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आसान नहीं था EVEREST का सफर, बस दिल में थी जज्बे की लहर
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अपने दोस्तों के साथ गोविंद पंत राजू (लाल जैकेटमें)
लखनऊ: कहते हैं कि अगर दिल में जज्बा हो तो कितना भी कठिन सफ़र हो पार कर ही लेते हैं। एवरेस्ट की ओर मेरी टीम के बढ़ते क़दमों को देखकर बूढ़े लोगों को भी अपने बुढ़ापे से कोई शिकायत न रहेगी। इससे पहले की कहानी में आप हमारे एवरेस्ट के आधे सफर को पढ़ ही चुके हैं। बताते हैं आपको एवरेस्ट की ओर के आगे के रोमांच को। एवरेस्ट यानी सगरमाथा यानी चोमो लुंगमा। एवरेस्ट पर पहला सफल आरोहण करने वाले महान शेरपा पर्वतारोही तेनजिंग नोर्के ने कहा था- ‘थुजि चे चोमोलुंगमा’ यानी चोमोलंगमा मैं तेरा आभारी हूं। सचमुच हर वो पर्वतारोही जो एवरेस्ट एक पहुंच पाता है, उसे एवरेस्ट का आभारी होना ही पड़ता है। इसीलिए कहा जाता है कि एवरेस्ट पर वही सफल होता है, जिस पर एवरेस्ट की कृपा होती है। मनुष्य के अदम्य साहस, जिजीविषा, शारीरिक व मानसिक क्षमताओं तथा संकल्प के बावजूद यदि एवरेस्ट की कृपा उस पर नहीं हुई तो फिर सारा खेल खत्म।
( राइटर दुनिया के पहले जर्नलिस्ट हैं, जो अंटार्कटिका मिशन में शामिल हुए थे और उन्होंने वहां से रिपोर्टिंग की थी।)
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शून्य से 38-40 अंश कम तापमान, 100 किलोमीटर प्रति घंटे से भी तेज तूफानी हवाएं, खतरनाक ऊंचाइयां, जानलेवा हिम दरारें, पल-पल आने वाली आक्सीजन की बेहद कमी एवरेस्ट को सच में मनुष्य के साहस की जानलेवा परीक्षा बना देते हैं। तभी तो 1953 में तेनजिंग और एडमंड हिलेरी के पहली बार एवरेस्ट शिखर तक पहुंचने के बाद से अब तक 225 से ज्यादा पर्वतारोही, एवरेस्ट की बेहद सुन्दर मगर उतनी ही खतरनाक बर्फ के आगोश में सदा के लिए सो चुके हैं। यह आंकड़ा सन 1900 के बाद से हर साल बढ़ता ही जा रहा है। सन 1900 के बाद से कोई भी साल ऐसा नहीं बीता है, जब एवरेस्ट पर कम से कम एक मौत न हुई हो। 2012 में तो एक ही अभियान दल के दस सदस्यों की मौत हुई थी। 2014 में आरोहण आरम्भ होने के दौरान ही एवलांच की चपेट में आने से एक साथ 16 शेरपा पर्वतारोहियों की मौत हो गई थी और नेपाल सरकार को उस वर्ष के सारे एवरेस्ट अभियान रद्द करने पड़े थे।
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2015 भी ऐसा ही हुआ जब 25 अप्रैल को आए भूकंप के बाद एक बड़े हिमस्खन की चपेट में आने से बेस कैंम्प में 18 पर्वतारोही मारे गए और 40 से भी अधिक बुरी तरह से घायल हुए थे। 2015 में भी उस घटना के बाद सारा एवरेस्ट कार्यक्रम रद्द हो गया था। इस वर्ष भी एवरेस्ट पर विजय के सिलसिले के बीच अब तक 5 मौतें हो चुकी हैं।
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एवरेस्ट का स्पर्श हर पर्वतारोही का सपना होता है। इसीलिए हर वर्ष दुनिया के हर कोने से पहाड़ों को प्यार करने वाले और प्रकृति की चुनौतियों से जूझने को तत्पर लोग एवरेस्ट की ओर आते हैं। एवरेस्ट शिखर तक पहुंचने वाले हर पर्वतारोही के पीछे कम से कम 30-35 दूसरे पर्वतारोहियों व सहायकों का हाथ होता है, जो उसकी सफलता की सीढ़ियां तैयार करते हैं। गिरिराज एवरेस्ट को स्पर्श करने का एक सपना हम कुछ मित्रों ने भी कई वर्षों से अपने मन में संजो रखा था। 2012 व 2013 में चुनावों की व्यस्तता के कारण और 2014 तथा 2015 में एवरेस्ट सीजन रद्द हो जाने के कारण इस बार हमने तय किया था कि चाहे कुछ भी हो जाए इस वर्ष वहां जाना ही है।
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जनवरी से ही अनुमति व पंजीकरण आदि प्रक्रिया पूरी करने के बाद अन्ततः हम काठमाण्डू पहुंच गए। मेरे साथी थे दिल्ली के राजेन्द्र अरोरा जो कि एक कुशल पर्वत प्रेमी होने के साथ साथ एक बेहतरीन इंसान भी हैं और भोपाल के निकट विदिशा के अरूण सिंघल जो इंजीनियर होने के अलावा अच्छे शिक्षाविद भी हैं। लेह के नौजवान और चुलबुले ताशी जांगला तथा एवरेस्ट के सोलखुम्भू इलाके के अनुभवी और गम्भीर नवांग शेरपा हमारे दो अन्य साथी थे, सदा मुस्कुराते रहने वाला बीस वर्षीय सूर्या और मजबूत मगर धीर गम्भीर प्रकाश भी हमारे साथ थे।
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काठमाण्डू से जब हम लुकला के लिए गोमा एयर के 16 सीटर विमान में चढ़ रहे थे हमारे मन में तरह-तरह की भावनाएं थीं। एक ओर उत्साह की पराकाष्ठा थी तो दूसरी तरफ अपनी उम्र और फिटनेस को लेकर तरह-तरह की आशंकाएं भी। एवरेस्ट को छू सकने का रोमांच भी था और वहां तक पहुंचने में आने वाली बाधाओं का भय भी। एक तरह से यह साठ साल की उम्र को छू रहे हम लोगों के खुद की क्षमताओं और मानसिक दृढ़ता की भी परीक्षा थी।
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काठमाण्डू के त्रिभुवन अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से उड़ने के कुछ ही क्षणों में हम नेपाल के उत्तर पश्चिमी इलाके की पहाड़ियों के ऊपर थे। छोटा सा डगमगाता हमारा जहाज कभी बादलों में घिर जाता तो कभी दूर उत्तर में दिख रही हिमालय श्रंखला हमें आह्लादित कर देती। मौसम लगातार डरावना होता जा रहा था और उसी के साथ जहाज के तेज होते झटके हमें डराते जा रहे थे।
गोविन्द पन्त राजू
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