे हैं उनकी सूड़ ऊपर है। जीते जी अपनी मूर्ति लगाने का मायावती का तर्क यह है कि बसपा के संस्थापक कांशीराम की इच्छा थी कि जहां उनकी मूर्तियां लगें। वहां उसके साथ मायावती की भी मूर्तियां लगवाई जाये। लेकिन कांशीराम की इस इच्छा का कोई दस्तावेज कहीं जनता के लिए मौजूद नहीं है। सर्वोच्च अदालत में जनता के पैसे के बेजा इस्तेमाल पर बसपा का तर्क यह है कि मूर्तियां लगाने का बजट विधानसभा से पारित है। मायावती कहती हैं कि इस वजह से यह न्यायिक परीक्षण के दायरे से बाहर है। लेकिन यह तर्क आधारहीन है, क्योंकि जितनी भी परियोजनाओं के घोटालों की जांच सीबीआई या ईडी करती है, वे सभी की सभी कैबिनेट और विधानसभा से पास होती हैं। सीएजी भी अपनी जांच में कैबिनेट और विधानसभा से पास प्रस्ताव में हुई अनियमितता को उजागर करती है।
लेकिन आज जब सर्वोच्च अदालत ने मायावती को यह संदेश दिया है कि जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा, जो सरकार के पास कर के माध्यम से आता है, वापस करने की तैयारी करनी चाहिए। तब यह न केवल एक अच्छी शुरूआत है बल्कि नसीहत भी है उन सारे लोगों के लिए जो जनता की गाढ़ी कमाई पानी की तरह बहाते हैं। जिन स्मारकों के मार्फत मायावती अमर होने का ख्वाब पाल ली थीं। वह उनकी सरकार हटने के दो-तीन साल के बाद से ही खिरने लगी हैं। उनके स्मारकों में जनता के लिए कोई जगह नहीं है।
वैसे तो ज्यादातर राजनेता और राजनीतिक दल जनता की गाढ़ी कमाई को पानी में बहाते हैं, लेकिन क्षेत्रीय दलों के जिम्मे यह आरोप ज्यादा जाता है। क्योंकि उनके हाईकमान को वोट लेने के लिए भी ऐसे वायदे करने पड़ते हैं जिसमें जनता का पैसा उनकी सरकार बनाने में इस्तेमाल होता है। तमाम परियोजनाओं को लंबित करके भी जनता की गाढ़ी कमाई पानी में बहायी जाती है। कोई राजनेता चुनाव के नतीजे आने तक जनता का हमसफर होता है, लेकिन चुनाव जीतते ही उसे जनता से जाने कौन सा खौफ सताने लगता है कि उसके लिए सुरक्षा अनिवार्य हो जाती है। मंत्रियों के आगे-पीछे चलने वाली पुलिसिया गाड़ियों में खर्च हो रहे तेल हमारे बेवजह खर्च के बड़े नमूने हैं। यदि जनता की गाढ़ी कमाई को ठीक से खर्च किया जाये तो विकास की गति में इजाफा हो जायेगा। अर्थव्यवस्था गति पकड़ लेगी। सर्वोच्च अदालत ने मायावती की मूर्तियों के मार्फत जनता की गाढ़ी कमाई को बचाने की जो शुरुआत की यह सिलसिला और आगे तक जाये तो शायद देश की तस्वीर और तकदीर बदल जाये।
लोकायुक्त ने मायावती की नोयडा और लखनऊ में पसरी स्वप्निल परियोजनाओं की जांच की थी, तो यह पाया था कि इसमें 1400 करोड़ रुपये इधर-उधर हुए हैं। लोकायुक्त ने एसआईटी गठित कर घोटाले की विस्तृत जांच समेत 12 सिफारिशें की थीं। मायावती के कबीना मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी और बाबू सिंह कुशवाहा के खिलाफ मामला दर्ज कर कार्रवाई करने को कहा था। लेकिन अखिलेश यादव में अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में लोकायुक्त की शिकायतों की अनदेखी की। हद तो यह हुई कि अमित जानी समेत कुछ सिरफिरों ने अखिलेश की सरकार आते ही मायावती की एक मूर्ति खंडित कर दी। तो अखिलेश यादव ने आनन-फानन में मायावती की नई मूर्ति उस जगह खड़ी कराई। जब मायावती की मूर्ति की तलाशी जा रही थी, तो संगीत नाटक अकादमी के परिसर में मायावती की बहुत सी ऐसी मूर्तियां निकली जो तामीर नहीं करायी जा सकी थी।
[caption id=attachment_4518 align=aligncenter width=719] जनता का जनता को दे दो[/caption]
मायावती ने 1995 के अपने पहले कार्यकाल में ही लखनऊ के गोमती नगर में अम्बेडकर स्मारक बनाने का निर्णय लिया। हालांकि इस पर काम 1997 में शुरू हो पाया। 2002 में तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद काम पूरा हुआ। इस परियोजना पर मायावती ने 4188 करोड़ रुपये खर्च किये। कार्यदायी संस्था सीएनडीएस ने ही इन स्मारकों को मायावती के हर कार्यकाल में बनाया। मायावती की मूर्तियों पर 3.49 करोड़ रुपये और 60 हाथियों पर 52.02 करोड़ रुपये खर्च हुए। दिलचस्प है कि एक हाथी की कीमत 4.25 लाख रुपये है। जबकि फिनिशिंग और ढुलाई का खर्च 3.75 लाख रुपये बैठा है।
मायावती की इस परियोजना के मरम्मत पर औसतन 30 करोड़ रुपये खर्च होते हैं। सुरक्षा तथा रख-रखाव पर 180 करोड़ रुपये खर्च होते हैं। इसके लिए 5788 कर्मचारी तैनात हैं। योगी सरकार ने अभी इस बजट में मेहरबानी दिखाते हुए इन कर्मचारियों को सातवां वेतन आयोग दे दिया है। भारतीय जनता पार्टी ने भले ही तीन बार मायावती की उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई हो पर उनके इस परियोजना के खिलाफ रही है। कांग्रेस के राहुल गांधी भी कह चुके हैं कि हाथी दिल्ली का पैसा खा जाता है। 2012 के चुनाव के दौरान शिकायत पर चुनाव आयोग को मायावती के इन हाथियों को पॉलीथिन से ढकवाना पड़ा था, हालांकि चुनाव आयोग के सामने बसपा के लोगों का तर्क था कि मायावती की पार्टी के चुनाव चिन्ह वाले हाथी की सूड़ नीचे हैं, जबकि पार्कों में जो हाथी खड़े या बैठे हैं उनकी सूड़ ऊपर है। जीते जी अपनी मूर्ति लगाने का मायावती का तर्क यह है कि बसपा के संस्थापक कांशीराम की इच्छा थी कि जहां उनकी मूर्तियां लगें। वहां उसके साथ मायावती की भी मूर्तियां लगवाई जाये। लेकिन कांशीराम की इस इच्छा का कोई दस्तावेज कहीं जनता के लिए मौजूद नहीं है। सर्वोच्च अदालत में जनता के पैसे के बेजा इस्तेमाल पर बसपा का तर्क यह है कि मूर्तियां लगाने का बजट विधानसभा से पारित है। मायावती कहती हैं कि इस वजह से यह न्यायिक परीक्षण के दायरे से बाहर है। लेकिन यह तर्क आधारहीन है, क्योंकि जितनी भी परियोजनाओं के घोटालों की जांच सीबीआई या ईडी करती है, वे सभी की सभी कैबिनेट और विधानसभा से पास होती हैं। सीएजी भी अपनी जांच में कैबिनेट और विधानसभा से पास प्रस्ताव में हुई अनियमितता को उजागर करती है।
लेकिन आज जब सर्वोच्च अदालत ने मायावती को यह संदेश दिया है कि जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा, जो सरकार के पास कर के माध्यम से आता है, वापस करने की तैयारी करनी चाहिए। तब यह न केवल एक अच्छी शुरूआत है बल्कि नसीहत भी है उन सारे लोगों के लिए जो जनता की गाढ़ी कमाई पानी की तरह बहाते हैं। जिन स्मारकों के मार्फत मायावती अमर होने का ख्वाब पाल ली थीं। वह उनकी सरकार हटने के दो-तीन साल के बाद से ही खिरने लगी हैं। उनके स्मारकों में जनता के लिए कोई जगह नहीं है।
वैसे तो ज्यादातर राजनेता और राजनीतिक दल जनता की गाढ़ी कमाई को पानी में बहाते हैं, लेकिन क्षेत्रीय दलों के जिम्मे यह आरोप ज्यादा जाता है। क्योंकि उनके हाईकमान को वोट लेने के लिए भी ऐसे वायदे करने पड़ते हैं जिसमें जनता का पैसा उनकी सरकार बनाने में इस्तेमाल होता है। तमाम परियोजनाओं को लंबित करके भी जनता की गाढ़ी कमाई पानी में बहायी जाती है। कोई राजनेता चुनाव के नतीजे आने तक जनता का हमसफर होता है, लेकिन चुनाव जीतते ही उसे जनता से जाने कौन सा खौफ सताने लगता है कि उसके लिए सुरक्षा अनिवार्य हो जाती है। मंत्रियों के आगे-पीछे चलने वाली पुलिसिया गाड़ियों में खर्च हो रहे तेल हमारे बेवजह खर्च के बड़े नमूने हैं। यदि जनता की गाढ़ी कमाई को ठीक से खर्च किया जाये तो विकास की गति में इजाफा हो जायेगा। अर्थव्यवस्था गति पकड़ लेगी। सर्वोच्च अदालत ने मायावती की मूर्तियों के मार्फत जनता की गाढ़ी कमाई को बचाने की जो शुरुआत की यह सिलसिला और आगे तक जाये तो शायद देश की तस्वीर और तकदीर बदल जाये।
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